जीवन का ध्येय

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भारतीय जनसंघ के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता पं.दीनदयाल उपाध्याय कुशल संगठनकर्ता एवं मौिलक िवचारक थे। उनकी जन्मशताब्दी वर्ष (2016-17) के अवसर पर देशभर में संगोिष्ठयों का आयोजन एवं पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। कमल संदेश में भी हम लगातार उनके द्वारा िलखे गए िवचारशील लेखों को प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रस्तुत है राष्ट्रीय साप्तािहक पत्रिका ‘पांचजन्य’(18 अगस्त, 1949) मंे प्रकािशत लेख का प्रथम भाग-

विश्व का प्रत्येक प्राणी सतत् इस बात का प्रयत्न करता रहता है कि उसका अस्तित्व बना रहे, वह जीवित रहे। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए वह दूसरे अनेक प्राणियों को अस्तित्वहीन करने का प्रयत्न करता रहता है तथा स्वयं उसको अस्तित्वहीन करने वाली शक्तियों से निरंतर अपनी रक्षा करता रहता है। विनाश और रक्षा के इन प्रयत्नों की समष्टि का ही नाम जीवन है। इन प्रयत्नों की भिन्नता ही भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवनों का कारण है तथा इनकी सफलता या असफलता ही विभिन्न प्राणियों के विकास या विकार का मापदंड है। मानव भी इस नियम का अपवाद नहीं है। आदि मानव की सृष्टि और तब से अब तक का इतिहास इन प्रयत्नों का ही इतिहास है। किंतु मनुष्य विश्व के प्राणियों से अधिक विकसित है। उसका अस्तित्व केवल प्राथमिक भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही निभर नहीं करता, किंतु उसके जीवन में भौतिकता के साथ-साथ आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक तत्त्वों का भी समावेश होता है। मनुष्य के जीवन का ध्येय श्वासोच्छ्वास तथा श्वासोच्छ‌्वास की क्रिया को बनाए रखना ही नहीं है, किंतु इससे भिन्न है। वह तो श्वासोच्छ्वास मात्र जीवन को साधन मानता है, साध्य नहीं। उसका साध्य तो उपनिषदों के शब्दों में है-
‘आत्मा वा रे द्रष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो निर्दिध्यासितव्य:।’
वह आत्मा की अनुभूति करना चाहता है, उसे समझना चाहता है; अपनी संपूर्ण क्रियाओं को उस अनुभूति के प्रति लगाता है।

हमारी प्रेरक शक्ति

यह आत्मा क्या है, जिसके लिए मानव इतना तड़पता है? इस संबंध में अनेक मतभेद हैं और इन्हीं मतभेदों के कारण विश्व में अनेक संप्रदायों की सृष्टि हुई है। अनेक मनीषियों ने इस आत्मा को विश्व का आदि कारण, उसका कर्ता, धर्ता एवं हर्ता, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी परब्रह्म परमेश्वर को ही माना है। उनका कथन है कि वही एकमेव शक्ति है, जो संपूर्ण विश्व को चला रही है तथा प्रत्येक प्राणी उस ओर ही बढ़ने का प्रयत्न कर रहा है, वह उसी में मिल जाना चाहता है और इसलिए मानव का प्रयत्न उस परब्रह्म का साक्षात्कार ही है। उस परब्रह्म में ही पूर्णता होने के कारण ‘सत्यं शिवं और सुन्दरं’ की पूर्णाभिव्यक्ति होने के कारण ही मनुष्य इन गुणों की ओर आकर्षित होता है तथा जीवन के हर क्षेत्र में इन गुणों की आंशिक अनुभूति करता हुआ पूर्ण साक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील रहता है।

कुछ विद्वान् इस अदृश्य शक्ति में विश्वास न करते हुए केवल हृदय जगत् में ही विश्वास रखते हैं तथा उसमें भी मानव के विकास को (उसके सुख-साधन-संपन्न जीवन को) ही परम लक्ष्य मानकर सुख की प्राप्ति के प्रयत्नों को ही मानव जीवन का एकमेव कर्तव्य समझते हैं। उनके विचारों में ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है अपितु यदि गहराई से देखा जाए तो ज्ञात होगा कि मानव को एकता की अनुभूति तथा उसको सुखमय बनाने की इच्छा की प्रेरक शक्ति निश्चित ही दृश्य सृष्टि से भिन्न कोई सूक्ष्म तत्त्व है जो इस दृश्य जगत् को परिव्याप्त किए हुए प्रत्येक प्राणी के अंत:करण में संपूर्णता को, एकात्मता की भावना उत्पन्न करता है। उस शक्ति को आप चाहे जो नाम दें किंतु यह निश्चित है कि उसकी ओर प्रत्येक मानव अग्रसर है तथा मानवता के कल्याण की भावना किसी स्वार्थ का परिणाम नहीं, किंतु आत्मानुभूति की इच्छा का परिणाम है। अज्ञानवश मानव आत्मा के स्वरूप को संकुचित करने का प्रयत्न करता है, किंतु सत्य का ज्ञान सतत् अज्ञान पटल को भेदने के लिए प्रयत्नशील होता है।

अपनी प्रतिमा का विकास

संपूर्ण सृष्टि को एकात्मता के साक्षात्कार का ध्येय सम्मुख रखते हुए भी मानव अपनी प्रकृति के अनुसार ही उसकी ओर अग्रसर होता है। उसी प्रकार संसार के भिन्न-भिन्न भागों में रहने वाला मानव भी संपूर्ण मानव की आंतरिक एकता की भावना रखते हुए तथा उसकी पूर्णानुभूति की इच्छा रखते हुए भी प्रकृति के साधनों एवं उनको अपने नियंत्रण में करके आगे बढ़ने के प्रयत्नों में अपनी एक विशिष्ट दिशा निश्चित कर लेता है, उसकी कुछ विशेषताएं हो जाती हैं, उसको अपनी निजी प्रतिभा का विकास हो जाता है। यद्यपि संपूर्ण पृथ्वी एक है, किंतु उसके ऊपर स्थित पर्वत, सागर और वन उसके भिन्न भागों में विभिन्न प्रकार की जलवायु और वनस्पति अपना प्रभाव उस प्रदेश के मानव पर डाले बिना नहीं रहते तथा उस विशिष्ट भू-भाग के मनुष्य पूर्णानुभूति के प्रयत्नों में अपना विकास निश्चित दिशा में करते हैं। उनका अपना एक निजी स्वत्व हो जाता है जो कि उसी प्रकार की दूसरी इकाइयों से उसी प्रकार भिन्न होता है जैसे कि एक ही सेना के विभिन्न अंग। आधुनिक युद्ध में जल, थल और वायु सेना जिस प्रकार अपनी-अपनी पद्धति से एक ही युद्ध को जीतने का प्रयत्न करती हैं, उसी प्रकार संसार के भिन्न-भिन्न राष्ट्र एक ही मानवता की अनुभूति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। जल, थल और वायु सेना में कार्य करने में सैनिकों को अपनी विशेष प्रतिभा का विकास होता है तथा वे अपनी निजी पद्धति से शत्रु को पराजित करने का प्रयत्न करते रहते हैं। तीनों सेनाओं में सामंजस्य रहना तो अच्छा है, किंतु यदि किसी सेना के सैनिक अपनी पद्धति को ही सत्य मानकर दूसरी सेना के सैनिकों पर प्रभाव जमाने का प्रयत्न करें अथवा उसकी प्रतिभा को नष्ट करना चाहें तो उनका यह प्रयत्न अंतिम ध्येय की पूर्ति में बाधक होगा तथा आक्रमित सेना के सैनिकों का कर्तव्य होगा कि वे आक्रमणकारी सैनिकों से ही प्रथम युद्ध करके उनकी बुद्धि को ठिकाने पर ला दें। इसी प्रकार यदि किसी सेना के विशेष प्रभाव को देखकर अथवा किसी विशेष क्षेत्र में उनकी विजयों को देखकर अथवा आक्रमणकारी सेना की सामर्थ्य का अनुभव करते हुए कोई सेना अपनी पद्धति, अपने प्रयत्न तथा अपनी प्रतिभा को तिलांजलि देकर उस दूसरी सेना की विशेषताओं को और उसमें भी विशेषकर उसके बाह्य स्वरूप को अपनाने का प्रयत्न करती है तो वह तो स्वत: नष्ट हो ही जाएगी, अपितु मानव की अंतिम विजय में भी अपना दायित्व नहीं निभा पाएगी।

आक्रमण वृत्ति

विश्व के अनेक राष्ट्रों का इतिहास उपर्युक्त उदाहरण की भावनाएं ही परिलक्षित करता है। प्रत्येक राष्ट्र अपनी विशिष्ट पद्धति को सत्य समझने लगता है तथा अपने को ही एकमेव प्रतिभावान् मानकर दूसरे राष्ट्रों पर अपनी पद्धतियों को लादने का प्रयत्न करता है। यदि यह प्रयत्न शांतिमय होता तो भी कुछ बात नहीं, किंतु वह जबरदस्ती अपने सत्य को दूसरों के गले उतारना चाहता है। मानव के सुख और वैभव को भी वह अपने राष्ट्र के सुख और वैभव तक ही सीमित करके दूसरे राष्ट्रों के सुख और शांति को नष्ट करता है; उसके प्राकृतिक विकास में बाधा डालता है। फलत: एक राष्ट्र दूसरे पर विजय प्राप्त कर लेता है और उसे गुलाम बना लेता है।

परतंत्र राष्ट्र का जीवन प्रवाह रुद्ध हो जाता है। उसके घटक किसी-न-किसी प्रकार श्वासोच्छ‌्वास तो करते रहते हैं, किंतु वे अपने जीवन में सुख और शांति का अनुभव नहीं कर पाते। भौतिक दृष्टि से सुखोपभोग करनेवाले व्यक्ति भी परतंत्रता का ताप अनुभव करते रहते हैं, क्योंकि उनका आत्मसम्मान नष्ट हो जाता है, उनकी भावनाओं पर ठेस पहुंचती है तथा उनकी प्रतिभा कुंठित होने लगती है, उनकी आत्मानुभूति का मार्ग बंद हो जाता है। युग-युगों से उनकी प्रतिभा ने प्रस्फुटित होकर जिन विशेष वस्तुओं का निर्माण किया होता है, उसकी अवमानना होने लगती है तथा उनके विनाश का पथ प्रशस्त हो जाता है। उस राष्ट्र की भाषा, संस्कृति, साहित्य और परंपरा नष्ट होने लगती है, उसके महापुरुषों के प्रति अश्रद्धा निर्माण की जाती है तथा उसके नैतिक मापदंडों को निम्नतर ठहराया जाता है। उसके जीवन की पद्धतियां विदेशी पद्धतियों से आक्रांत हो जाती हैं तथा विदेशी आदर्श उसके अपने आदर्शों का स्थान ले लेते हैं। फलत: उस राष्ट्र के व्यक्तियों की दशा विक्षिप्त व्यक्ति के समान हो जाती है; अपनी प्रकृति, स्वभाव और प्रतिभा के अनुसार कार्य करने की सुविधा न रहने के कारण वे प्रगति के पथ पर अग्रसर होने से ही वंचित नहीं रह जाते, अपितु पतन की ओर भी अग्रसर हो जाते हैं।
क्रमश: