भारत रत्न नानाजी देशमुख

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विकाश आनन्द

भारत रत्न नानाजी देशमुख का पूरा जीवन राष्ट्रोत्थान के लिए समर्पित रहा। बाल्यकाल से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आ गये थे। इनका जन्म तो महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के कड़ोली में 11 अक्तूबर 1916 को हुआ था, लेकिन इनकी कर्म भूमि राजस्थान और उत्तर प्रदेश रही। जब वे राजस्थान के पिलानी स्थित बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी एंड सांइस में स्नातक करने गए, तो वहीं पढ़ाई के साथ–साथ राजस्थान में संघ कार्य में लग गए। लेकिन नानाजी अपना जीवन संघ के माध्यम से राष्ट्र को समर्पित करना चाहते थे। 24 वर्ष की आयु में अपनी कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर आगरा चले गए। आगरा में कुछ दिन रहने के बाद उन्हें भाऊराव देवरस के पास कानपुर भेज दिया गया। भाऊराव ने उन्हें संघ कार्य शुरू करने के लिए गोरखपुर भेज दिया। 15 अगस्त 1940 को मात्र 14 रुपए के साथ गोरखपुर के लिए रवाना हो गए। गोरखपुर उनके लिए नई जगह थी। कोई परिचित नहीं था, लेकिन अपनी लगन और निष्ठा से तीन वर्ष में ही गोरखपुर शहर और शहर से बाहर लगभग 250 संघ शाखा खड़ी कर दी। शिक्षा से उनका लगाव था। इसलिए उन्होंने 1950 में गोरखपुर में देश का पहला सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना की। बाद में संघ के सह प्रांत प्रचारक का भी दायित्व मिला। 1948 से 1952 तक वे राष्ट्रधर्म प्रकाशन के प्रबंध संपादक की भूमिका भी बहुत सफलतापूर्वक निभाई।

देवेन्द्र स्वरूप जी ने ‘राष्ट्रऋषि नानाजी देशमुख’ नामक पुस्तक में लिखा है कि नानाजी देशमुख ‘राजनीति के बहिष्कार में नहीं परिष्कार’ में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपने जीवन का तीन दशक सक्रिय राजनीति में बितायी। जब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ बन रहा था तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें दीनदयालजी और अन्य कार्यकर्ताओं के साथ भारतीय जनसंघ का संगठन मजबूत करने के लिए उत्तर प्रदेश भेज दिया। अटलजी की भाषण कला और नानाजी देशमुख की संगठन क्षमता उत्तर प्रदेश में जनसंघ का विस्तार करने में काफी सहायक सिद्ध हुए। फिर इनके पूर्वी भारत के संगठन प्रभारी बना दिया गया, जिसमें उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, बंगाल, असम आदि आते थे। नानाजी आपातकाल के खिलाफ जयप्रकाश आंदोलन के मुख्य रणनीतिकारों में एक थे। नानाजी के ही निवेदन पर चार विपक्षी दलों भारतीय लोकदल, कांग्रेस (संगठन), समाजवादी पार्टी और भारतीय जनसंघ ने संयुक्त रूप से अपनी कार्य समिति दिल्ली में की और आंदोलन के समन्वय के लिए ‘लोक संघर्ष समिति’ बनायी। इस समिति के महामंत्री का दायित्व नानाजी देशमुख को दिया गया। नानाजी ने 17 महीने आपातकाल में जेल में व्यतीत किए। जब आपातकाल हटाया गया, तब ‘जनता सरकार’ बनाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जनसंघ का जनता पार्टी के विलय में नानाजी की प्रमुख भूमिका रही।

चूंकि ये बलरामपुर में लोकसभा का चुनाव जीते थे, इसलिए मोरारजी सरकार में इन्हें मंत्री पद दिया जा रहा था, लेकिन इन्होंने स्वीकार नहीं किया। वे संगठन कार्य में ही लगे रहे। राजनीति के अलावा उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वावलंबी ग्राम निर्माण के क्षेत्र में भी कार्य किया। उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में भी भाग लिया। 60 साल की उम्र में वे संन्यास लेकर रचनात्मक कार्य में लग गए।
नानाजी ने जीवन के 34 साल रचनात्मक कार्य में लगाया। उन्होंने चित्रकूट के पिछड़े इलाकों के समग्र विकास में अपना जीवन खपाया। नानाजी ने वहां दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। देश में प्रथम ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना चित्रकूट में ही नानाजी देशमुख द्वारा किया गया और इसमे पहले कुलपति की भूमिका स्वयं निभायी। उन्होंने चित्रकूट में बहुत सारे प्रकल्पों जैसे आरोग्यधाम उद्यमिता विद्यापीठ, गौशाला, वनवासी छात्रवास, गुरुकुल, सुरेन्द्रपाल ग्रामोदय विद्यालय इत्यादि की स्थापना की। इस प्रकार राजनीति से संन्यास के बाद वे अपना शेष जीवन ग्रामीण क्षेत्र के विकास में बिताया। इन्होंने 500 गांवों को विकसित और सशक्त बनाया। समाज और देश के स्वार्थरहित सेवा के चलते इन्हें राष्ट्रऋषि कहा गया। 1999 में नानाजी को पद्मविभूषण और मरणोपरान्त 2019 में भारत सरकार ने भारत रत्न से सम्मानित किया। 94 वर्ष की आयु में 27 फरवरी 2010 को चित्रकूट में इनका स्वर्गवास हो गया।