ओ. राजगोपाल
पं दीनदयाल उपाध्याय मेरे राजनैतिक गुरू थे। वही मुझे वर्ष 1961 में भारतीय जनसंघ में लेकर आए। उस समय मैं पालघाट, केरल में वकालत कर रहा था, जब परमेश्वरनजी (तत्कालीन प्रदेश जनसंघ के संगठन मंत्री और अब विवेकानन्द केन्द्र, कन्याकुमारी के अखिल भारतीय अध्यक्ष हैं) ने मुझे उनसे भेंट कराई। दीनदयालजी शरीर से पतले दुबले थे, उनका व्यक्तित्व कोई प्रभावशाली नहीं था। वे बड़े सरल थे, परन्तु वे तीव्र बुद्धि के थे, उनके तर्क अकाट्य रहते थे। फिर भी वे यथार्थवादी थे। मैं उनके इस राजनैतिक विचारों से बहुत आकर्षित हुआ था कि भारतीय राजनीति एक धार्मिक कार्य है, जबकि पश्चिमी देशों में इसे व्यवसाय माना जाता है। 1950 के दशक में हम इस इस बात से नाराज थे कि नेहरू जैसे कांग्रेस के महान नेताओं ने भी गांधीवादी विचारों के साथ विश्वासघात किया और अवाडी अधिवेशन में ‘समाजवादी आदर्श’ को मानते हुए कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी विचारधारा का विकल्प अपनाया। उस समय स्टीफन स्पेंडर जैसे विख्यात चिंतक, जो मूलत: समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे, से भी उनका मोह भंग टूट गया था, क्योंकि इस विचारधारा की हिमायत कर रहे थे, उन्हें सोवियत रूस में सत्ता मिली और यह सिद्ध हो गया कि वे आर्थिक मुक्ति नहीं दिला सकते हैं, बल्कि इस विचारधारा को अपनाने से तो उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का ही हनन होगा। उनकी विख्यात पुस्तक ‘दि गोड देट फेल्ड’ ने बहुत से लोगों की आंखें खोल दीं।
समाजवादी चिंतकों का एक और दोष भी हमारे सामने प्रगट हो गया जब हमने पूज्य स्वामी चिन्मयानंद तथा गुरूजी जैसे अपने प्राचीन विद्वानों के भाषणों को सुना, जिसमें उन्होंने हमें जीवन के लौकिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं पर जोर देने को कहा। समाजवादी मानव के आध्यात्मिक पक्ष को मानते ही न थे। बल्कि उनका मानना था कि अध्यात्म तो देश की भौतिक प्रगति के लिए रोड़ा है। इस प्रकार नेहरूवादी विचारकों ने व्यावहारिक रूप से गांधीवाद को त्याग दिया और समाजवाद के प्रशंसक बन गए।
यह वह समय था, जब मैं दीनदयालजी के सम्पर्क में आया, जिन्होंने एकात्म मानववाद के अपने विख्यात भाषण में ‘धर्म राज्य’ की विचारधारा को प्रस्तुत किया। उन्होंने मानव और समाज के समग्र विकास पर बल दिया। उन्होंने धर्म, अर्थ और मोक्ष के महत्व को समझाया। मैं उनकी बातों से और अधिक प्रभावित हुआ और महसूस किया कि भारत के लिए न तो पूंजीवाद और न ही समाजवाद उपयुक्त है, बल्कि एकात्म मानववाद और धर्म राज्य की विचारधारा ही महत्वपूर्ण है। मैं जनसंघ में शामिल हो गया और मुझे दीनदयालजी के प्रेरणास्पद नेतृत्व में काम करने का सौभाग्य मिला।
दीनदयालजी ने व्यापक रूप से केरल का दौरा किया। वे सभी जिलों में गए। उन दिनों समाजवाद का बोलबाला था। केरल में कम्युनिस्टों के पास सत्ता थी। दीनदयालजी की संगठनात्मक क्षमता बड़ी प्रभावशाली थी। वे केरल को बहुत पसंद करते थे। वे आदि शंकराचार्य के बड़े भारी प्रशंसक थे और उन्होंने शंकराचार्य के जन्मस्थल कलाडी में शंकराचार्य मन्दिर में पूजा–अर्चना की।
यद्यपि केरल में जनसंघ का काम अत्यंत नगण्य था, फिर भी दीनदयालजी ने जनसंघ का 14वां वार्षिक सम्मेलन केरल में रखने पर जोर दिया। उन्होंने हमें हर तरह की सहायता और मार्गदर्शन दिया। मैं तब स्वागत समिति का सचिव था। 28, 29 और 30 दिसम्बर 1967 को सम्पन्न हुए इस अधिवेशन में भी दीनदयालजी की इच्छा न रहने पर भी उन्हें जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। 41वें दिन उन्हें मुगलसराय रेलवे स्टेशन यार्ड में हत्या होने के कारण मृत अवस्था में पाया गया। मुझे उनकी हत्या का समाचार सुनकर बेहद दुख हुआ। उनकी शोक सभा में मैंने अपनी वकालत छोड़ने का निर्णय लेने की घोषणा की और कहा कि मैं पूरी तरह से दीनदयालजी के सपनों को साकार करने के लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में काम करूंगा। अनेक कार्यकर्ताओं ने उनके जीवन के आदर्शों को अपना कर अतुलनीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। मेरी कामना है कि उनका जीवन और आदर्श आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहे।
(लेखक भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं)