आधारभूत लक्ष्य

| Published on:

                                                                                दीनदयाल उपाध्याय

 

हम जब भारत के लोग आर्थिक कार्यक्रम का विचार करते हैं तो हमारे सम्मुख कुछ ऐसे निश्चित लक्ष्य एवं तथ्य आते हैं, जिन्हें हम बदलना नहीं चाहेंगे, बल्कि सब प्रकार से उनका संरक्षण एवं संवर्धन ही हमारे प्रयत्नों का उद्देश्य होना चाहिए। प्रथम, भारत ने बड़े प्रयत्नों के बाद अंग्रेजों से मुक्ति पाई है। हम किसी भी शर्त पर इस स्वतंत्रता को गंवाना नहीं चाहेंगे। हमारी योजनाओं का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए, अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा का सामर्थ्य उत्पन्न करना। दूसरे, हमने अपने लिए एक प्रजातंत्रीय ढांचा चुना है। यदि आर्थिक समृद्धि का कोई भी कार्यक्रम हमारी प्रजातंत्रीय पद्धति के मार्ग में बाधक होता है तो वह हमें स्वीकार नहीं होगा। तीसरे हमारे जीवन के कुछ सांस्कृतिक मूल्य हैं जो हमारे लिए तो राष्ट्रीय जीवन के कारण, परिणाम और सूचक हैं तथा विश्व के लिए भी अत्यंत उपादेय हैं। विश्व को इस संस्कृति का ज्ञान कराना हमारा राष्ट्रीय जीवनोद्देश्य हो सकता है। इस संस्कृति को गंवाकर यदि हमने अर्थ कमाया भी तो वह निरर्थक और अनर्थकारी होगा।

हमारा आर्थिक कार्यक्रम यद्यपि इन मर्यादाओं के अंतर्गत ही रहेगा, फिर भी इनसे हमारे प्रयत्नों के मार्ग में कोई रुकावट नहीं। ये नियोजकों के पैर की बेड़ियां नहीं, बल्कि उनके मार्ग के संबल हैं। यदि इन तीनों भावनाओं का सही-सही उपयोग किया जाए, तो उनसे राष्ट्र के सामूहिक प्रयत्नों को भारी बल मिल सकता है। यदि कल की समृद्धि के लिए आज कष्ट उठाने हैं, तो उसके लिए मन की तैयारी इन भावनाओं के अतिरिक्त आर्थिक उद्देश्यों से नहीं की जा सकती।

सैनिक सामर्थ्य की अभिवृद्धि

राजनीतिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए राष्ट्र का सैनिक दृष्टि से संरक्षण करना आवश्यक है। इस हेतु हम युद्ध सामग्री के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रह सकते। यह निर्भरता एक ओर तो हमें दूसरों का कृपाकांक्षी बना देगी, दूसरी ओर युद्ध सामग्री पैदा करने वाले राष्ट्रों के मन में अपने इस सामग्री के बाजार बनाए रखने और बढ़ाने के लिए, सदैव ही युद्ध की विभीषिका निर्माण करने का मोह उत्पन्न करेगी। यदि भारत जैसा सामरिक महत्त्व की स्थिति वाला देश सैनिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो जाए, तो विश्व की शांति को भंग करने की संभावनाएं भी कम हो जाएंगी।

आत्मनिर्भरता

यह भी आवश्यक है कि हम आर्थिक क्षेत्र में भी आत्मनिर्भर बनें। यदि हमारे कार्यक्रमों की पूर्ति विदेशी सहायता पर निर्भर रही तो वह अवश्य ही हमारे ऊपर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बंधनकारक होगी। हम सहायता देने वाले देशों के आर्थिक प्रभाव क्षेत्र में आ जाएंगे। अपनी आर्थिक योजनाओं की सफल पूर्ति में संभव बाधाओं को बचाने की दृष्टि से हमें अनेक स्थलों पर मौन रहना पड़ेगा। जो राष्ट्र दूसरों पर निर्भर रहने की आदत डाल लेता है, उसका स्वाभिमान नष्ट हो जाता है। ऐसा स्वाभिमानशून्य राष्ट्र कभी अपनी स्वतंत्रता की क़ीमत नहीं आंक सकता। यह भी निश्चित है कि बाहर का कोई भी देश हमें हमारे ढंग से उपभोग करने के लिए सहायता नहीं देगा। हमारी योजनाओं की वे छानबीन करेंगे और फिर हमें वे योजनाएं बनानी पड़ेगी, जो चाहे हमारे अनुकूल न हों, किंतु विदेशी सहायता के साथ मेल खा सकें।

प्रजातंत्र का पोषण

हमारा आर्थिक कार्यक्रम प्रजातंत्र का संरक्षक एवं पोषक होना चाहिए। राष्ट्र की शासन व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को सहभागी बनाना ही प्रजातंत्र का उद्देश्य है। इसके लिए चुनाव की प्रणाली साधन के रूप में अपनाई गई है। चुनाव से प्रजातंत्र प्रतिनिधितंत्र का रूप धारण कर लेता है। पुराने यूनान के नगर राज्यों के समान प्रजा द्वारा प्रत्यक्ष शासन एक विशाल क्षेत्र में संभव नहीं। अतः प्रतिनिधियों की आवश्यकता है। किंतु शासन के बहुत से कार्य ऐसे हैं, जिन्हें हम स्थानीय आधार पर कर सकते हैं। इन्हें प्रतिनिधियों द्वारा चलाई गई सत्ता को सौंपने की आवश्यकता नहीं। अतः प्रशासनिक विकेंद्रीकरण राजनीतिक प्रजातंत्र के लिए नितांत आवश्यक है।

प्रतिनिधियों का निर्वाचन जितना निष्पक्ष और स्वतंत्रता से हो सकेगा, उतना ही अधिक वे प्रजातंत्र को सार्थक कर सकेंगे। चूंकि मनुष्य का कोई भी निर्णय एकांगी नहीं होता, इसलिए इस स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है कि वह आर्थिक दृष्टि से भी स्वतंत्र हो। राजनीतिक प्रजातंत्र बिना आर्थिक प्रजातंत्र के नहीं चल सकता। जो अर्थ की दृष्टि से स्वतंत्र है, वही राजनीतिक दृष्टि से अपना मत स्वतंत्रतापूर्वक अभिव्यक्त कर सकेगा। भीष्म पितामह जैसे व्यक्ति को भी आर्थिक परतंत्रता के कारण अपने राजनीतिक विचारों पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। सभा में वे अन्याय का प्रतिकार नहीं कर पाए। उन्होंने स्वीकार किया कि पुरुष अर्थ का दास होता है (अर्थस्य पुरुषो दासः), अत: अर्थ की स्वतंत्रता आवश्यक है।

व्यक्ति के अधिकार

व्यक्ति के नाते जब हम आर्थिक स्वतंत्रता अथवा प्रजातंत्र का विचार करते हैं, तो हमें उसके कुछ अधिकारों को मान्यता तथा उनके संरक्षण की गारंटी देनी होगी। (उत्पादन और उपभोग इन दो प्रमुख कर्मों के द्वारा व्यक्ति आर्थिक क्षेत्र में अवतीर्ण होता है। यदि उसे उत्पादन और उपभोग इन दोनों की स्वतंत्रता प्राप्त हो गई, तो हम कह सकते हैं कि वह आर्थिक स्वतंत्रता का उपभोग कर रहा है।) इनमें भी उत्पादन की स्वतंत्रता प्रमुख है, क्योंकि उसके द्वारा ही व्यक्ति अपने उपभोग की पात्रता प्राप्त करता है। यदि वह सामूहिक उत्पादन में सहभागी न हो तो वह न तो राष्ट्र को अपना योगदान दे सकेगा और न उपभोग की क्षमता सिद्ध कर सकेगा। हां, यह अवश्य है कि वह पूरे जीवन तथा सभी अवस्थाओं में उत्पादन नहीं कर सकता। बच्चा और बूढ़ा, रोगी और अपंग साधारणतः काम में नहीं लग सकता, फिर भी उन्हें उपभोग तो करना पड़ता है और कई बार तो उनका हिस्सा ‘नॉर्मल’ से अधिक ही होता है। अतः जहां हमें व्यक्ति को इस बात की आश्वस्ति देनी होगी कि वह हमेशा काम पा सकेगा, वहां हमें इसकी भी व्यवस्था करनी होगी कि जिन अवस्थाओं में वह काम नहीं कर सकता, उस समय भी उसे अपने उपभोग की स्वतंत्रता से वंचित न होना पड़े।

प्रत्येक को काम

‘प्रत्येक को वोट’ जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निकष है, वैसे ही प्रत्येक को काम’ यह आर्थिक प्रजातंत्र का मापदंड है। काम का यह अधिकार बेगार या दास मज़दूरी (Slave Labour) से उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार कम्युनिस्ट देशों को ‘वोट’ प्रजातंत्रीय अधिकार का उपभोग नहीं है। काम प्रथम तो जीविकोपार्जनीय हो तथा दूसरे व्यक्ति को उसे चुनने की स्वतंत्रता हो। यदि काम के बदले में राष्ट्रीय आय का न्यायोचित भाग नहीं मिलता तो उस काम की गिनती बेगार में होगी। इस दृष्टि से न्यूनतम वेतन, न्यायोचित वितरण तथा किसी-न-किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था आवश्यक हो जाती है।

मर्यादाएं

उत्पादन और उपभोग की अमर्यादित स्वतंत्रताओं की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि एक व्यक्ति द्वारा उत्पादन की स्वतंत्रता दूसरे के मार्ग में बाधक होती है तो वह नहीं दी जा सकती। एक बड़े कारख़ाने का मालिक यद्यपि स्वयं उत्पादन की स्वतंत्रता का उपभोग करता है, किंतु वह छोटे-छोटे उद्योगों को समाप्त कर उनकी स्वतंत्रता का अपहरण करता है। फिर कई बार उसके कारखाने में काम करने वाले मजदूरों की स्वतंत्रता भी बहुत ही सीमित हो जाती है। अत: नियमन आवश्यक है। हमें इस बात का भी विचार करना होगा कि एक की उत्पादन की स्वतंत्रता दूसरे की उपभोग की स्वतंत्रता को समाप्त न कर दे। खाद्य में मिलावट उत्पादन की स्वतंत्रता के नाम पर नहीं की जा सकती। यह जो शुद्ध खाद्य चाहता है, उसकी स्वतंत्रता के प्रतिकूल है।

कहा जाता है कि स्वतंत्र एवं प्रतिस्पर्धांगण व्यक्ति को उपभोग की स्वतंत्रता प्रदान करता है। इसके अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को ख़रीदता है तो वह आर्थिक क्षेत्र में अपने मताधिकार का प्रयोग करता है। इस प्रकार वरण के द्वारा उपभोक्ता उत्पादकों में से अपना प्रतिनिधि चुनकर अर्थव्यवस्था की दिशा और गति निश्चित करता है। यह तर्क व्यवहार में पूरा नहीं उतरता। प्रारंभ में उपभोक्ता किसी वस्तु का वरण करके उसके उत्पादक को अवश्य ही उसकी योग्यता और कुशलता, किफ़ायतसारी और बढ़िया माल पैदा करने की क्षमता के लिए पुरस्कृत करता है। किंतु जिनको वह अपना मत नहीं देता वे आर्थिक क्षेत्र से धीरे-धीरे हट जाते हैं। विरोधियों के समाप्त होने पर जब एक या कुछ उत्पादकों का उस क्षेत्र में एकाधिपत्य हो जाता है, तो वे उपभोक्ता से उसके प्रजातंत्रीय अधिकार को छीन लेते हैं। फिर मूल्य मांग और पूर्ति के नियमों से निश्चित न होकर उत्पादकों की अपनी इच्छा और योजना से होते हैं। आर्थिक क्षेत्र में यह एक प्रकार की डिक्टेटरशिप है। प्राप्त शक्ति तथा प्रचार तंत्र के सहारे दोनों ही सामान्य जन को उसके अधिकार से वंचित रखते हैं। एतदर्थ आवश्यक है कि उत्पादन के सामर्थ्य की मर्यादाएं स्थापित की जाएं, जो कि विकेंद्रीकरण से ही संभव हैं। केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं, आर्थिक क्षेत्र में भी विकेंद्रीकरण चाहिए।

अर्ध-बेकारी

जैसे बेगार हमारी दृष्टि में काम नहीं है, वैसे ही व्यक्ति के द्वारा काम में लगे रहते हुए भी अपनी शक्ति भर उत्पादन न कर सकना भी काम नहीं। अंडर एंप्लायमेंट भी एक प्रकार की बेकारी है। भारत जैसे देश के लिए जहां श्रम ही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है। श्रम का सामर्थ्यानुसार अनुपयोग घातक है। अत: विकेंद्रीकरण के साथ हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि राष्ट्र के उत्पादन में व्यक्ति अपना पूर्ण योगदान दे सके। बिना इसके न्यूनतम स्तर और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी के द्वारा उपभोग की स्वतंत्रता बेमानी हो जाएगी। ये व्यवस्थाएं मौद्रिक अवमूल्यन के कारण मनुष्य को अपेक्षित स्तर प्रदान नहीं कर सकेंगी।

विकेंद्रीकरण

जैसे एक स्थान पर आर्थिक अथवा राजनीतिक सामर्थ्य का केंद्रीकरण प्रजातंत्र के विरुद्ध है, वैसे ही एक ही व्यक्ति या संस्था के पास राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक शक्ति का केंद्रीकरण लोकतंत्र के मार्ग में बाधक है। साधारणतया तो जब किसी भी एक क्षेत्र की शक्ति केंद्रित हो जाती है, तो केंद्रस्थ व्यक्ति प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रीति से अन्य क्षेत्रों की शक्ति भी अपने हाथ में लेने का प्रयास करते हैं। इसमें से ही ख़िलाफ़त और कम्युनिस्टों की तानाशाही सरकारें पैदा हुईं। यद्यपि मनुष्य का जीवन एक है और उसकी विभिन्न प्रवृत्तियां एक-दूसरे की पूरक हैं, फिर भी उन प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले निकाय अलग-अलग रहने चाहिए। साधारणतया राज्य की विभिन्न इकाइयों को प्रशासन के क्षेत्र से हटकर अर्थ के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पहले आर्थिक क्षेत्र पर आधिपत्य जमाकर फिर परोक्ष रूप से राज्य पर अधिकार करती है। तो समाजवाद राज्य को ही संपूर्ण उत्पादन के साधनों का स्वामी बना देता है। दोनों व्यवस्थाएं व्यक्ति के प्रजातंत्रीय अधिकार एवं उसके स्वस्थ विकास के प्रतिकूल हैं। अत: हमें विकेंद्रीकरण के साथ-साथ शक्तियों के विभक्तीकरण का भी विचार करना पड़ेगा।

भारतीय संस्कृति के मूल्यों का अधिक विवेचन करने की यहां आवश्यकता नहीं। इतना ही कहा जा सकता है कि उसने मानव व्यवहार की आधारशिला आत्मीयता मानी है। कुटुंब से लेकर संपूर्ण विश्व तक इस सर्वात्मैक्य की भावना की व्यावहारिक मर्यादाएं रखी हैं। जिस व्यवस्था में मानव-मानव के बीच का व्यवहार, उसकी अपनी स्थिति के अनुसार, कृत्रिम न होकर आत्मीयता के आधार पर हो सके, वही हमारे लिए उपयुक्त होगी। केंद्रित व्यवस्थाएं मानव को मानव न मानकर उससे एक टाइप के साथ व्यवहार करती हैं। उनमें मानव की विविधताओं और विशेषता के लिए कोई स्थान नहीं। फलतः वे उसे ऊंचा उठाने के स्थान पर एक मशीन का पुर्जा मात्र बना देती हैं। उसका अपना व्यक्तित्व मारा जाता है। अतः विकेंद्रीकरण हमारी संस्कृति के भी अनुकूल है। इस व्यवस्था में व्यक्ति व्यवहार करता है। निश्चित ही इसमें मानव संबंधों और मानव के सुधार तथा विकास की बहुत गुंजाइश है।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा, पूर्ण रोजगारी, न्यूनतम उपयोग की आश्वस्ति तथा विकेंद्रीकरण हमारे आर्थिक कार्यक्रम के आधारभूत आवश्यक लक्ष्य हो सकते हैं।

(‘भारतीय अर्थ-नीित विकास की एक दिशा’ से साभार)