बाल गंगाधर तिलक

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(23 जुलाई 1856- 1 अगस्त, 1920)

बाल गंगाधर तिलक विद्वान, गणितज्ञ, दार्शनिक और प्रखर राष्ट्रवादी व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता की नींव रखने में सहायता की। तिलक ने सन् 1914 ई. में ‘इंडियन होमरूल लीग’ की स्थापना की और इसके अध्यक्ष रहे।

जीवन परिचय

बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई, सन् 1856 ई. को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में हुआ था। इनका पूरा नाम ‘लोकमान्य श्री बाल गंगाधर तिलक’ था। उन्होंने सन् 1876 ई. में बी.ए. आनर्स की परीक्षा पास की और सन् 1879 ई. में बंबई विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. किया। शिक्षा के बाद तिलक ने अपना अधिकांश समय सार्वजनिक सेवा में लगाने का निश्चय किया।

स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी

तिलक सन् 1905 ई. से सक्रिय राजनीतिक आंदोलन में पूरी तरह कूद गए। बंगाल के विभाजन के कारण देश में राष्ट्रवादी भावनाओं का ज्वार आया। इसी के साथ स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा आदि स्वराज्य जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम दल के लिए तिलक के विचार ज्यादा प्रखर थे। नरम दल के लोग छोटे सुधारों के लिए सरकार के पास वफ़ादार प्रतिनिधिमंडल भेजने में विश्वास रखते थे। वहीं, तिलक का लक्ष्य स्वराज था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने प्रखर विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया।
इस मामले पर सन् 1907 ई. में कांग्रेस के ‘सूरत अधिवेशन’ में नरम दल के साथ उनका संघर्ष हुआ। अंग्रेजों की सरकार ने तिलक पर राजद्रोह और आतंकवाद फ़ैलाने का आरोप लगाकर उन्हें छह वर्ष के कारावास की सज़ा दे दी और मांडले (बर्मा) वर्तमान म्यांमार में निर्वासित कर दिया। ‘मांडले जेल’ में तिलक ने अपनी महान कृति ‘भगवद्गीता -रहस्य’ का लेखन शुरू किया, जो हिन्दुओं की सबसे पवित्र पुस्तक का मूल टीका है। तिलक ने भगवद्गीता के इस रूढ़िवादी सार को ख़ारिज कर दिया कि यह पुस्तक संन्यास की शिक्षा देती है। उनके अनुसार, गीता से मानवता के प्रति नि:स्वार्थ सेवा का संदेश मिलता है।

इंडियन होमरूल लीग की स्थापना

प्रथम विश्वयुद्ध के ठीक पहले सन् 1914 ई. में रिहा होने पर वह पुन: राजनीति में कूद पड़े और ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा’ के नारे के साथ इंडियन होमरूल लीग की स्थापना की। सन् 1916 ई. में वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए तथा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुए ऐतिहासिक लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर किए। ‘इंडियन होमरूल लीग’ के अध्यक्ष के रूप में तिलक सन् 1918 में इंग्लैंड गए। गौरतलब है कि तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए।

सामाजिक और राजनीतिक दर्शन

पुरानी परंपरा और संस्थाओं के प्रति जनता में अब नई जागरूकता प्रकट हो रही थी। इसके सबसे स्पष्ट उदाहरण थे पुरानी धार्मिक आराधना, गणपति-पूजन और शिवाजी के जीवन से जुड़े प्रसंगों पर महोत्सवों का आयोजन। इन दोनों आंदोलनों के साथ तिलक का नाम घनिष्ठ रूप से जुड़ा। तिलक का दृढ़ विश्वास था कि पुराने देवताओं और राष्ट्रीय नेताओं की स्वस्थ वंदना से लोगों में सच्ची राष्ट्रीयता और देशप्रेम की भावना विकसित होगी। विदेशी विचारों और प्रथाओं के अंधानुकरण से नई पीढ़ी में अधार्मिकता पैदा हो रही है और उसका विनाशक प्रभाव भारतीय युवकों के चरित्र पर पड़ रहा है। तिलक का विश्वास था कि अगर स्थिति को इसी प्रकार बिगड़ने दिया गया तो अंतत: नैतिक दिवालिएपन की स्थिति आ जाएगी, जिससे कोई भी राष्ट्र उबर नहीं सकता। तिलक के विचार में, भारतीय युवकों को स्वावलंबी और अधिक ऊर्जावान बनाने के लिए उनको अधिक आत्म-सम्मान का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
तिलक मौलिक विचारों के व्यक्ति थे। वह संघर्षशील और परिश्रमशील भी थे। वह विशेष प्रसन्नता का अनुभव तब करते थे, जब उन्हें कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता था। उनके कार्य परोपकार की भावना से भरे होते थे। उनकी एकमात्र इच्छा लोगों की भलाई के लिए कार्य करना था। उनमें योग्यता, अध्यवसाय, उद्यमशीलता और देश-प्रेम का ऐसा अनूठा संगम था कि अंग्रेज़ सरकार उनसे हमेशा आशंकित रहती थी। 1 अगस्त, सन् 1920 ई. में बंबई में तिलक की मृत्यु हो गई। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गांधी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा।