काले धन को समाप्त करने के लिए विमुद्रीकरण आवश्यक

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विमुद्रीकरण के कारण काले धन और आतंकवादी फंडिंग पर गहरी चोट लगी, क्योंकि उन्होंने अपनी ही पार्टी की फंडिंग पर राष्ट्रीय बहस करने की जरूरत पर जोर दिया। यह बात उन्होंने लोकसभा में साहसी कदम उठाते हुए कहा क्योंकि उन्होंने चुनाव परिणामों की परवाह नहीं की बल्कि उन्होंने व्यवस्था में शुचिता और साफ-सुथरेपन की चिंता की।

डॉ अनिर्बान गांगुली

अनेक आकर्षक विषयों में बजट 2017 ने देश के चुनाव तथा पार्टी फंडिंग को विशेष रूप में सामने रखा। स्वाभाविक है जिन लोगों ने अन्यथा देखने या सोचने में अपनी दिलचस्पी रखी उन्होंने राजनीतिक फंडिंग पर पुनः खामोशी बनाए रखी या पूरी बहस पर पर्दा डाल रखा।

भाजपा, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह के समक्ष चुनाव फंडिंग व चुनाव में कालेधन की समस्या सदैव एक प्रमुख मुद्दा रहा है। साथ-साथ चुनाव पर बहस कराने कालेधन को समाप्त करने के लिए विमुद्रीकरण की दिशा मंे चलने और हमारे चुनाव पर इसके प्रभाव को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के तत्त्वावधान में भाजपा ने इस विषय पर सार्वजनिक रूप से बड़ी बहस कराने की बात कही है। वास्तव में, भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने दिसम्बर में एक टेलीविजन चर्चा के दौरान साफतौर से चुनावों पर कालेधन के प्रभाव को रोकने की आवश्यकता पर जोर दिया था और बताया था कि भाजपा जनसंघ के समय से ही इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रतिबद्ध रही है।

अपने चुनाव अभियान के दौरान सदन में प्रधानमंत्री मोदी ने सदैव ही राजनीतिक और चुनाव फंडिंग पर व्यवस्था को साफ रखने पर जोर दिया है, जबकि भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने निरंतर और सार्वजनिक रूप से व्यवस्था को साफ रखने पर जोर दिया है। विडम्बना है कि अधिकांश राजनीतिक पार्टियां इस विषय पर खामोश रही हैं, जिनमें विशेष रूप से तृणमूल कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां भी शामिल हैं जो सदैव सार्वजनिक जीवन में शुचिता का बहाना बनाती रही है। विचित्र बात यह भी है कि कांग्रेस सहित ये पार्टियां विमुद्रीकरण के खिलाफ जोरदार आवाज उठाती हैं, जबकि वे इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि इस प्रक्रिया से नकली करेंसी रेकेटियरिंग, कालेधन, आतंकवादी फंडिंग, मानव ट्रेफिकिंग द्वारा हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाला है। क्या ये राजनीतिक पार्टियां उस समय भारतीय संप्रभुत्व और सुरक्षा से वास्तव में कोई संबंध नहीं था और क्या वे अपनी बात बढ़ा-चढ़ा कर कह रहे थे, यह प्रश्न विशेष रूप से हमारे सामने आता है।

बहुत पहले 1961 में, जब चुनाव में बड़ा खर्च करने पर पहले ही प्रश्न खड़ा हो गया था, उस समय कांग्रेस पार्टी की फिजुलखर्ची का भंडाफोड़ हो गया था जिस पर पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि किस प्रकार से यह पूरी चुनाव प्रक्रिया और सुशासन को हानिप्रद बना दिया है। उन्होंने चेतावनी दी थी कि इसमें सुधार करने के लिए उपाय नहीं किए गए तो देश के विधानमंडलों में शक्तिशाली लाॅबी उभरकर आएगी और यह बात शायद ही उद्देश्यपूर्ण ढंग से सामने आए कि राष्ट्रीय हित में केवल लोगों के कल्याण को ही आगे बढ़ाने की जरूरत है। जो पार्टियां प्रमुख पार्टियों के रूप में विकसित होना चाहती है उन्हें जल्द लाभ प्राप्त करने के सिद्धांत का त्याग करना पड़ेगा। किन्तु, पिछले कई वर्षों से जल्द लाभ प्राप्त करने के सिद्धांत की कला में कांग्रेस पार्टी ने महारत हासिल की थी और 1967 तक, जब वह पूरे देश में एक प्रमुख पार्टी रही तो उसने पूरी व्यवस्था को अपूर्त रूप से भ्रष्ट कर दिया।

अवसरवाद और संस्थाओं को मिटाने की जड़ में इसका हित इतना गहन था कि उसमें कोई प्रमुख सुधार या बदलाव की गुंजाइश ही नहीं रहीं- ऐसा कैसे हुआ, आखिर यही वह पार्टी थी जिसने भ्रष्ट मैकेनिज्म और प्रक्रिया से हमारे राज्य संस्थानों को खत्म कर दिया। इस पार्टी की प्राथमिकता किसी भी तरह से चुनाव जीतने और सत्ता में आने की रही। इसने ऐसा कोई प्रमुख कदम उठाने से गुरेज किया जिससे व्यवस्था साफ सुथरी बने, नया जोश और पारदर्शिता आए और सार्वजनिक जीवन और कार्यकलाप में शुचिता सुनिश्चित हो सके। दशकों से बेनामी सम्पत्तियों के खिलाफ रूकावट बनी रही जबकि कालेधन और करों के अनुपालन न होने की स्थिति को बर्दाश्त करना पड़ा। इस सभी से एक छोटे राजनीतिक तबके को लाभ पहुंचा, जबकि मेहनत करने वाले भारतीयों को नुकसान पहुंचा और उन्हें हाशिए का सामना करना पड़ा।
इस विषय पर प्रधानमंत्री मोदी की दृष्टि अत्यंत स्पष्ट रही। यह इसलिए स्पष्ट रही कि विमुद्रीकरण के कारण काले धन और आतंकवादी फंडिंग पर गहरी चोट लगी, क्योंकि उन्होंने अपनी ही पार्टी की फंडिंग पर राष्ट्रीय बहस करने की जरूरत पर जोर दिया। यह बात उन्होंने लोकसभा में साहसी कदम उठाते हुए कहा क्योंकि उन्होंने चुनाव परिणामों की परवाह नहीं की बल्कि उन्होंने व्यवस्था में शुचिता और साफ-सुथरेपन की चिंता की।
इन उपायों से जनशक्ति को बहुत लाभ पहुंचा और यह जनशक्ति ही है जो इस व्यवस्था को साफ सुथरा बनाने के लिए हर प्रयास का अन्ततः समर्थन करती है। जैसा कि दीनदयाल जी ने लिखा था- ‘‘जो राजनीतिक दल लोगों के लिए खड़े होते हैं, वे लोगों की शक्ति के लिए भी खड़े होते हैं।’’ पिछले लगभग तीन महीनों में प्रधानमंत्री मोदी ने साफतौर पर बता दिया कि ‘जनशक्ति पर’ ही दृष्टि से उनका क्या मतलब है।’’

(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी रिसर्च फाउण्डेशन, नई दिल्ली के निदेशक तथा भाजपा पुस्तकालय और डाक्युमेंटेशन विभाग के सह-संयोजक हैं।)