हमारे राष्ट्रवाद का आधार सांस्कृतिक है

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म अपने इतिहास में राष्ट्र शब्द का प्रयोग या व्यवहार अनेक स्थानों पर पाते हैं। राष्ट्र का उत्थान हो, राष्ट्र विजयी हो— इसकी कामना वैदिक सूत्रों में की गई है, समृद्धि की भावना व्यक्त की गई है। स्वस्तिवाचन में भी राष्ट्र शब्द का व्यवहार होता है। अत: हम पहले राष्ट्र हैं, यह बात अच्छी प्रकार से समझ लें।
कुछ लोग कहते हैं कि भारत में पहले राष्ट्रीयता नाम की कोई वस्तु थी ही नहीं। अब राष्ट्रीयता नाम की कोई चीज बनानी है। ऐसा कहनेवाले वे लोग हैं, जिन्होंने पश्चिमी शिक्षा का अध्ययन किया है। आज की भाषा में जिन्हें राष्ट्र कहा जाता है, पश्चिमी देशों में आज से पांच सौ-सात सौ वर्ष या एक हजार वर्ष पूर्व कोई राष्ट्र नहीं था। वहां जितने भी लोग थे, जातियां थीं, मजहब के नाम पर बंटे हुए थे। ईसाई, यहूदी, मुसलमान आदि। प्राचीन यूनान में अवश्य राष्ट्रीयता का कुछ स्वरूप था, परंतु उनके समाप्त होने पर जो आए, वे सब मजहब के नाम पर थे। यहूदी, ईसाइयों की मुसलमानों की इस प्रकार उस समय यूरोप व एशिया में जो भी लड़ाइयां हुईं, मजहब के नाम पर हुईं, जिन्हें क्रूसेड्स कहते हैं। उनमें प्रत्येक मजहब के पक्ष के लोग दूर-दूर से आते थे। कुछ समय तक सुधार के नाम पर नया मजहब आया प्रोटेस्टेंट। रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंटो की लड़ाइयां हुईं। एक स्थिति ऐसी थी कि रोम का पोप संपूर्ण का ईसाई जगत का सम्राट माना जाता था। वही धार्मिक गुरु था तथा वही राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से सम्राट था।
मुसलमानों में भी सभी शक्ति का केंद्र खलीफा था, सभी मुसलमानी राज्य उसके नाम पर थे, वह सम्राट, शेष सभी राजा उसके प्रतिनिधि माने जाते थे। पर यह बात अधिक दिन तक नहीं चली, धीरे-धीरे स्थिति बदली। यूरोप में पोप के विरुद्ध लोग खड़े हो गए। जर्मनी में मार्टिन लूथर के नेतृत्व में प्रोटेस्टेंट मजहब आया। उसने पोप की सत्ता को मानने से इनकार कर दिया। इंग्लैड में भी एक नया चर्च—एंगलीकन चर्च बना। धीरे-धीरे इंग्लैड, फ्रांस, जर्मनी से रोम का प्रभुत्व हट गया। अन्य देशों में भी ऐसा ही हुआ। वे भी उनके प्रभुत्व से मुक्त हो गए। धीरे-धीरे इनमें कुछ लोगों ने प्रयत्न किया और समूहों को जोड़कर राज्य निर्माण किए। सभी प्रकार के लोगों को जोड़कर राष्ट्र की स्थिति निर्माण हुई। इटली में मैजिनी और गैरीबाल्डी ने छोटे-छोटे राज्यों को एक स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया। ऐसा ही जर्मनी में हुआ, ऐसा ही फ्रांस में हुआ। इंग्लैड, स्कॉटलैंड, आयरलैंड भी मिलकर एक इकाई के रूप में बने। इस प्रकार राष्ट्रीयता बनी। इसी प्रकार उस शिक्षा को प्राप्त किए हुए लोग सोचते हैं कि भारत में भी पहले राष्ट्रीयता नहीं थी। जब अंग्रेजों से हमारा संपर्क आया तो राष्ट्रीयता की भावना आई कि उन देशों के समान ही हमें भी राष्ट्र बनाना है।
हमारी राष्ट्रीयता की कल्पना और पश्चिम से आई राष्ट्रीयता की कल्पना में एक आधारभूत अंतर है। यह राष्ट्रीयता की कल्पना राजनीतिक आधार पर नहीं, सांस्कृतिक आधार पर है। हमारे राष्ट्रवाद का आधार सांस्कृतिक है। कुल तीन प्रकार के राष्ट्रवाद हैं। प्रादेशिक (Territorial), राजनीतिक (Political) और सांस्कृतिक (Cultural)। हमारे यहां का राष्ट्रवाद कल्चरल (सांस्कृतिक) है। भूमि व राज्य इसके पोषक हैं। अन्य देशों में पहले राज्य, उसके लिए भूमि और उसकी पोषक संस्कृति है।
राष्ट्रीयता के सांस्कृतिक आधार का हमें लाभ भी रहा। हमारे देश में कितने भी राजनीतिक उतार-चढ़ाव आए, उससे राष्ट्रवाद को कभी कोई धक्का नहीं लगा। अन्य देशों में, राजनीतिक सत्ता समाप्त होते ही, राष्ट्रीयता भी समाप्त हुई। पर हमारे यहां राजनीतिक सत्ता को गौण स्थान देने से, सत्ता जाने पर भी राष्ट्रीयता बनी रही व बनी हुई है। हमारे यहां राष्ट्रीयता सांस्कृतिक रही। यहां चाहे एक राज्य था चाहे अनेक, राष्ट्रीयता बनी रही।
पर जो लोग ऐसा कहते हैं कि भारत की एकता अंग्रेजों के समय में ही रही, इससे पूर्व कभी नहीं रही, ऐसा सोचना ही भूल है। एक तो हमारी इस ओर देखने की दृष्टि कभी राजनीतिक नहीं रही, फिर भी चंद्रगुप्त के समय में राजनीतिक एकता अंग्रेजों के समय से भी अधिक ही थी। फिर पृथु, रघु, दिलीप, मांधाता आदि चक्रवर्ती सम्राटों के समय में तो संपूर्ण पृथ्वी ही हमारे अंतर्गत थी। बाद में हो सकता है, हमारे यहां राजा होंगे, पर अनेक राजाओं के रहने पर भी देश की ओर देखने की हमारी दृष्टि क्या है? हमारे देश के एक राज्य वालों ने अपने इसी देश के दूसरे राज्यवालों को दूसरे देश का समझा है क्या? बल्कि सदा यह प्रयत्न रहा कि भारत को एक देश के रूप में देखें। कोई भी पुण्यकार्य करते समय, संकल्प करते समय, यह संपूर्ण भारत हमारे सामने आया है। ‘जम्बूद्वीपे भारतखण्डे भारतवर्षे…’ — इस प्रकार कहते हैं। सारे देश की एकता हमारे सामने आई है।
हमारे देश की जितनी भी महान कल्पनाएं आई हैं, उनमें संपूर्ण देश की एकता ही प्रस्फुटित हुई है— तर्पण पितृ श्राद्ध गया में करें, मातृश्राद्ध करें, अस्थियां गंगा में प्रवाहित करें। इन सबके सामने भारत की एकता की कल्पना नहीं थी क्या? राष्ट्रीयता की कल्पना नहीं होती तो ऐसा विचार भी नहीं आता। चारों धाम की यात्रा करनेवालों ने संपूर्ण भारत की ही तो कल्पना की थी। यदि उनको यह कल्पना नहीं होती तो वे धाम भारत के बाहर विदेशों मे भी बना सकते हैं। पर भारत में ही और वे भी भारत के चारों कोनों में पुण्य धाम बनाए। यह राष्ट्रीयता की कल्पना के ही कारण है। शक्ति के बावन पीठ भी पूरे भारत में फैले हुए हैं, देश के बाहर नहीं।
प्रजापति की कन्या सती बिना बुलाए ही शिवजी से स्वीकृति लेकर अपने पिता के यज्ञ में आईं, पिता की ओर से पति शिवजी को आमंत्रित न किए जाने का अपमान उनसे सहन नहीं हुआ। सती ने यज्ञाग्नि में प्राणों की आहुति दे दी। यज्ञ भंग हो गया। शिवजी सती की लाश लेकर सारे भारत में घूमते रहे। भारत में सभी की यही आकांक्षा रहती है कि जीवन में एक बार सभी तीर्थों में जाऊं और मरने पर भी मेरे शरीर की अस्थियां तीर्थों में प्रवाहित की जाएं। शिवजी संपूर्ण भारत में घूमे। जहां-जहां गए, सती का एक-एक अंग गिरता गया, वहीं शक्ति का, देवी का एक पीठ बन गया। आसाम, कलकत्ता, मथुरा आदि संपूर्ण भारत में बावन पीठ हैं। ये भारत के कोने-कोने में हैं। प्रत्येक व्यक्ति के लिए इन बावन पीठों की यात्रा आवश्यक है। वैष्णवों के भी सारे भारत में एक सौ छप्पन तीर्थ हैं। हमारे ज्योतिर्लिंग भी संपूर्ण भारत में हैं। जैनियों के, बौद्धों के सबके तीर्थ संपूर्ण भारत में फैले हैं। सभी संप्रदायों ने अपने तीर्थ संपूर्ण भारत में बनाए हैं। शंकराचार्य ने चारों कोनों में पीठ बनाए। इसी प्रकार रामायण, महाभारत में इन दोनों महाकाव्यों का साहित्य सारे भारत में फैला हुआ है। कृष्ण भी द्वारका से, पश्चिम से, प्राग्ज्योतिषपुर, पूर्व तक गए। इस प्रकार दोनों का चरित्र संपूर्ण देश पर छाया है। सब पर छाया है। हम इन दो आदर्शों से अनुप्राणित देश हैं।

क्रमश:
(संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग, अजमेर;
मई 28, 1963)