लोकतांत्रिक राष्ट्रवादी, लोकतांत्रिक समाजवादी और राष्ट्रवादी समाजवादी

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

धुनिक विश्व का राजनीतिक विकास तीन अवधारणाओं से प्रभावित और निर्मित हुआ है, वे हैं– राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और समाजवाद। कालक्रम के अनुसार इनमें राष्ट्रवाद सबसे पहले आया और समाजवाद सबसे बाद में। इस दृष्टि से यदि यूरोप को प्रतिनिधि मान लें तो हम देखते हैं कि तेरहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक यूरोप का मानचित्र राष्ट्रीय इच्छाओं के अनुसार बार-बार बदलता रहा। राष्ट्रवाद ने लोगों को एकसूत्र में बांधा और विभिन्न रियासतों के लोगों को अपनी स्वायत्तता त्यागकर राष्ट्रीय सरकारें बनाने के लिए प्रेरित किया। राष्ट्रवाद एक जनसमूह को दूसरे से अलग पहचान देता है और हम देखते हैं कि धीरे-धीरे व्यक्तिगत सनक की अपेक्षा युद्ध और शांति के मुद्दे राष्ट्रीय हितों से परिचालित होने लगे। ज्यों-ज्यों राष्ट्रों की अलग पहचान आकार लेने लगी, त्यों-त्यों सरकारों के स्वरूप में लोगों की रुचि बढ़ी और उस पर विवाद बढ़ने लगा। जब अलेक्जेंडर पोप ने सरकारों के स्वरूप विषयक सारे विवादों को सिरे से नकारा तथा वह अर्धचेतन रूप से इस विषय में अपनी रुचि ही प्रकट कर रहे थे। उन्होंने लिखा–

”सरकार के स्वरूप को लेकर
मूर्खों को झगड़ने दो,
कुशल प्रशासन ही
श्रेष्ठ प्रशासन है।”
पोप ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया–

प्रश्न है, परंतु पोप ने इस जटिल समस्या का उत्तर नहीं दिया कि किस प्रशासनिक व्यवस्था में हम कुशल प्रशासन पा सकते हैं अथवा पाने की आशा कर सकते हैं? उन दिनों राजतांत्रिक व्यवस्था का ही प्रचलन था और सरकार की सारी बुराइयों इसी कारण थीं या ऐसा प्रतीत होता था कि उसी व्यवस्था से जुड़ी हुई हैं। इससे भी बढ़कर अधिक से अधिक राजनीतिक चिंतकों ने राजाओं के शासन करने के दैवी अधिकारों पर प्रश्न लगाने प्रारंभ कर दिए थे। सभी मनुष्य समान माने जाने लगे। इन सबसे प्रजातांत्रिक विचारों का जन्म हुआ, यूनान के नगर गणराज्यों में रुचि बढ़ी, फ्रांस की क्रांति होने तक, प्रजातंत्र आकार लेकर शताब्दी पुराना हो चुका था और यूरोप के अनेक देशों में जड़ जमा चुका था।

औद्योगिक क्रांति के विकास के साथ-साथ यह अनुभव किया जाने लगा कि वास्तविक शक्ति कुछ ही लोगों के हाथों में केंद्रित है। केवल आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं, राजनीतिक क्षेत्र में भी शोषण होता है। साधारण आदमी को या तो मताधिकार से वंचित रखा जाता है या फिर ऐसी स्थितियां पैदा की जाती हैं कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग स्वतंत्रतापूर्वक न कर सके। सामाजिक न्याय की बलवती इच्छा ने उस राजनीतिक दर्शन को जन्म दिया, जिसे समाजवाद कहा जाता है। मार्क्स द्वारा एक विचार प्रणाली के रूप में सुगठित करने से पूर्व यह समाजवाद एक अस्पष्ट सी प्रवृत्ति थी, जो अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं, औद्योगिक मजदूर संगठनों के नेताओं और राजनीतिक दार्शनिकों के काल्पनिक आदर्शों का प्रतिनिधित्व करती थी। ऐसा नहीं है कि मार्क्स विवेचित दर्शन में इनमें से किसी बात का अभाव था अथवा समाजवाद कुछ ज्यादा व्यावहारिक बन गया। परंतु उन्होंने समाजवाद को एक विश्लेषण और सिद्धांत दिया, जिसके परिणामस्वरूप यह सुनिश्चित राजनीतिक दर्शन की श्रेणी में पहुंच गया। मार्क्स के पश्चात् भी अनेक समाजवादी हुए, जिनका उनसे मतभेद था। परंतु अपनी मूल अवधारणाओं और अंतिम लक्ष्यों की वृद्धि से वे अपना विशिष्ट प्रभाव नहीं छोड़ पाए। मार्क्सवादी कार्यपद्धति से समाजवाद अनेक लोगों के लिए अभिशाप बन गया और उसने इसे राष्ट्रवाद और प्रजातंत्र के प्रतिकूल बना दिया।

राष्ट्रवाद एक तथ्य है

राष्ट्रवाद आज भी विश्व की सरकारों को सर्वाधिक प्रभावित करनेवाला एकमात्र तत्व है। परंतु बहुत कम इसे मानवता के लिए अभिशाप मानकर समाप्त कर देना चाहते हैं। परंतु वे इस मूलभूत प्रवृत्ति से अपने को मुक्त करने में सफल नहीं हुए, उन्होंने अनेक प्रकार की मनोग्रंथियों का निर्माण किया और इस प्रकार अपनी राष्ट्रीय नीतियों को कमज़ोर किया है। वर्तमान में अधिकांश लोग इन दोनों आदर्शों को मिश्रित रूप में अपनाने का दावा करते हैं और वे इस प्रकार लोकतांत्रिक राष्ट्रवादी, लोकतांत्रिक समाजवादी और राष्ट्रवादी समाजवादी हैं। यदि इन्हें एक-एक विचारधारा से संबद्ध माना जाए तो ये केवल राष्ट्रवादी, समाजवादी और लोकतांत्रिक देश हो सकते हैं।

आजाद दुनिया के अधिकांश राष्ट्रों को प्रथम श्रेणी में रखा जा सकता है। वे राष्ट्रवाद को स्वयंसिद्ध मानकर लोकतंत्र को अपना आदर्श कहते हैं। यहां पर लोग समाजवाद पर मोहित नहीं हैं और कुछ तो इसे लोकतंत्र में बाधक भी मानते हैं। नाजीवाद और फासीवाद, समाजवाद के ही रूप थे। साम्यवादी रूस, चीन और युगोस्लाविया आदि को भी राष्ट्रवादी समाजवादी कहा जा सकता है। इनमें अंतर केवल इतना ही है कि ये राष्ट्रवाद का दैवीकरण नहीं करते, परंतु राष्ट्रवाद का प्रभाव यहां भी देखा जा सकता है। हिटलर ने राष्ट्रवाद पर अनावश्यक बल देकर अपने लोगों को तो उत्साहित किया, परंतु अन्य लोगों को अपना शत्रु बना दिया। साम्यवादी देश कुछ अधिक चालाकी से काम लेते हैं। वे अपने को अंतरराष्ट्रीय आंदोलन घोषित करते हैं और इस प्रकार अन्य राष्ट्रों की राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं की उपेक्षा करते हैं तथा अपने विस्तारवादी लक्ष्यों को पूरा करते हैं।

समाजवाद धोखा है

एशिया और अफ्रीका के जो देश पश्चिमी उपनिवेशवादी राष्ट्रों से मुक्त हुए हैं, वहां का प्रचलित राजनीतिक दर्शन ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् प्रतीत होता है कि वे राष्ट्रवाद को भूल गए हैं, जो वास्तव में उनके स्वाधीनता संग्राम की मूल प्रेरणा था। पश्चिम के संपर्क में रहने के कारण उनकी आस्था लोकतंत्र में है, परंतु उसके साथ ही वे समाजवाद के फैशनपरक नारे के प्रदर्शनपरक प्रभाव से भी बच नहीं सके। इसके साथ ही समाजवाद ऐसे समूहों की सत्तालोलुपता को संतुष्ट करता है, जो आम लोगों को भ्रमित कर उन पर राज करते हैं। जिन समाजों में निर्धनता और अज्ञानता का राज है, वहां समाजवाद के प्रति आकर्षण है, परंतु यह इसका इलाज नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्व के स्वतंत्र और विकसित राष्ट्र राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक हैं। कठोर श्रेणीबद्ध राष्ट्र चाहे विकसित हों या फिर विकासशील, राष्ट्रवादी समाजवादी हैं अथवा साम्यवादी हैं और स्वतंत्र परंतु विकासशील राष्ट्र लोकतांत्रिक समाजवादी हैं। ये मुख्य वर्ग हैं। परंतु कुछ देश इसका अपवाद भी हैं, जिन्हें तीनों में से किसी भी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जैसेकि पाकिस्तान वह न तो राष्ट्रवादी समाजवादी है और न ही राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक देश है।

लोकतंत्र एक लक्ष्य है

कांग्रेस के सत्ता में रहते भारत को एक लोकतांत्रिक समाजवादी देश कहा जा सकता है। वर्तमान में देश की अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के चलते और आज़ादी के प्रारंभिक कालखंड में होने के कारण तथा अंग्रेजों की संसदीय संस्थाओं की विरासत के रहते हम समाजवादी भी हो सकते हैं और लोकतांत्रिक समाजवादी भी। वर्तमान में इसका अर्थ मात्र इतना ही है कि सरकार आर्थिक क्षेत्र में विकास की कुछ जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जहां निजी पूंजी अर्थव्यवस्था के अविकसित होने के कारण अपने सीमित साधनों के रहते प्रवेश नहीं कर सकती। राज्य सरकारों को वहां पदार्पण करना होगा। साथ ही असमानताओं को कम करने का प्रश्न भी है। इन क्षेत्रों को समाजवादी होना ही होगा। परंतु इसके कुछ दुष्प्रभाव भी हैं। सर्वप्रथम तो समाजवाद में सरकारें ऐसे बड़े क्षेत्रों पर अधिकार जमा लेती हैं, जहां निजी उद्यमी सरलता से कार्य कर सकते हैं और इस राष्ट्र का भला कर सकते हैं। सरकारी गतिविधियां एकाधिकारवादी हो जाती हैं। यहां भी कुछ कट्टरपंथी समाजवादियों की इच्छाओं की पूर्ति के लिए सरकार पहले से ही निजी क्षेत्र में विकसित अन्य उद्यमों का राष्ट्रीयकरण करके या उन्हें अपने संरक्षण में लेकर अपनी शक्ति को ग़लत दिशा में लगा देते हैं। आर्थिक गतिविधियों में संपूरक की भूमिका निभाने की जगह जो कि विकासशील देश में सरकार की सही भूमिका है, सरकारें पहले से विकसित उद्यमों को हथियाने लगती हैं।

भारतीय दल कहां खड़े हैं

ज्यों-ज्यों हम समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ते जाते हैं, प्रशासनिक गुटों के हाथों में शक्तियां अधिकाधिक केंद्रित होती जाती हैं, नौकरशाही का आशातीत विस्तार होता है और व्यावहारिक रूप में नागरिकों के लिए अपनी स्वतंत्रता का उपभोग कर पाना समाप्त हो जाता है। इस प्रकार जैसे-जैसे समाजवाद विस्तार पाता है, लोकतंत्र सिकुड़ता जाता है। प्रथम पक्ष (समाजवाद) वास्तविक लक्ष्य बन जाता है और द्वितीय पक्ष (जनता) गौण हो जाता है। इस प्रकार के सब लोग जो ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ के समर्थक हैं, उन्हें देर सवेर दोनों में से एक को त्यागना पड़ता है। जैसी स्थितियां हैं, लोकतंत्र ही शिकार बनेगा। प्र.सो.पा. और समाजवादी पार्टी इस दृष्टि से कांग्रेस से भिन्न नहीं है, सिवाए इसके कि पहले बताए दल समाजवाद पर अधिक बल देते हैं और बाद में बताया दल (कांग्रेस) लोकतंत्र पर।
ये दल कुछ समय पहले तक राष्ट्रवाद पर ध्यान नहीं देते थे। ये उसे स्वयंसिद्ध मानकर चलते थे। यद्यपि समाजवादी दल इस पर कुछ ध्यान अवश्य देता था। परंतु फिर भी यह देखना शेष है कि यह सब उनकी रणनीति का हिस्सा है अथवा सैद्धांतिक है।

जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी

जिन दलों की प्रजातंत्र में आस्था है, वे स्वाभाविक रूप से ग़ैर-समाजवादी वर्ग के हैं। भारतीय जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी को इस वर्ग में रखा जा सकता है, परंतु दोनों दलों में इस मुद्दे पर बल देने की दृष्टि से अंतर है। स्वतंत्र पार्टी उस सीमा तक ही और समाजवादी है, जहां तक वह सरकार द्वारा वंचित लोगों के उत्थान के लिए किए जा रहे सभी कार्यों का विरोध करती है, ताकि यथास्थिति को बदला न जाए। जनसंघ समाजवाद की सर्वसत्तावादी अवधारणा के विरोध तक गैर-समाजवादी है, अन्यथा वह निश्चय ही सामाजिक न्याय, असमानताओं को कम करने और अधिकांश विषयों में यथास्थितिवाद समाप्त करने की पक्षधर है। गैर समाजवाद से उसका अभिप्राय अहस्तक्षेपपरक पूंजीवाद नहीं है।
स्वतंत्र पार्टी पश्चिम के औद्योगिक जगत् की विकासयात्रा से भिन्न किसी विकास प्रक्रिया को स्वीकार नहीं करती। उसे राष्ट्रवाद की भी चिंता नहीं है। इसलिए वह लोकतांत्रिक दल है, परंतु इसे राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक दल नहीं कह सकते। भारतीय जनसंघ राष्ट्रवाद और लोकतंत्र पर समान बल देती है और मानती है कि भारत के विकास की वर्तमान स्थिति में समाजवाद की भी कुछ भूमिका है।
इस प्रकार हमारे पास समाजवादी दल है, जो न लोकतांत्रिक है और न ही राष्ट्रवादी। कांग्रेस, पी.एस.पी. और समाजवादी पार्टी तथा अन्य छुटपुट दल, लोकतांत्रिक समाजवादी हैं और इसलिए वे राष्ट्रवाद की चिंता नहीं करते। स्वतंत्र पार्टी पूरी तरह से लोकतंत्रवादी और ग़ैर-समाजवादी है, वह अधिकांश में राष्ट्रवाद के प्रति उदासीन है और भारतीय जनसंघ जो मुख्य रूप से राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक है और समाजवाद की वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार गैर-समाजवादी है, परंतु अपनी वैचारिक और भावात्मक अपील के अनुसार समाजवाद को स्वीकारती है।

भारतीय जनसंघ द्वारा स्वीकृत राष्ट्रवाद में अन्य दलों के राष्ट्रवाद से अंतर है। जनसंघ को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रपरक राष्ट्रवाद के समर्थक हैं। जनसंघ ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ में विश्वास रखती है। अन्य मानते हैं कि राष्ट्र का निर्माण किया जाना है और भारतीय जनसंघ मानती है कि भारत युग-युगांतरों से राष्ट्र है। इसलिए वह राष्ट्रीय जीवनधारा से प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकती है, जबकि अन्य दल कभी-कभार भावुकतावश ऐसा करते हैं, अन्यथा राष्ट्र की विशाल विरासत से शक्ति और प्रेरणा पाने में असफल रहते हैं। इस प्रकार वे न केवल आधुनिक विज्ञान और तकनीक में मार्गदर्शन के लिए पश्चिम का मुंह ताक़ते हैं बल्कि अर्थशास्त्र, राजनीति और समाज संबंधी सभी विषयों में उधर देखते हैं। अन्य सभी दलों की अपेक्षा जनसंघ सर्वाधिक भारत केंद्रित है।

(ऑर्गनाइजर, दीवाली, 1963
(अंग्रेज़ी से अनूदित)