लौकिक, धर्महीन, धर्मरहित, धर्मनिरपेक्ष, अधार्मिक, अधर्मी, निधर्मी अथवा असांप्रदायिक

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हमारे यहां बिना धर्म के तो किसी के भाव की, उसके अस्तित्व की ही कल्पना कठिन है। फलत: हम समझते हैं कि हमारा राज्य धर्म को तिलांजलि नहीं दे सकता। अत: अधार्मिक, धर्मनिरपेक्ष, धर्मरहित, धर्महीन, धर्म विरत आदि सभी शब्द न तो हमारे राज्य के आदर्श को ही प्रकट करते हैं और न सेक्यूलर स्टेट ठीक पयार्य हो ही सकते हैं।

दीनदयाल उपाध्याय

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारतवर्ष को एक ‘सेक्यूलर स्टेट’ घोषित किया गया है तथा तबसे यह शब्द लोगों की जबान पर इतना चढ़ गया है कि क्या बड़े-बड़े नेता और क्या गांव-गांव, गली-गली में बातचीत के स्वर को ऊँचा करके ही भाषण की हवस मिटाने वाले छुटभैये, सभी दिन में चार बार ‘सेक्यूलर स्टेट’ की दुहाई देकर अपनी बात मनवाने का तथा दूसरों को उसके विरुद्ध बताकर गलत सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। सुनते-सुनते शब्द तो कानों में रम गया है, किंतु अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि भारत सरकार बोलने वाले नेता तथा सुनने वाली जनता ‘सेक्यूलर’ शब्द का क्या अर्थ समझती है। विधान परिषद् में ‘सेक्यूलर स्टेट’ का नाम लेने पर जब एक सदस्य ने पं. जवाहरलाल नेहरू से ‘सेक्यूलर स्टेट’ का मतलब पूछा तो उन्होंने भी अर्थ बताने के स्थान पर सम्मानीय सदस्य को डांटकर कोष देखने के लिए कहा। फलत: समस्या सुलझ नहीं पाई और आज भी लोग सेक्यूलर शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लगाते हैं। सेक्यूलर के लिए भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त पर्यायों से यह भिन्नता स्पष्ट हो जाती है। लौकिक, धर्महीन, धर्मरहित, धर्मनिरपेक्ष, अधार्मिक, अधर्मी, निधर्मी, असांप्रदायिक आदि अनेक शब्दों का सेक्यूलर के पर्याय इस नाते प्रयोग होता है। निश्चित ही उपर्युक्त सभी शब्द समानार्थक नहीं हैं। उनमें मत भिन्नता ही नहीं है अपितु वे विरोध की सीमारेखा को भी स्पर्श कर जाते हैं। अपने राज्य के स्वरूप के संबंध में इतना वैषम्य वास्तव में हितावह नहीं है। अच्छा हो कि हम सेक्यूलर शब्द के ठीक अर्थ समझ लें; कम-से-कम जिस अर्थ में हम भारत को सेक्यूलर स्टेट बनाना चाहते हैं, उसका तो निर्णय कर ही लेना चाहिए।

रोमन साम्राज्य को प्रतिक्रिया

नेहरूजी के आदेशानुसार यदि डिक्शनरी का सहारा लिया जाए तो समस्या विशेष नहीं सुलझती, क्योंकि कोष में सेक्यूलर के अर्थ हैं अर्थात् अपना सौ वर्षों में एक बार होने वाला लौकिक। इनमें से लौकिक अर्थ सर्वसाधारण व्यवहार में आता है तथा स्प्रिचुअल के विरोध में इसका प्रयोग होता है। सेक्यूलर स्टेट को कल्पना के विकास के पीछे भी यही भाव है। क्योंकि सेक्यूलर स्टेट की कल्पना का उदय पवित्र रोमन साम्राज्य के विरोध में से हुआ है। यूरोप के सभी देश किसी समय रोम के पोप के अधीन थे तथा प्रत्येक देश का राजा पोप के नाम पर ही शासन करता था। किंतु धीरे-धीरे रोमन कैथोलिक मत और पोप दोनों या इनमें से किसी एक के प्रति अविश्वास और विरोध की भावना बढ़ने लगी। फलत: प्रोटेस्टेंट मत का जन्म हुआ तथा फ्रांस की क्रांति के कारण और उसके परिणामस्वरूप जनता के घोष समानता और स्वतंत्रता और बंधुत्व हुए। साथ ही राष्ट्रीयता के बढ़ते हुए ईसाई मत में अनेक चर्चों की स्थापना ईसाई मत के सामान्य जीवन पर घटते हुए प्रभाव ने पवित्र रोमन साम्राज्य को विघटित करके, ऐसे राज्य की कल्पना को जन्म दिया जिसमें सभी मतों के मानने वाले नागरिकता के समान अधिकारों का उपयोग कर सकें तथा राज्य जनता के मत में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न करें। लोगों की दृष्टि अधिकाधिक भौतिकवादी होने के कारण लोगों की दृष्टि में राज्य का महत्त्व केवल लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र रह गया है तथा आत्मा संबंधी सभी प्रश्नों की व्यक्तिगत इच्छा-अनिच्छा पर छोड़ देना उचित समझा।

लौकिक और पारलौकिक

यूरोप में ‘सेक्यूलर स्टेट’ की कल्पना के विकास का संक्षिप्त विवरण ऊपर दिया है। स्प्रिचुअल और टेंपोरल (सेक्यूलर) दो भिन्न-भिन्न क्षेत्र करके राज्य की ओर केवल सेक्यूलर आवश्यकताओं की पूर्ति का भार देकर भी यूरोप का कोई राज्य मत विशेष के पक्षपात की नीति से मुक्त नहीं हो पाया है। इंग्लैंड का राजा अभी भी (धर्मरक्षक) कहा जाता है तथा उसके लिए आवश्यक है कि वह मानने वाला प्रोटेस्टेंट ही हो, राज्य की ओर से गिरजे और पादरियों को पतन और सहायता भी मिलती है। अमेरिका में भी प्रेसीडेंट के लिए शपथ लेते समय विशिष्ट धार्मिक विधि को पूरा करना आवश्यक है।
भारतवर्ष में वास्तविक रूप से तो राज्य की कल्पना के अंतर्गत लौकिक राज्य की ही कल्पना है। हमारे यहां धर्मगुरु को कभी राजा का स्थान नहीं मिला है। राजा स्वयं किसी भी मत का मानने वाला क्यों न हो, सदा सभी मतावलंबियों के प्रति न्याय और समानता का व्यवहार करता था। हां, आज के सेक्यूलरिज्म की कल्पना के अनुसार पक्षपात रहित रहने का अर्थ किसी की मदद न करना नहीं था, अपितु सबकी मदद करना था। अत: राज्य सब मतावलंबियों की समान रूप से सहायता करता था। इस सहायता के पीछे यह भाव निहित था कि प्रथम तो बिना पारलौकिक उन्नति के लौकिक उन्नति व्यर्थ है तथा दूसरे राजा का कर्त्तव्य है कि प्रजा की सब प्रकार की उन्नति का प्रबंध करे और पारलौकिक क्षेत्र में यह प्रबंध सब मतों को समान सहायता देते हुए उनके आपसी संबंधों को सद्भावनापूर्ण बनाते हुए ही होता था। अत: किसी मत का राज्य न कायम करते हुए भी ‘यतो अभ्युदयनिश्रेयसप्राप्ति स धर्म:’ की व्याख्या के अनुसार धर्म का विकास करते हुए धर्मराज्य की अवश्य ही स्थापना की जाती थी।

धर्म जीवन है

आज भारतवर्ष के नेतागण यद्यपि पश्चिमी आदर्शों को अपनाकर भावी भारत की रचना करना चाहते हैं और उसके अनुसार पश्चिम के अर्थ में सेक्यूलर स्टेट का अर्थ लौकिक राज्य ही लगाया जा सकता है, किंतु भारतीय जनता धर्मराज्य या रामराज्य की भूखी है और वह केवल लौकिक उन्नति में ही संतोष नहीं कर सकती। भारतीयता की स्थापना भी केवल एकांगी उन्नति से नहीं हो सकती, क्योंकि हमने लौकिक और पारलौकिक उन्नति को एक दूसरे का पूरक ही नहीं तो एक दूसरे से अभिन्न माना है। किंतु पारलौकिक उन्नति के क्षेत्र में राज्य की ओर से किसी एक मत की कल्पना अनुचित होगी। अत: उसे द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करना होगा जिसमें सभी मत बढ़ सकें तथा ‘एक’ सद्विपा: बहुधा वदन्ति के सिद्धांत का पालन कर सकें।
फलत: हमारे राज्य के लिए ‘लौकिक राज्य’ सेक्यूलर स्टेट को ठीक पर्याय होने पर भी मौजूद नहीं होगा। धर्म शब्द की उपर्युक्त परिभाषा एवं ‘धारणद्धर्ममित्याहु: धर्मोधारयते प्रजा’ आदि परिभाषाओं के अनुसार यह शब्द अंग्रेजों के रिलीजन का पर्यायवाची न होकर उससे भिन्न है तथा व्यापक अर्थवाला है। हमारे यहां बिना धर्म के तो किसी के भाव की, उसके अस्तित्व की ही कल्पना कठिन है। फलत: हम समझते हैं कि हमारा राज्य धर्म को तिलांजलि नहीं दे सकता। अत: अधार्मिक, धर्मनिरपेक्ष, धर्मरहित, धर्महीन, धर्म विरत आदि सभी शब्द न तो हमारे राज्य के आदर्श को ही प्रकट करते हैं और न सेक्यूलर स्टेट ठीक पयार्य हो ही सकते हैं।

मत और धर्म के भेद

अंग्रेज़ों के रिलीजन शब्द का पर्यायवाची शब्द यहां मत है तथा एक मत के मानने वाले को संप्रदाय कहा जाता है, जैसे शैव संप्रदाय, वैष्णव संप्रदाय, खिस्ती संप्रदाय आदि। निश्चित ही पहले और आज भी राज्य इनमें से किसी एक संप्रदाय का नहीं हो सकता। राज्य की दृष्टि से तो सबके लिए ही समान होनी चाहिए। फलत: हम कह सकते हैं कि राज्य को सांप्रदायिक न होकर असांप्रदायिक होना चाहिए। यही राज्य का सही आदर्श है। ऐसा राज्य किसी सांप्रदाय विशेष के प्रति पक्षपात या किसी के प्रति घृणा का व्यवहार न करते हुए भी जीवन की लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हुए धर्मराज्य हो सकता है।

असांप्रदायिक कहें

‘असांप्रदायिक’ शब्द से राज्य के ठीक-ठीक आदर्श का ही बात नहीं होता अपितु ‘सेक्यूलर’ के शाब्दिक नहीं तो पाश्चात्य व्यावहारिक अर्थ के भी यह बहुत निकट है। रूस को छोड़कर किसी राज्य ने कभी रिलीजन (मत) को समाप्त नहीं किया और आज तो रूस में भी पूजा स्वातंत्र्य को मान लिया है यद्यपि राज्य की ओर से किसी को कोई सुविधा नहीं मिलेगी। शेष सभी राज्यों में सभी संप्रदायों को अपने मत के द्वारा आत्मिक, शारीरिक स्वतंत्रता है तथा इंग्लैंड के राजा को छोड़कर शेष कहीं किसी संप्रदाय विशेष के प्रति पक्षपात नहीं है। अत: उन राज्यों को भी पवित्र रोमन साम्राज्य के विरोध में चाहे लौकिक समझा जाए, किंतु असांप्रदायिक कहना ही अधिक युक्तिसंगत होगा। ‘असांप्रदायिक’ शब्द के द्वारा हमारे नेताओं का अर्थ भी अधिक स्पष्ट होता है क्योंकि आज सेक्यूलर शब्द का प्रयोग केवल पाकिस्तान से, जिसने अपने आपको ‘इस्लामी राज्य’ घोषित किया है भिन्नता दिखाना ही है। भारत ‘इस्लामी राज्य’ के समान किसी एक संप्रदाय का राज्य नहीं है यही हमारे नेता प्रकट करना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने सेक्यूलर शब्द को चुना है। आज यद्यपि सांप्रदायिक और राष्ट्रीय शब्दों का ठीक-ठीक ज्ञान न होने के कारण सेक्यूलर शब्द का नाम लेकर रेडियो से गीता और रामायण आदि का पाठ बंद करना आदि अनेक कार्य कर दिए जाते हैं। फिर भी भारतीय राज्य का आदर्श घोषित करते समय हमारे नेताओं के मस्तिष्क में जो प्रधान धारणा रही वह ‘असांप्रदायिक’ शब्द से ही अधिक व्यक्त होती है।

उपर्युक्त सभी कारणों में से असांप्रदायिक शब्द ही सेक्यूलर का निकटतम भाषांतर है और उसी का प्रयोग किया जाना चाहिए।

साभार: पांचजन्य (1949)