चिति

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भारतीय जनसंघ के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पं दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्मशताब्दी वर्ष (2016-17) में पाठकों के वैचािरक प्रबोधन के लिए हम उनके लेखों का पुनर्प्रकाशन कर रहे हैंं। निम्न लेख 1947 के ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक के अंक-6 में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत है लेख का प्रथम भाग-

दीनदयाल उपाध्याय

किसी भी राष्ट्र का अस्तित्व उसकी चिति के कारण होता है। चिति के ही उदयावपात होता है। भारतीय राष्ट्र के भी उत्थान और पतन का वास्तविक कारण हमारी चिति का प्रकाश अथवा उसका अभाव है। आज भारत उन्नति की आकांक्षा कर रहा है। संसार में बलशाली एवं वैभवशाली राष्ट्र के नाते खड़ा होना चाहता है। चारों ओर लोग इस ध्येय का उच्चारण कर रहे हैं तथा उसके लिए प्रयत्नशील भी हैं। ऐसी दशा में हमको अपनी चिति का ज्ञान करना आवश्यक है। बिना चिति के ज्ञान के प्रथम तो हमारे प्रयत्नों में प्रेरक शक्ति का अभाव रहने के कारण वे फलीभूत नहीं होंगे; द्वितीय मन में भारत के कल्याण की इच्छा रखकर और उसके लिए जी तोड़ परिश्रम करके भी हम भारत को भव्य बनाने के स्थान पर उसको नष्ट कर देंगे। स्वप्रकृति के प्रतिकूल किए हुए कार्य के परिणामस्वरूप जीवन में जो परिवर्तन दिखाई देता है, वह विकास के स्थान पर विनाश का द्योतक है और इस प्रकार ‘विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम’ की उक्ति चरितार्थ होती है।

हमारे राष्ट्र जीवन की चिति क्या है? हमारी आत्मा का क्या स्वरूप है? इस स्वरूप की व्याख्या करना कठिन है; उसका तो साक्षात्कार ही संभव है, किंतु जिन महापुरुषों ने राष्ट्रात्मा का पूर्ण साक्षात्कार किया, जिनके जीवन में चिति का प्रकाश उज्ज्वलतम रहा है उनके जीवन की ओर देखने से, उनके जीवन की क्रियाओं और घटनाओं का विश्लेषण करने से, हम अपनी चिति के स्वरूप की कुछ झलक पा सकते हैं। प्राचीन काल से लेकर आज तक चली आनेवाली राष्ट्र पुरुषों की परंपरा के भीतर छिपे हुए सूत्र को यदि हम ढूंढ़े तो संभवतया चिति के व्यक्त परिणाम की मीमांसा से उसके अव्यक्त कारण की भी हमको अनुभूति हो सके। जिन महान् विभूतियों के नाम स्मरण मात्र से हम अपने जीवन में दुर्बलता के क्षणों में शक्ति का अनुभव करते हैं, कायरता की कृति का स्थान वीर व्रत ले लेता है, उनके जीवन में कौन सी बात है, जो हममें इतना सामर्थ्य भर देती है? कौन सी चीज है जिसके लिए हम मर मिटने के लिए तैयार हो जाते हैं? हमारा मस्तक श्रद्धा से किसके सामने नत होता है और क्यों?

वह कौन सा लक्ष्य है जिसके चारों ओर हमारा राष्ट्र जीवन घूमता आया है? अपने राष्ट्र के किस तत्त्व को बचाने के लिए हमने बड़े-बड़े युद्ध किए? किसके लिए लाखों का बलिदान हुआ? उत्तर हो सकता है भारत की भूमि के लिए। किंतु भारत से तात्पर्य क्या जड़ भूमि से है? क्या हमने हिमालय के पत्थर और गंगा के जल की रक्षा की है? हमारे अवतारों ने किस हेतु जन्म लिया था? उनको हम भगवान् का अवतार क्यों कहते हैं?

उपर्युक्त अनेक प्रकार के प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का यदि हम उत्तर दें तो हमको अपनी चिति का पता चल सकता है। हमारे शास्त्रकारों ने इसको ‘धर्म’ के नाम से पुकारा है। आज धर्म शब्द के भ्रमपूर्ण अर्थ प्रचलित हो गए हैं। अंग्रेजी के रिलीजन का पर्यायवाची मानकर तथा रिलीजन और दीन के नाम पर यूरोप तथा अन्य देशों में जो-जो अमानुषिक अत्याचार हुए हैं उनका संबंध इसके साथ बैठाकर, लोग धर्म शब्द से चिढ़ने लग गए हैं। वे धर्म को नष्ट करने पर तुले हुए हैं अथवा उनमें जो नरम दल के हैं, वे धर्म को केवल व्यक्तिगत जीवन तक सीमित चाहते हैं। राष्ट्र और समाज का धर्म से वे कोई संबंध नहीं मानते। जहाँ तक ‘धर्म’ से उनका तात्पर्य रिलीजन से है, वे सही हो सकते हैं। किंतु धर्म का अर्थ तो व्यापक है और इस व्यापक अर्थ के पीछे जो भाव हैं वे ही भाव भारत की कोटि-कोटि जनता में धर्म शब्द को सुनकर उत्पन्न होते हैं। आज राम और कृष्ण हमारे धर्म के महापुरुष कहे जाते हैं। क्या वे किसी की व्यक्तिगत संपत्ति है? कौन सा राष्ट्र भक्त उनकी स्मृति को भारत से मिटा देना चाहेगा? रामायण और महाभारत हमारे धर्म ग्रंथ हैं। क्या वे हमारे लिए अपठनीय हैं? क्या उनमें आज के राष्ट्र जीवन को प्रेरणा देनेवाला कुछ भी नहीं है? हमारा धर्म हमको गंगा को पवित्र मानना सिखाता है, हमारा धर्म हमको चारों धाम की यात्रा द्वारा भारतभूमि की परिक्रमा करने को कहता है। क्या यह राष्ट्र भक्ति की उज्ज्वलतम भावना ही नहीं है?

हमारा धर्म हमारे राष्ट्र की आत्मा है। बिना धर्म के राष्ट्र जीवन का कोई अर्थ नहीं रहता। भारतीय राष्ट्र न तो हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक फैले हुए भू-खंड से बन सकता है और न तीस करोड़ मनुष्यों के झुंड से। एक ऐसा सूत्र चाहिए जो तीस करोड़ को एक-दूसरे से बांध सके, जो तीस कोटि को इस भूमि में बाँध सके। वह सूत्र हमारा धर्म ही है बिना धर्म के भारतीय जीवन का चैतन्य ही नष्ट हो जाएगा, उसकी प्रेरक शक्ति ही जाती रहेगी। अपनी धार्मिक विशेषता के कारण ही संसार के भिन्न-भिन्न जन समूहों में हम भी राष्ट्र के नाते खड़े हो सकते हैं। धर्म के पैमाने से ही हमने सबको नापा है। धर्म की कसौटी पर ही कसकर हमने खरे-खोटे की जाँच की है। हमने किसी को महापुरुष मानकर पूजा है तो इसलिए कि उनके जीवन में पग-पग हमको धार्मिकता दृष्टिगोचर होती है। राम हमारे आराध्य देव बनकर रहे हैं और रावण सदा से घृणा का पात्र बना है। क्यों? राम धर्म के रक्षक थे और रावण धर्म का विनाश करना चाहता था। युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों भाई-भाई थे, दोनों राज्य चाहते थे, एक के प्रति हमारे मन में श्रद्धा है तो दूसरे के प्रति घृणा।

-क्रमश: