-पं. दीनदयाल उपाध्याय
यदि अपने देश को परम वैभव पर ले जाना है क तो उस वैभव की कल्पना उसका ज्ञान अपने को रहना चाहिए। पश्चिमी राष्ट्रों ने प्रगति की भी है, लेकिन उनकी दृष्टि कैसी है, विचार कैसा किया, उनको आघात कैसे सहन करने पड़े और विफल बन गए आदि का विचार कल यहां हुआ। पाश्चात्य जीवन आज सुखी नहीं है। व्यक्ति और समाज जीवन की मनीषा पूर्ण करने का कुछ साधन उनके पास नहीं। ऐसी परिस्थिति में हम पूर्ण जीवन की ओर देखें। पाश्चात्यों का अनुकरण ठीक नहीं, जीवन के संबंध में अपने यहां भी विचार हुए हैं। ऋषि-मुनियों ने क्या सोचा है, इसका विचार करें। वे विचार यदि हमें अनुकूल लगें और वे देश-काल निरपेक्ष हैं तो उनको स्वीकार कर आगे बढ़ें।
मैं, यानी केवल शरीर मात्र नहीं, शरीर से आगे बढ़कर ‘मैं’ कुछ हूं। शरीर के साथ-साथ मन-बुद्धि सबके अंदर मैं निहित है। मन-बुद्धि आदि दिखाई देते नहीं, फिर भी हम उनको मानते हैं। इन सभी को सुख मिलता है, तब ही मनुष्य सुखी होता है
व्यक्ति क्या है, उसका स्वरूप क्या है, उसका हित किसमें है, इन प्रश्नों के बारे में पाश्चात्यों के विचार और अपने विचार इनमें मूलभूत भिन्नता है। मैं, यानी केवल शरीर मात्र नहीं, शरीर से आगे बढ़कर ‘मैं’ कुछ हूं। शरीर के साथ-साथ मन-बुद्धि सबके अंदर मैं निहित है। मन-बुद्धि आदि दिखाई देते नहीं, फिर भी हम उनको मानते हैं। इन सभी को सुख मिलता है, तब ही मनुष्य सुखी होता है। नहीं तो दुःखी ही रहता है। सब तरह का अनुकूल वातावरण रहते हुए भी कभी-कभी नींद नहीं आती। मन में कोई चिंता नहीं रही तो निश्चिंतता से आदमी पत्थर पर भी सो जाता है, मन में चिंता रहती है तो उसे भोजन सुखदायक नहीं होता। जिसको फांसी की सजा हुई है, उसे कितना भी भोजन खिलाओ तो वह उसके शरीर को लगता नहीं। शरीर, स्वास्थ्य के लिए आदमी को प्रोटींस, विटामिंस कितने चाहिए, इतने मात्र विचार करने से काम नहीं चलेगा। सब तरह का भोजन देने से भी शरीर ठीक नहीं होगा। दो आदमियों को बराबर तौलकर भी भोजन खिलाया तो भी एक का अच्छा स्वास्थ्य और दूसरे का कम अच्छा दिखाई देता है। इससे निर्णय यह होता है कि शरीर का विकास भोजन पर निर्भर नहीं होता, पश्चिम में भी इसका विचार हुआ है। मानसिक रोग चिकित्सा में रोगों को दूर करना है तो मन को ठीक करना चाहिए, उसका स्वास्थ्य देखना चाहिए, ऐसा वे मानते हैं।
सामूहिक संबंध
शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय यानी व्यक्ति है। ‘मैं’ में ये सब आते हैं। परंतु ‘मैं’ इतना ही है क्या? ‘मैं’ एक हिंदू हूं, हिंदुस्तान का एक प्रतिनिधि हूं, मैं समाज के सुख-दु:ख में भागी हूं, समाज के दुःख से मुझे पीड़ा होती है। सुख का संबंध मेरे बंधुओं और आस-पास के लोगों से रहता है। समाज के व्यक्तियों के साथ ऐसा संबंध बढ़ा तो यह भावना बढ़ती है। आकाश के अनेक रंग देखने पर सूर्योदय-सूर्यास्त को देखकर, खिलते हुए गुलाब को देखकर, चिड़ियों का चहचहाना सुनकर और समुद्र के किनारे जाते ही पानी की लहरें देखकर हमें आनंद क्यों होता है? हमारा आनंद वहां तक ही सीमित नहीं। बाह्य जगत् के साथ भी संबंध होता है। कुटुंब के हर व्यक्ति के साथ संबंध होता है। हम सबका एक सामूहिक संबंध है। व्यक्ति की एक प्रकृति होती है। व्यक्ति के मन जैसा समाज का भी मन रहता है, जिसको Mob-Mentality कहते हैं। यह व्यक्ति से अलग रहता है। यह Mob Mentality, समूह भाव अच्छा हो या बुरा, उसमें एक संवेदनशीलता होती है और उसका परिणाम समूह के सभी लोगों पर होता है। संगठन, समाज आदि का यही एक भाव आधारभूत है।
यह समाज केवल व्यक्तियों का समूह ही नहीं। व्यक्तियों के विचारों का और भावनाओं का जोड़ भी समाज नहीं, पाश्चात्यों ने ऐसा व्यक्तियों का समूह और भावना, विचारों का जोड़ भी समाज माना है, लेकिन वे विचार ग़लत हैं। समाज का एक अलग अस्तित्व है। समाज का एक स्वतंत्र मन और प्रकृति होती है। Group mind और Individual mind की जाने, यानी समाज मन नहीं, वह अलग ही होता है। थोड़े दिनों के पहले पू. गुरुजी और श्री विनोबाजी की भेंट हो गई। विनोबाजी को एक प्रश्न पूछा गया कि हिंदुओं और मुसलमानों में कौन अच्छा है। उन्होंने कहा कि हिंदुओं और मुसलमानों में अच्छे और बुरे दोनों ही हैं। लेकिन जब मुसलमान सामूहिक रूप से आते हैं तो उनके मन में बुरा विचार आता है। और जब हिंदू सामूहिक रूप से इकट्ठे आते हैं तो उनमें सेवा, तपस्या और विश्व के साक्षात्कार का विचार ही आता है। क्यों, क्योंकि दोनों समाज की प्रकृतियां ही भिन्न हैं। दोनों के ग्रुप माइंड में अंतर है।
व्यक्ति और समाज के संबंध कहीं से उत्पन्न नहीं हुए हैं। समाज एक सजीव सृष्टि है। पेड़, जानवर, मनुष्य जैसे जन्म लेते हैं, वैसे ही समाज का भी जन्म होता है। ये जैसे सजीव हैं, वैसे ही समाज भी सजीव है। समाज के जन्म लेने के बाद उसका भी विकास होता है। मोटर जन्म नहीं लेती, वह कारखाने में बनाई जाती है। समाज का विकास होता है, लेकिन मोटर का विकास नहीं होगा। समाज व्यक्तियों का समूह नहीं, वह organism है। एक ही व्यक्ति पिता, पति, पुत्र, मित्र, व्यापारी, कवि, भक्त, मानव, प्राणी, इन सबमें है।
समस्याएं विकार है
पाश्चात्य देशों में इन सबमें परस्पर विरोध है। विवाहोत्तर पत्नी और मां सास और बहू में झगड़ा प्रारंभ होने के पश्चात् वहां व्यक्ति के सामने किसका पक्ष लेना, ऐसी समस्याएं पैदा होती हैं। ऐसे संघर्षों को हमने जीवन का आधार माना नहीं, ये समस्याएं केवल विकार हैं, संस्कृति नहीं। शरीर में कुछ बिगाड़ होने से ही बीमारी आती है। इसी प्रकार ये संघर्ष हैं। विकार ही जीवन के आधार रूप में रखना योग्य नहीं। व्यक्ति और समाज में निर्माण हुआ विरोध, तो वह खराबी ही है। वह प्रकृति का विरोधी होगा। बच्चा और मां, इन दोनों में प्रेम, आत्मीयता नहीं रहती, यह जैसा अनैसर्गिक है, वैसा ही वह होगा।
अपना आधार संघर्ष नहीं, सहयोग है। संघर्ष दुष्टों के साथ राक्षसों के साथ मात्र। शरीर रोगों के साथ झगड़ता है। अवयवों के साथ संघर्ष नहीं। कुत्तों को एक स्थान पर खाने के लिए छोड़ा, तो झगड़ते हैं। कबूतर, चिड़ियां, इनमें समूह की प्रकृति होती है। ये झगड़ते नहीं। लड़ना ही जीवन का आधार होने से पश्चिम ने कहा Survival of the fittest, लेकिन अपने जीवन में लड़ना या संघर्ष जीवन का आधार न होने से संघर्ष के स्थान पर सहयोग आ गया है। वृक्ष और मनुष्य के जीवन में सहयोग है। जैसे शरीर के अवयवों में पूरकता है। वृक्ष मनुष्यों द्वारा छोड़ा हुआ कार्बन वायु शोषण करते हैं और मनुष्य उपयोगी प्राणवायु (oxygen) को बाहर फेंक देते हैं। मनुष्य की संस्कृति किसमें है? जीवन के लिए सब बातों का उपयोग ठीक ढंग से कर लेने में है। विकार को पूरक बनाना, अनुकूल बनाना, इसमें ही मनुष्य की संस्कृति है। जहर को भी दवा के रूप में उपयोग में लाना, यह प्रकृति की देन है।
समग्र विचार
इस प्रकार व्यक्ति की सब आनुषंगिक बातों का संपूर्ण विचार करने का सिद्धांत अपनाना है। पाश्चात्यों ने जीवन के केवल एक पक्ष को देखा है। एक व्यक्ति के स्वार्थ को लेकर हम चले नहीं, हम तो संपूर्णता का विचार करते हैं, जो चीज सामने आई, उसी को लेकर पाश्चात्य चले। इसमें गंभीर समग्र विचार नहीं। एक समय पर जो लागू होता है, वह सब समय में लागू नहीं होता। उनके विचार क्षणिक और तात्कालिक हैं। जैसे एक देहाती अपनी धूप में तपी खुरपी लेकर डॉक्टर के पास गया और कहने लगा कि उसकी खुरपी को बुखार है। डॉक्टर ने खुरपी को देखकर कहा, इसको रस्सी बांधकर बावड़ी में छोड़ दो। पानी में
लड़ना ही जीवन का आधार होने से पश्चिम ने कहा Survival of the fittest, लेकिन अपने जीवन में लड़ना या संघर्ष जीवन का आधार न होने से संघर्ष के स्थान पर सहयोग आ गया है। वृक्ष और मनुष्य के जीवन में सहयोग है। जैसे शरीर के अवयवों में पूरकता है। वृक्ष मनुष्यों द्वारा छोड़ा हुआ कार्बन वायु शोषण करते हैं और मनुष्य उपयोगी प्राणवायु (oxygen) को बाहर फेंक देते हैं
डुबोने से बुखार चला जाएगा। एक दिन उस देहाती की मां को बुखार आ गया, देहाती को वही इलाज याद था। वह डॉक्टर के पास नहीं गया और अपनी रोती-चिल्लाती मां के गले में रस्सी बांधकर बावड़ी में डुबो दिया। ऐसे ही पाश्चात्यों की स्थिति हो गई है। उन देशों में डार्विन, मार्क्स आदि ने जो सिद्धांत बताए, वे सब अर्धसत्य हैं। उन्होंने मनुष्यों के क्षुद्र तथा स्वार्थ भावों को ही उपोषित करने का प्रयास किया है। जिस प्रकार डाकू डाका डालते समय तो संगठित रहते हैं, लेकिन धन बांटते समय आपस में झगड़ते हैं। एक-दूसरे का गला घोंटने का प्रयास स्वार्थ के कारण करने से आधे डाकू या सब के सब नष्ट हो जाते हैं। केवल स्वार्थ का आधार लेकर समाज को संगठित किया तो वैभव की स्थिति प्राप्त होते ही संघर्ष होना संभव है।
कोई कार्य करने के लिए भगवान् ने इस सृष्टि में हर चीज़ निर्माण की है। अपना समाज भी किसी कारण से पैदा हुआ है। इसलिए उस प्रकृति की योजना को समझकर इस पर चलें। परस्पर विरोध करके नहीं, सहकारी बनकर हमें रहना है। शरीर में दो पैर हैं, दोनों के सहकार से शरीर आगे चलता है।
सब सृष्टि में वही बात दिखाई देती है। जिस mission को लेकर हम पैदा हुए हैं, उसको पूरा करने में हम सब सहयोग दें। इसमें संघर्ष नहीं आना चाहिए। पश्चिमी विचार और हमारे विचारों में अंतर है।
-संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: बंगलौर, 26 मई, 1965