चिति

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भारतीय जनसंघ के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पं़ दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्मशताब्दी वर्ष (2016-17) में पाठकों के वैचािरक प्रबोधन के लिए हम उनके लेखों का पुनर्प्रकाशन कर रहे हैंं। निम्न लेख 1947 के ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक के अंक-6 में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत है लेख का अंतिम भाग-

दीनदयाल उपाध्याय

केवल धर्म के भाव अथवा अभाव के कारण ही एक स्थान पर एक को बुरा मानते हैं तो दूसरे स्थान पर उसी को अच्छा कहते हैं। इसी के लिए देशद्रोही विभीषण परम वैष्णव हुआ और सुई के बराबर भी भूमि न देने को तैयार दुर्योधन विष्णुद्रोही गिना गया। एक ओर राजभक्ति को हमने माना है तो धर्म के लिए ही ऋषियों ने वेन को राज्यच्युत किया था। धर्म के लिए ही श्रवणकुमार अपने माता-पिता को कंधे पर लिए-लिए घूमा, धर्म के लिए ही प्रह्लाद ने हिरण्यकश्यप का विरोध किया। राम ने एक पत्नी-व्रत का पालन करके धर्म की रक्षा की तो कृष्ण ने अनेकों विवाह करके उसी धर्म को निभाया। अपने इतिहास में अनेक ऐसे श्रद्धास्पद उदाहरण मिलेंगे जिनमें इस प्रकार का विरोधाभास होगा, उनकी निराकृति केवल धर्म के भाव से ही संभव है।

हम अपने जीवन में धर्म को महत्त्व देकर ही प्रत्येक कार्य करते हैं। हमारा उठना-बैठना, सोना, खाना-पीना सबके पीछे धर्म का भाव रहता है। इसलिए स्मृति ग्रंथों में उनके संबंध में नियम दिए गए हैं। स्मृति-ग्रंथों को सभी धर्म-ग्रंथ मानते हैं। हमारा साहित्य लोक-कल्याण की धार्मिक भावना से ही प्रेरणा लेता है। कवि अपनी रचना ‘स्वान्त: सुखाय’ करते हुए भी अंत:करण में आत्मा के साक्षात्कार की अनुभूति में सुख लेता हुआ धार्मिक प्रवृत्ति की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करता है। क्या कोई कवि भारत में हुआ है जिसके काव्य के एक-एक पद में राष्ट्रात्मा की पुकार हो और वह धार्मिक भावना से परिपूर्ण न हो। हमारे बाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसी, सूर, ज्ञानदेव, समर्थ, चैतन्य और नानक कवि थे, साथ ही ऋषि और संत भी थे। हमारे धर्म को अपने आचरण में लाने वाले आदर्श महापुरुष थे। इसीलिए उनके शब्द राष्ट्र के शब्द हो गए हैं। उनकी वाणी युग-युग में राष्ट्र जीवन का संचार करती आई है। हमारे राजनीतिज्ञ, आचार्यों ने भी राजनीति पर धर्म का पुट चढ़ाया है। शुक्राचार्य और चाणक्य धर्मविहीन राजनीति के पोषक नहीं थे। धर्महीन राजनीति का कोई अर्थ ही नहीं है। हमारे सम्राटों ने अश्वमेघ यज्ञ धर्म समझकर किए या राजनीति समझकर? राणा प्रताप का अकबर से युध्द राजनीति के क्षेत्र में आता है या धर्म के क्षेत्र में। शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह राजनीतिक नेता हैं या धार्मिक।

दयानंद और विवेकानंद के कार्य का भारत की राजनीति और राष्ट्र पर क्या कोई प्रभाव नहीं है? गांधीजी के भारतव्यापी प्रभाव के पीछे उनका महात्मापन, उनका धार्मिकपन है या राजनीति? स्वदेशी आंदोलन में फाँसी के तख्ते पर गीता की प्रति लेकर चढ़नेवाले क्रांतिकारी वीरों में धार्मिक प्रेरणा थी या राजनीतिक? हम देखते हैं कि दोनों को अलग नहीं कर सकते। हमारी राजनीति हमारी धार्मिक वृत्ति का ही परिणाम है, अपनी धार्मिकता की रक्षा करने की एक साधन-मात्र है। यह धार्मिक प्रवृत्ति हमारे राज्य में इतनी व्यापक है कि उससे कोई क्षेत्र अछूता नहीं रहता। वर्णाश्रम धर्म समाज की एक प्रणाली है, किंतु हमने इसको धर्म की वेशभूषा से सुसज्जित किया है। विवाह एक जीवन और समाज की आवश्यकता है, हमने इसको धर्मकृत्य माना है। संतानोत्पत्ति हम धर्म समझकर करते हैं और संतान भी माता-पिता की सेवा धर्म समझकर ही करती है। मरने के बाद श्राद्ध क्रिया भी धर्म मानकर की जाती है। यद्यपि इन सब कार्यों की तह में समाज रचना, जाति की सनातन परंपरा तथा राष्ट्रत्व है। हम नित्य बड़े-बूढ़ों की वंदना करते हैं यह हमारा धर्म है। हम नित्य स्नान करते हैं यह गांव का कोई भी व्यक्ति बताएगा कि उसका धर्म है।

इसलिए कर्मकांडी लोग बीमारी की अवस्था तक में स्नान करते हैं। बिना स्नान नहीं रह सकते। बिना स्नान के भोजन न करना धर्म ही है। कुएं पर जूते ले जाना अधर्म है। भोजन की स्वच्छतापूर्वक बनाना धर्म है। अपने-अपने घर में तुलसी हम धर्म समझकर ही रखते हैं, वह मलेरिया नाशक है, यह समझकर नहीं। स्वच्छता और स्वास्थ्य के सभी नियम धर्म बन गए हैं। हमारा कृषक बीज बोता है, उसके पीछे धर्म भावना छिपी है। धर्म भावना के कारण ही, चाहे आज वह विकृत क्यों न हो गई हो। बहुत स्थानों पर ब्राह्मण हल को हाथ नहीं लगाता है। विद्यार्थी गुरु की सेवा करता है, गुरु विद्यार्थी को पुत्रवत् मानता है, इन दोनों के पीछे धर्म की भावना है। जितने ही उदाहरण हम लें सबमें हमें यह दिखाई देगा कि हमारी धार्मिक प्रवृत्ति रही है। जीवन के प्रत्येक कृत्य को हमने धार्मिक रंग में रँगा है और धर्म से प्रेरणा लेकर ही हमने अपने जीवन की रचना की है।

भारत का राष्ट्र जीवन युग-युग में भिन्न-भिन्न स्वरूप में व्यक्त हुआ है, किंतु उसके मूल में उसकी धर्म भावना रही है और इसीलिए अनेक विद्वानों ने कहा भी है कि भारत धर्मप्राण देश है। आज अपनी इस आत्मा की प्रेरणा को अचेतन से चेतन के क्षेत्र में लाने पर ही राष्ट्र जीवन में जो विकृति दिखाई देती है, जो विक्षुब्ध, संघर्षमय, अनिश्चितता की अवस्था है, वह दूर की जा सकती है।

-समाप्त