जीवन का सुख

| Published on:

पं. दीनदयाल उपाध्याय

गतांक से…

व्यक्ति समाज से लेता है, हर समय समाज पर अवलंबित रहता है। इसलिए समाज का सुख, यही व्यक्तिगत सुख होना चाहिए। चार लोग सहायता करते हैं, इससे आदमी आगे चलता है, सुखी बनता है। उसकी भाषा, ज्ञान और कर्मशक्ति समाज पर निर्भर रहती है। केवल हाथ-पैर हिलाना, कर्म नहीं, खेती करना किसने सिखाया? इंजीनियर, कलाकार कहां से बना? तंत्रज्ञान दूसरों से प्राप्त होता है।

समाज मनुष्य को कर्मयोगी बनाता है। समाज नहीं सिखाएगा तो आदमी हाथ-पैर से कर्म नहीं कर सकता। कर्म समाज के द्वारा सिखाए जाते हैं। समाज के लिए जो उपयोगी नहीं, वह कर्म नहीं। केवल उठना, बैठना कर्म नहीं। पागल भी चक्कर लगाता रहता है। वह कर्मयोगी नहीं, क्योंकि उसका कर्म समाज के लिए उपयोगी नहीं। सभी प्रकार का ज्ञान हमें समाज से होता है। मनुष्य को समाज से हटा दिया तो उसे ज्ञान नहीं रहेगा। गुरु, अध्यापन और लोक-संस्कार इनसे हमें अच्छे-बुरे का ज्ञान अलग होगा। हम किसी को उल्लू कहते हैं, तो उसे बुरा लगता है। परंतु अंग्रेजी में ‘एज वाइज एन आउल’ ऐसा शब्द प्रयोग करते हैं। हम मूर्ख को गधा कहते हैं। परंतु गधा समझदार प्राणी माना जाता है। जो उल्लू को विद्वान् समझता है, उनकी बुद्धि का स्तर क्या होगा, इसके बारे में आप ही कल्पना कर सकते हैं।

समाज हमें स्वाभाविकता से मिला है।
इसलिए हमारे ख़याल में नहीं आता।
हमें समाज का विस्मरण हो जाता है।
यह विस्मरण बढ़ जाएगा, तो हम
समाज से दूर हटते जाएंगे।
हम समाज से लेते हैं, तो
वापस भी देना चाहिए

समाज ही हमारे विधि निषेध का निर्णय करता है। जब दो लोग मिलते हैं तो हाथ जोड़ते हैं। क्यों? एक हाथ से नमस्कार को बुरा मानते हैं और दो हाथ जोड़कर नमस्कार करने को सम्मान मानते हैं। अफ्रीका में दो आदमी मिले तो परस्पर नाक रगड़ते हैं। हाथ मिलाने की प्रथा पाश्चात्य देशों में है। मैंने एक लेख पढ़ा था। उसमें लिखा था कि ठंडे देश में हाथ मिलाने में आनंद होता है, क्योंकि उससे उष्णता निर्माण होती है। यहां तो गरमी रहती हैं। हाथ को पसीना रहता है, इसलिए हाथ जोड़ना ही अच्छा। तो हमें सब कुछ समाज से प्राप्त होता है। क्या खाना, कैसे खाना इसको समाज देता है। भक्ति भावनाओं का प्रकटीकरण भी समाज हमें सिखाता है। यहां कीर्तन होगा तो बहुत लोग जम जाएंगे। उसमें आनंद मनाएंगे। इंग्लैंड में ‘बॉल डांस’ प्रचलित है, यहां नहीं। हृदय की तीव्रतम तरंगें जीवन को आंदोलित कर देती हैं। हमारे शरीर को जो आकार मिला है, वह स्वाभाविक नहीं। बंगाल में लोगों के सिर का जो विशिष्ट आकार रहता है, वह दाई देती है। बच्चा पैदा होते ही उसे आकर दिया जाता है। तो इस प्रकार हमारा मन, शरीर, बुद्धि, भक्ति-यह सब समाज से मिलता है। समाज को हटा दिया तो बाक़ी जीवन रहेगा ही नहीं। परंतु जो अत्यंत सहज सामान्य चीज होगी, उसको आदमी भूल जाता है। ‘जिंदगी के लिए क्या जरूरी है’ ऐसा पूछा जाए तो लोग कहेंगे कि ‘रोटी’। परंतु रोटी से पानी अधिक महत्त्व का है।

प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी और पुरी के शंकराचार्यजी ने केवल गंगाजल लेकर उपवास किया। पानी न मिला तो एक-दो दिन गुजार सकते हैं, परंतु हवा न मिली तो कुछ मिनटों में खत्म हो जाएंगे। लोग कहते हैं कि पेट पापी है, परंतु सचमुच विचार किया तो सांस पापी है। पेट के लिए सब कुछ करना पड़ता है, पानी के लिए प्रयत्न कम और हवा तो सहज मिल जाती है। जो वस्तु सहज मिलती है, वह आवश्यक होने पर भी दुर्लक्ष्य किया जाता है। हवा की तक़लीफ़ शहरों में रहती है। फैक्टरी में या हिमालय पर सांस मुश्किल हो जाती है। बड़े नगरों में हवा शुद्ध रखने के लिए बड़े प्रयत्न किए जाते हैं।

उसी प्रकार समाज हमें स्वाभाविकता से मिला है। इसलिए हमारे ख़याल में नहीं आता। हमें समाज का विस्मरण हो जाता है। यह विस्मरण बढ़ जाएगा, तो हम समाज से दूर हटते जाएंगे। हम समाज से लेते हैं, तो वापस भी देना चाहिए। हम बैंक के एकाउंट से पैसे निकालते चलें, तो थोड़े ही दिनों में एकाउंट ख़त्म हो जाएगा। इसलिए लेन-देन दोनों चाहिए। हम समाज से लेते रहते हैं और समाज ने न दिया तो गाली देते हैं। मां हमें रोटी देती है, बाजार से साग लाकर देना हमारा काम है। हम खेत से धान्य लेते हैं और खेत में खाद न डालें तो खेत की शक्ति खत्म हो जाएगी। भगवान् की कृपा से हमारे समाज का सामर्थ्य इतना है कि हम इतने दिन लेते आए, तो भी समाज दे रहा है। अनेक काम स्वाभाविक रीति से होते हैं, व्यवसाय चला आ रहा है। विवाह के समय पुरोहित की आवश्यकता होती है। पुरोहित तैयार किया जाए, इसकी चिंता कोई नहीं करता। त्रिनिडाड के कुछ लोग हिंदुस्तान आए थे। नब्बे सौ वर्ष के पूर्व वे उत्तर प्रदेश, बिहार, मद्रास से वहां गए। वहां के खेत में मजदूरी करते हैं तो अपने लड़कों के विवाह कैसे करना, यह उनके सामने प्रश्न है। रामायण की चार चौपाइयां कहकर विवाह करते हैं। परंतु उनको लगता है कि वेद, मंत्र, सप्तपदी, पद्धति से विवाह विधिवत् होना चाहिए। इसलिए कुछ पुरोहित, पंडित वहां जाने चाहिए तो हमारे समाज में अनेक बातें स्वाभाविक रूप से हैं, हम उनकी चिंता नहीं करते। परंतु कुछ-न-कुछ चिंता करनी पड़ती है।

अगर हमारा सुख समाज के ऊपर निर्भर
है तो समाज सुखी बनाने का तरीका
निकालेगा। जितने भी तरीके निकालेंगे,
उतने ही हम ऊपर बढ़ते जाएंगे। स्वार्थ
यानी अधर्म है और परमार्थ यानी धर्म।
हम जो व्यवहार करते हैं, वह हमें
कंपाउंड इंटेरेस्ट से मिल जाता है।
यही धर्म का रास्ता है। इससे ही
समाज तुष्ट हो जाता है और इस
पर ही हमारा सुख और योगक्षेम निर्भर है

हमारा सुख समाज के ऊपर निर्भर है। इसलिए आप समाज की चिंता करोगे तो आपको सुख मिलेगा। केवल अपने ही सुख की चिंता करोगे, तो दौड़-धूप, छीना-झपटी हो जाएगी। दूसरे को हंसाने का एक खेल होता है। उसमें पहले खुद हंसना पड़ता है। दूसरे को रोता देखकर आपको भी रोना आता है। एक गांव में एक लड़की थी। वह झाड़ू लगा रही थी, तब उसके मन में विवाह का विचार आया। उसने कल्पना की कि वह ससुराल जाएगी, उसे लड़का पैदा होगा, वह बीमार पड़ेगा और देहात में डॉक्टर न होगा तो वह बच्चा मर जाएगा। इस कल्पना से वह रोने लगी। वहां उसकी मां आई। बेटी को रोता देखकर उसने सोचा कि कोई बुरी खबर आई होगी, तो वह भी रोने लगी। बाद में पड़ोसिन आई, वह मां-बेटी को रोते देखकर रोने लगी। लड़की का बाप आया वह सबको रोते देखकर रोने लगा। थोड़ी देर बाद एक रिश्तेदार आया उसने पूछा कि वे सब क्यों रो रहे हैं, तो उस लड़की के बाप ने कहा, ‘ये सब रो रहे थे, इसलिए मैं रो रहा है। पड़ोसिन ने कहा कि मां-बेटी रो रही थीं. मैं तो इसलिए रो रही हूं और फिर मां ने बेटी से पूछा कि बेटी, तू क्यों रो रही थी। बेटी बोली, ‘मेरा बच्चा मर गया, मैं इसलिए रो रही हूं।’ मां ने पूछा, ‘तेरा बच्चा कहां है?’ तो उसने अपने मन की कल्पना बता दी। यदि तुम रोना नहीं चाहते तो तुम्हें दूसरों को हंसाना चाहिए। किसान अनाज अपने लिए पैदा करता है क्या? नहीं, बीज बोते समय वह कहता है, ‘पशु, पक्षी, देव, किन्नर, गांववाले, राजा, बाल बच्चे – इनके लिए और मेरे लिए अन्न दे।’ समाज का ढांचा हो ऐसा है। बुनकर दूसरों के लिए कपड़ा बुनता है। हम समाज से केवल लेने का विचार करेंगे तो दुःखी होंगे। देने में आनंद है, लेने में नहीं। जब हमारे घर अतिथि आता है, तब हम उसको अच्छा भोजन खिलाते हैं। वह तारीफ़ करता है तो हमें आनंद होता है। हमने बढ़िया खाया तो हमें आनंद नहीं होता। मैं एक गृहस्थ के घर गया था। उनके घर में एक ही पलंग था। उन्होंने मुझे उस पर सुला दिया। उसे उसमें ही आनंद मिला। यदि न मिलता तो वह मुझे पलंग पर क्यों सुलाता। यदि मैं पलंग पर सोने के लिए इनकार करता तो उसे दुःख होता। समाज के लिए काम करने में आनंद है। जब मानव यह भूल जाता है, तब विकृति निर्माण होती है। पेट भर गया तो और ज्यादा खाना नहीं और खाते गए तो बीमार हो जाते हैं। पेट कहता है ‘बस’ परंतु पेट की बात हमने नहीं सुनी तो उसे दुःख होता है। अगर हमारा सुख समाज के ऊपर निर्भर है तो समाज सुखी बनाने का तरीका निकालेगा। जितने भी तरीके निकालेंगे, उतने ही हम ऊपर बढ़ते जाएंगे। स्वार्थ यानी अधर्म है और परमार्थ यानी धर्म। हम जो व्यवहार करते हैं, वह हमें कंपाउंड इंटेरेस्ट से मिल जाता है। यही धर्म का रास्ता है। इससे ही समाज तुष्ट हो जाता है और इस पर ही हमारा सुख और योगक्षेम निर्भर है। (समाप्त)

-संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: मैसूर, मई 19, 1967