कांग्रेस बनाम जनसंघ

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                                                                              – दीनदयाल उपाध्याय

स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद ध्येयविहीन कांग्रेस और उसके कार्यकर्ताओं के समक्ष यह समस्या थी कि अब कौन सी वस्तु शेष है, जिसके लिए अपनी सेवाएं समर्पित की जाएं? कांग्रेस की इस ध्येयविहीनता को महात्मा गांधी ने समझा था और इसलिए वे कांग्रेस को समाप्त कर देने पर बराबर जोर देते थे, किंतु कांग्रेस के अन्य नेताओं ने कांग्रेस को अपने स्वार्थ का साधन बना लिया और उसे भंग नहीं किया।

उद्देश्य समाप्त होने पर संस्था निर्जीव हो जाती है। कांग्रेस का काम खत्म हो गया, अब उसे समाप्त कर देना चाहिए था। परंतु नेताओं ने इसे भी नहीं माना। फलत: मृत कांग्रेस के शव को पंडित नेहरू लिए घूम रहे हैं और उसे जिलाने का असफल प्रयत्न कर रहे हैं। कांग्रेस का शव अधिक सड़ जाने से गल-गल कर गिरा। फलत: अनेक पार्टियों का जन्म हुआ, जिसमें पहले सोशलिस्टों का नंबर है। ये सब पार्टियों केवल विरोध के लिए बनी हैं, जिनका कोई आधार नहीं। हमें तो अपनी समस्याओं को हल करने के लिए एक मौलिक आधार को लेना है। हम अनुरोध करने के लिए हैं, विरोध करने के लिए नहीं। जनसंघ केवल कांग्रेस के विरोध के लिए नहीं है। देश को सुखी तथा वैभवशाली बनाने का कार्य इसके सामने प्रमुख है।

कांग्रेस की ध्येयविहीनता ने देश में निराशा का वातावरण ला दिया। लोग अनुभव करने लगे कि उनका धर्म मिट रहा है, संस्कृति मिट रही है, जीवनोपयोगी वस्तुएं अन्न- वस्त्र अलभ्य हो रहे हैं। अत: जन-मन में निराशा का प्रादुर्भाव होना स्वाभाविक था। जनसंघ का उदय इस निराशावाद के वातावरण को छिन्न-भिन्न कर देश में आशा और स्फूर्ति का संचार करने के लिए हुआ है।

स्वतंत्रता की लड़ाई मे कांग्रेस केवल पेशवा थी और 35 करोड़ जनता उसके साथ उस लड़ाई में संलग्न थी। नेता होने के नाते उसे स्वतंत्रता प्राप्ति का यश प्राप्त हुआ। कांग्रेस के नेता आज यह कह रहे हैं कि स्वतंत्रता हमने दिलवाई है। उन लोगों से पूछना चाहिए कि योगी अरविंद जैसे लोग तथा जिन्होंने अंडमान में अपना जीवन व्यतीत किया और हंसते हुए स्वतंत्रता के लिए ही अपने जीवन की कुर्बानी की, क्या वे कांग्रेस के झंडे के नीचे आए थे? वासुदेव बलवंत फडके कांग्रेस से बाहर ही स्वतंत्रता के लिए कार्य कर रहे थे। रासबिहारी बोस, भगतसिंह तथा वीर सावरकर क्या कांग्रेसी थे? सुभाष चंद्र बोस ने भी जो महान् कार्य किए थे, वे भी कांग्रेस से अलग होने पर ही। परंतु इस सबका श्रेय कांग्रेस अपने ऊपर ले रही है। सच्ची बात तो यह है कि भारत की 40 करोड़ जनता ने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी और हम सबने इस युद्ध में भाग लिया।

आज सभी प्रकार के आदर्शों से दूर होकर कांग्रेस उस समय के नेतृत्व की आड़ लेकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रही है। उस स्वार्थ सिद्धि के लिए योग्यता-अयोग्यता इत्यादि का कुछ विचार नहीं रखा जा रहा है। अभी हाल में मंडी के राजा को ब्राज़ील का राजदूत इसलिए बना दिया गया, क्योंकि उन्होंने राजकुमारी अमृत कौर के विरोध से अपना नाम वापस ले लिया है। पता नहीं उनमें उस पद की कहाँ तक योग्यता है।

उसी प्रकार स्वार्थ की सिद्धि के लिए ही कांग्रेस सरकार ने कंट्रोल लगा रखा है। यदि कंट्रोल जनता की भलाई के लिए हो तो ठीक भी है, किंतु यहाँ पर वह इसलिए है कि उसके कारण व्यापारी और पूंजीपति कांग्रेस के अँगूठे के नीचे रहते हैं। वोट लेने के समय लोगों को धमकियाँ दी जाती हैं कि उनके लाइसेंस रद्द कर दिए जाएंगे। उनको याद दिलाया जाता है कि उन्हें कितने परमिट दिए गए हैं। इस प्रकार जनता को दु:ख देने के लिए कांग्रेस और पूंजीपति मिल जाते हैं। अभी कुछ दिन पूर्व केवल अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए कांग्रेस सरकार ने 287 मन की चीनी मनमाने दामों में मिल मालिकों को बेचने की आज्ञा इसलिए दे दी थी कि उन्होंने कांग्रेस फंड में कुछ चंदा दे दिया था। कांग्रेस ने देश में तीन भयंकर भूलें की हैं। पहली, बिना किसी आदर्श के कार्य किया है; दूसरी, केवल अपनी पार्टी की स्वार्थसिद्धि की है; तीसरी, यदि आदर्श सम्मुख रखा भी तो वह विदेशी। उदाहरणस्वरूप यदि आज हमारे देश में अन्न की कमी है तो उसके लिए हमने विदेशों से ट्रैक्टर मंगाए किंतु यहां चलेंगे कैसे? मकानों की कमी होने पर हमने सीमेंट, लोहा और ईंट जनता को देने के बजाय मकान बनाने की फैक्टरी स्थापित की और करोड़ों रुपए फूंक दिए।

भारतीय जनसंघ का उद्देश्य भारतीय जीवन के लिए अत्यंत पवित्र और स्फूर्तिदायक है। ये सिद्धांत और आदर्श नए नहीं हैं। वे इतने पुराने हैं कि जबसे मानव मानव को पहचानने लगा, प्रकृति का प्रादुर्भाव इस भूमि पर हुआ तथा भारत भूमि को पहचानने के साथ राष्ट्रीयता का उदय हुआ। केवल एक राष्ट्रीयता की भावना को लेकर, जिसको ‘एकं सद्विप्रा:बहुधा वदन्ति’ कहा गया है-जनसंघ खड़ा हुआ है। इसीलिए देश के कोने-कोने में जहां जनसंघ गया है, जनता में उसका आदर हुआ है।

भारतीय जनसंघ का जन्म देश के सम्मुख एक स्वदेशीय आदर्शवाद रखने के निमित्त हुआ और उसका आधार कुछ मर्यादाओं पर स्थिर है। प्रथम तो जनसंघ भौगोलिक मर्यादा को मानता है और यह कहता है कि देश का विभाजन गलत है। यह ध्यान रखना चाहिए कि यह कहना भावनाओं को उभारना नहीं है, वरन् कुछ तथ्यों को तर्क की कसौटी पर कसना है। आज हमारे देश में अन्न की कमी है और करोड़ों रुपयों का अन्न हमें बाहर से मंगाना पड़ता है। पाकिस्तान में वह बहुतायत से है। दूसरी ओर पाकिस्तान के पास कोयला, लोहा और कपड़ा नहीं है, जिसके लिए उसको परेशानी होती है। पूर्वी बंगाल में जूट सड़ रहा है, पश्चिम में जूट मिलें बंद हैं। पाकिस्तान में रुई बहुतायत है, हम उसे तेज दामों पर मिस्र या अमरीका से खरीद रहे हैं। यदि दोनों देश एक हो जाएँ तो आर्थिक दृष्टि से हम फिर स्वावलंबी बन सकते हैं और हमारी सारी समस्याएँ हल हो सकती हैं।

सुरक्षा की दृष्टि से हम अपने बजट का 55 प्रतिशत और पाकिस्तान 60 प्रतिशत केवल सेना पर व्यय कर रहे हैं, जिससे दोनों देशों की आर्थिक अवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। साथ-ही-साथ इस विभाजन के ही कारण हमें ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में रहकर अंग्रेजों की गुलामी करनी पड़ रही है, क्योंकि दोनों को यह डर है कि एक के द्वारा उसका साथ छोड़ देने पर अंग्रेज दूसरे की अधिक सहायता करेगा।

सांप्रदायिक समस्या का भी हल इस विभाजन से नहीं हुआ, क्योंकि यदि कल 35 करोड़ में 10 करोड़ मुसलमान भारत में थे तो आज चार करोड़ रह गए हैं, किंतु वह समस्या हल नहीं हुई। दूसरी ओर पाकिस्तान में रह गए हिंदुओं पर अत्याचार और उनका निष्कासन हमारी आर्थिक तथा राजनीतिक दशा को हर समय चिंतायुक्त बनाए रखते हैं।

कश्मीर समस्या का भी सबसे सरल हल विभाजन का अंत है। इस प्रकार सब दृष्टियों से अखंडता अनिवार्य है। किंतु लोग कहते हैं कि यह बेमानी है। उत्तरी तथा दक्षिण कोरिया, मिस्र तथा सूडान और आयरलैंड इत्यादि की एकता की बात तथा उसका समर्थन करने वाले लोग भारत तथा पाकिस्तान की एकता को सुनकर केवल इसलिए बौखला जाते हैं कि उससे उनके स्वार्थों का हनन होता है। आठ साल पूर्व पाकिस्तान का बनना बेहूदा बात थी, किंतु वह बन गया। आज अखंडता ‘बेहूदा’ है, कल उन्हीं लोगों के सम्मुख वह भी हो जाएगा।

अखंड भारत की मांग हमारी नैतिक मांग है, क्योंकि श्री जिन्ना के अदला-बदली के प्रस्ताव को न मानकर अल्पसंख्यकों की रक्षा करने की शर्त हिंदुस्थान और पाकिस्तान दोनों के लिए कांग्रेस ने रखी थी। उस समय महात्माजी ने कहा था कि इस शर्त के पूरे न होने पर इनमें से कोई भी देश की अखंडता की मांग कर सकता है। हमने अपनी शर्त पूरी कर दी है और अपना अधिकार प्राप्त कर लिया है। चार करोड़ मुसलमानों की रक्षा करने के लिए हिंदुस्थान का प्रत्येक दल तैयार है परंतु पाकिस्तान ने इस शर्त को पूरा नहीं किया। पूर्वी बंगाल के हिंदुओं पर किया गया बर्बर अत्याचार ही प्रमाण के लिए पर्याप्त है। पंडित नेहरू इसके लिए आज क्या कर रहे हैं? सरदार पटेल तो सांप्रदायिक नहीं थे, उन्होंने भी कहा था निर्वासितों को रखने के लिए आधा बंगाल पाकिस्तान से मांगा जाएगा। आज इस प्रश्न को नेहरूजी क्यों नहीं रखते?

किंतु यह अखंडता किसी आक्रमण से नहीं प्राप्त होगी। यह समस्या का ठीक हल नहीं है। वह तभी होगा जब यहां का हिंदू और यहाँ का मुसलमान इन बातों को समझ लेगा कि उसका भला इसी में है और यह विचार दिनोदिन जोर पकड़ते-पकड़ते एक दिन यह संभव हो जाएगा। विचारों के ही कारण भारत बँटा है, विचारों से ही यह एक होगा।

हमारी दूसरी मर्यादा एक राष्ट्र में विश्वास है। हम मुसलिम लीग के द्वि-राष्ट्रवाद को नहीं मानते। हमारा कहना यह है कि यदि फारस, चीन और तुर्की का मुसलमान अपने धर्म को मानता हुआ अलग- अलग राष्ट्रीयता मानता है तो भारत का मुसलमान ऐसा क्यों नहीं कर सकता? उन देशों में लोग अपने देश की भाषा और संस्कृति को मानते हैं। यहाँ भी मुसलमानों को इस देश की संस्कृति और राष्ट्रभाषा हिंदी को मानना चाहिए। (क्रमश:)

साभार : पांचजन्य, जनवरी 3, 1952