दल में अनुशासन का वही स्थान है जो समाज में धर्म का है

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दीनदयाल उपाध्यायजी एक विचारक राजनेता थे। उन्होंने मानव-कल्याण के लिये एकात्म मानववाद के रूप में एक जीवन-दर्शन की स्थापना की, जो उनके चिन्तन एवं अनुसंधान की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। वे आवश्यक समझते थे कि ‘स्व’ का विचार किया जाय। बिना उसके स्वराज्य का कोई अर्थ नहीं; स्वतंत्रता हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती। जब तक हमें अपनी वास्तविकता का पता नहीं, तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही सम्भव है। परतंत्रता में समाज का ‘स्व’ दब जाता है, इसलिये सभी राष्ट्र स्वराज्य की कामना करते हैं ताकि वे अपनी प्रकृति, गुण और धर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें। प्रकृति बलवती होती है। उसके प्रतिकूल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से कष्ट होते हैं। प्रकृति का उन्नयन कर उसे ‘संस्कृति’ बनाया जा सकता है पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। व्यक्ति के समान राष्ट्र को भी प्रतिकूल चलने पर अनेक व्यथाओं का शिकार बनना पड़ता है। पण्डितजी का यह विश्लेषण देश की अनेक समस्याओं के लिये खरा उतरता है।

उन्होंने अपने चिंतन का निष्कर्ष निकाला कि व्यक्ति और समाज में विरोध मानना भूल है। विकृतियों अथवा अव्यवस्था पर चिंता होना अपने स्थान पर उचित है, पर मूल सत्य यही है कि व्यक्ति और समाज अभिन्न और अविभाज्य हैं। सुसंस्कृत अवस्था यही है कि व्यक्ति अपनी चिंता करते हुए भी समाज की चिंता करेगा। दोनों की सामान्य स्थिति है, पूरकता। समाज को हानि पहुंचाकर अपनी भलाई का जो विचार करेगा, वह गलत सोचेगा। यह विकृत अवस्था है। इसमें उसका भी भला होने वाला नहीं है, क्योंकि समाज जिस स्थिति में पहुंचेगा उसे व्यक्ति को भी भोगना पड़ेगा।

पण्डित जी कहते थे कि व्यक्ति और समाज के हितों में संघर्ष मानकर व्यक्ति के स्वातंत्र्य को सीमित कर दिया जाय, तो मनुष्य यंत्र का पुर्जा मात्र रह जाता है। यह सम्बन्ध भारतीय संस्कृति और परम्परा से मेल नहीं खाता। यहां तो दोनों का समन्वय चाहिए। व्यक्ति का समर्पण समाज के लिये आवश्यक है, साथ ही व्यक्ति को समर्थ बनाने और विकास करने में सब प्रकार की स्वतंत्रता देने का काम समाज का है।

पण्डितजी कहते थे कि व्यक्ति और समाज के हितों में संघर्ष मानकर व्यक्ति के स्वातंत्र्य को सीमित कर दिया जाय, तो मनुष्य यंत्र का पुर्जा मात्र रह जाता है। यह सम्बन्ध भारतीय संस्कृति और परम्परा से मेल नहीं खाता। यहां तो दोनों का समन्वय चाहिए

पं. दीनदयालजी धर्म को एक व्यापक तत्व मानते थे। इसमें कई सम्प्रदाय सम्मिलित हैं, कई उपासना-पद्धतियां हैं। उपासना व्यक्ति-धर्म का एक अंग हो सकती है, किन्तु धर्म तो जीवन के सभी पहलुओं से सम्बन्ध रखता है। उससे समाज व सृष्टि की धारणा होती है। राज्य का आधार भी वे धर्म को ही मानते थे। अकेली दण्डनीति राज को नहीं चला सकती। समाज में धर्म न हो तो राज्य टिक नहीं सकता। भोजन उपलब्ध होने के उपरान्त कब, कहां, कितना, कैसा, और कैसे उसका उपभोग हो, यह तो धर्म ही निश्चित करेगा। मनुष्य की मनमानी को रोकने तथा उसके स्वेच्छाचार पर प्रतिबन्ध लगाने में भी धर्म ही सहायक होता है। धर्म वही है जो सबके लिये लाभकर हो।

प्रकृति को ध्येय की सिद्धि के लिये अनुकूल बनाना संस्कृति है और उसके प्रतिकूल बनाना विकृति। संस्कृति, प्रकृति की अवहेलना नहीं करती, उसकी ओर दुर्लक्ष्य भी नहीं करती, बल्कि उसे अधिक सुखमय एवं हितकर बनाने वाले भावों को बढ़ावा देती है तथा इसमें बाधा पहुंचाने वाली प्रवृत्तियों को रोकती है। पण्डितजी का दृढ़ विश्वास था कि यदि हम भारत की आत्मा को समझना चाहते है तो उसे राजनीति अथवा अर्थनीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। विश्व को यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्त्तव्य-प्रधान जीवन की ही शिक्षा दे सकते है।

भारतीय संस्कृति की विशेषता यह है कि यह सम्पूर्ण जीवन का संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़े-टुकड़े में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से भले ही ठीक हो, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं हैं। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चार पक्षों में से किसी एक से भी व्यक्ति पिंड नहीं छुड़ा सकता और न इनमें से केवल एक पर विशेषज्ञ की भांति विचार कर उसी एक के आधार पर मनुष्य को सुखी बनाया जा सकता है। यह ध्यान रखना होगा कि एक भूख को मिटाने के प्रयत्नों में हम दूसरी भूख पैदा न कर दें। चारों पक्षों की सन्तुलित एकात्मता ही सही मनुष्य का निर्माण कर सकती है।

राष्ट्रवादी होने के नाते पण्डितजी राष्ट्र के पुनर्निर्माण की समस्याओं के सम्बन्ध में बड़े चिन्तित रहते थे। उन्होंने पाश्चात्य देशों तथा प्राचीन भारत की विभिन्न विचारधाराओं का अध्ययन किया। उनका मस्तिष्क अतीत से जुड़ा हुआ था, वर्तमान में सक्रिय रहता था तथा भविष्य की चिन्ता करता रहता था। वे जीवन-सम्बन्धी भारतीय मान्यताओं तथा आधुनिक वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति के बीच तालमेल बैठाना चाहते थे। वे आधुनिक युग की मांगों को धर्म के सनातन आदर्शों के आधार पर पूर्ण करना चाहते थे।
उनका स्पष्ट मत था कि अनेक पुरानी संस्थाएं बदलेंगी और नयी जन्म लेंगी। इस परिवर्तन के कारण, जिनका पुरानी संस्थाओं में निहित स्वार्थ है, उन्हें धक्का लगेगा। कुछ लोग जो स्वभाव से ही अपरिवर्तनवादी है, उन्हें भी सुधार और सृजन के इन प्रयत्नों से कुछ कष्ट होगा। किन्तु बिना औषधि के रोग ठीक नहीं होता और व्यायाम का कष्ट उठाये बिना बल भी नहीं आता। अतः वे कहते थे कि हमें यथास्थिति का मोह त्यागकर नवनिर्माण करना चाहिए। हमारी रचना में प्राचीन के प्रति अश्रद्धा या अवज्ञा का भाव न रहे, किन्तु उससे चिपटे रहने की आवश्यकता नहीं है।

पण्डितजी राजनीतिक दलों को सत्तालोभी व्यक्तियों का समुच्चय मात्र नहीं मानते थे, वरन् सत्ता हस्तगत करने की इच्छा से अलग, एक विशिष्ट उद्देश्य से युक्त संस्था कहते थे। ऐसे दल के छोटे-बड़े सभी कार्यकर्ताओं में किसी उद्देश्य के प्रति निष्ठा होनी चाहिए। दल के लिये अनुशासन का वही स्थान है जो समाज के लिये धर्म का।

दल के कार्यकर्ताओं में अनुशासन का प्रश्न न केवल उसे पूर्ण स्वस्थ रखने के लिये, अपितु सामान्य रूप से जनता के आचरण पर उसके प्रभाव की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। जनता में विधि-व्यवस्था का संरक्षक बनने की आकांक्षा रखने वाले दल इस दिशा में स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करें। यदि राजनीतिक दल स्वयं अपने को शासित नहीं कर सकते, तो समाज में स्वशासन की इच्छा उत्पन्न करने की आशा कैसे कर सकते हैं? समाज के लिए व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की गारंटी और रक्षा आवश्यक है और व्यक्ति के लिये सर्वसामान्य की इच्छा का स्वेच्छया समादर करना वांछनीय है। यह सहिष्णु भावना जितनी अधिक होगी, राज्य के अदम्य अधिकार उतने की कम हो जायेंगे। इसलिये दलों के लिये यह आवश्यक है कि वे अपने सदस्यों के लिये एक आचरण-संहिता निर्धारित करें तथा उसका कड़ाई से पालन करें।

पं० दीनदयाल जी संपत्ति तथा इसी जैसे अन्य अधिकारों को शाश्वत नहीं मानते थे। ये सभी समाजहित-सापेक्ष है। वास्तव में अधिकार व्यक्ति को इसलिये दिये जाते हैं कि उनके द्वारा वह अपने सामाजिक कत्तव्यों का निर्वाह कर सके। सिपाही को हथियार इसलिये दिया जाता है कि उससे वह समाज की रक्षा करे। यदि वह अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं करता तो वह शस्त्र-धारण का अधिकारी नहीं रहेगा। इसी प्रकार व्यक्ति को सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार इसलिये मिले हैं कि वह अपने कर्त्तव्यों का पालन करें।

पण्डितजी राजनीतिक दलों को सत्तालोभी व्यक्तियों का समुच्चय मात्र नहीं मानते थे, वरन् सत्ता हस्तगत करने की इच्छा से अलग, एक विशिष्ट उद्देश्य से युक्त संस्था कहते थे

इस कार्य के लिये समय-समय पर अधिकारों की व्याख्या और मर्यादा में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। सम्पत्ति का कोई भी अधिकार समाज-निरपेक्ष नहीं हो सकता।

जिस प्रकार एक स्थान पर आर्थिक अथवा राजनीतिक सामर्थ्य का केन्द्रीकरण प्रजातंत्र के विरुद्ध है, वैसे ही एक व्यक्ति या संस्था के पास राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक शक्ति का केन्द्रीयकरण भी लोकतंत्र के मार्ग में बाधक है। जब किसी भी एक क्षेत्र की शक्ति केन्द्रित हो जाती है तो केन्द्रस्थ व्यक्ति अथवा अप्रत्यक्ष रीति से अन्य क्षेत्रों की शक्ति भी अपने हाथ में लेने का प्रयत्न करता है। यद्यपि मनुष्य का जीवन एक है और उसकी विभिन्न प्रवृत्तियां एक दूसरे की पूरक हैं, फिर भी उन प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले निकाय अलग-अलग रहने चाहिए। साधारणतया राज्य की विभिन्न इकाइयों को प्रशासन के क्षेत्र से हटकर अर्थ के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। अतः पण्डितजी का मत था कि विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ शक्तियों के विभक्तिकरण का भी विचार होना चाहिए।

‘प्रत्येक को मताधिकार’, जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निष्कर्ष है, वैसे ही ‘प्रत्येक को काम’, यह आर्थिक प्रजातंत्र का मापदण्ड है। काम का यह अधिकार बेगार या बंधुआ मजदूरी से प्राप्त नहीं होता, जैसे कि कम्युनिस्ट देशों का ‘वोट’ प्रजातंत्रीय अधिकार का उपभोग नहीं है। काम प्रथम तो जीविकोपार्जन योग्य हो तथा द्वितीय, व्यक्ति को उसे चुनने की स्वतन्त्रता हो। यदि काम के बदले में राष्ट्रीय आय का न्यायोचित वितरण तथा किसी न किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था आवश्यक हो जाती है।
लोकतंत्र की एक व्याख्या यह भी की गयी है कि यह वाद-विवाद के द्वारा चलने वाला राज्य है। इस वाद-विवाद से लाभ तब ही होगा, जब हम दूसरे की बात को ध्यानपूर्वक सुनेंगे और उसमें जो सत्यांश होगा, उसको ग्रहण करने की इच्छा रखेंगे। यदि दूसरे का दृष्टिकोण समझने का प्रयत्न न करते हुए हम अपने ही दृष्टिकोण का आग्रह करते जायें, तो गला सुखाने के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं होगा। भारतीय संस्कृति मानती है कि सत्य एकांगी नहीं होता। विविध कोणों से एक ही सत्य को देखा, परखा और अनुभव किया जा सकता है। इसलिये, इन विविधताओं के सामंजस्य के द्वारा जो सम्पूर्ण का आंकलन करने की शक्ति रखता है, वही तत्वदर्शी है, वही ज्ञाता है।
पं. दीनदयाल उपाध्यायजी ऐसे ही एक ज्ञाता थे।

-सुन्दर सिंह भंडारी

(लेखक स्व. सुन्दर सिंह भंडारी जनसंघ के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री एवं गुजरात व बिहार के राज्यपाल थे)