दीनदयाल उपाध्याय
जब से मार्क्स ने वर्ग संघर्ष के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है, पढ़े-लिखे लोग समाज को शोषित और शोषक अथवा छोटे और बड़े दो वर्गों में बांटने के आदी हो गए हैं। विचारों की यह रूढ़ि हमें वास्तविकता से दूर कर देती है। अगर कभी बरबस हमें उस समाज को भी देखना पड़े, जो न शोषक है और न शोषित अथवा जो कभी शोषण का शिकार होता है और दूसरे ही क्षण स्वयं शोषक बन जाता है, तो हमारे मार्क्सवादी भाई उसे महत्त्वहीन कहकर टाल देते हैं। किंतु यह महत्त्वहीन नहीं, कम-से-कम हिंदुस्थान में तो यह अत्यंत ही महत्त्व का है। कारण, यह संख्या और क्रिया दोनों ही दृष्टि से सबल रहा है। यह बहुत बड़ा वर्ग मध्यवर्ग के नाम से पुकारा जा सकता है, यदि हम वर्गों के रूप में ही विचार करें। मार्क्सवादी इस वर्ग का रोल अभी तक निश्चित नहीं कर पाए हैं। एक दशक पूर्व तक वे इसे शोषण का एक पुर्जा मात्र मानकर शोषक की श्रेणी में डालते थे’ किंतु अब वे सिद्धांत में उसे ‘शोषित, पर व्यवहार में शोषक’ ही मानते हैं। इस वर्ग के महत्त्व को न समझने के कारण मार्क्सवादी न तो इनकी समस्या को समझ पाए हैं और न उसका कोई हल ही उनके पास है।
जिस देश में बड़े-बड़े उद्योगों का बाहुल्य नहीं है, वहां मध्यम वर्ग की बहुतायत होती है। भारत में तो ऐसा ही है। यूरोप के देशों के विपरीत यहां करोड़पति और निर्धन के बीच करोड़ों व्यक्ति हैं, जो अधिक धनी नहीं तो बिछल गरीब भी नहीं कहे जा सकते। यही वर्ग भारत के सामाजिक जीवन का सृष्टा, उसके सांस्कृतिक विकास का जनक तथा राष्ट्रीय आंदोलन का अगुआ रहा है। यह मध्यम वर्ग ही हमारे समाज की रीढ़ की हड्डी है। इस वर्ग का बल ही राष्ट्र का बल है। हमारी परंपरा भी इसी वर्ग का आधार लेकर आगे बढ़ी है। इस वर्ग में सभी प्रकार के लोग सम्मिलित हैं। किसान, मज़दूर, व्यापारी, कर्मचारी, अध्यापक, लेखक, राजनीतिज्ञ, जमींदार और छोटे-छोटे पूंजीपति आदि सभी व्यवसायों के व्यक्ति मध्य वर्ग में आते हैं। भारत की अर्थनीति का यह मज़बूत पाया रहा है।
भारतीय अर्थनीति मध्यम वर्ग को केंद्र-बिंदु मानकर चली है। अत: यहां उन बड़े-बड़े कल-कारखानों की गुंजाइश नहीं, जिनमें आर्थिक शक्ति का केंद्रीयकरण एक व्यक्ति के हाथों या कुछ व्यक्तियों के हाथों में हो जाता है तथा जन सामान्य एक यंत्र का पुर्जा मात्र बनकर शोषण का शिकार होता है। उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करने पर भी स्थिति में विशेष अंतर नहीं आता, बल्कि आर्थिक व राजनीतिक दोनों ही शक्तियों का केंद्रीकरण होने से हालत बदतर हो जाती है। अत: भारतीय जीवन प्रणाली छोटे-छोटे उद्योगों के विकास की कल्पना लेकर चली। इन उद्योगों में मालिक और मज़दूर भिन्न नहीं होते और यदि कहीं हों तो भी उनमें इतना पारस्परिक संबंध रहता है कि वे एक इकाई ही हो जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से तथा उसके आधार पर सामाजिक दृष्टि से यहां बड़े और छोटे दो वर्ग नहीं, बल्कि मध्य वित्त वर्ग की बहुलता है।
मध्य वित्त वर्ग की स्थिति में पिछले 150-200 वर्षों में अंतर आया है। प्रथम तो ईस्ट इंडिया कंपनी की अमलदारी में, जब यहां के उद्योग-धंधे नष्ट किए गए तो बहुत से कारीगर तथा व्यापारी बेकार हो गए। उनमें से कुछ तो दूसरे-दूसरे पेशों में लग गए तथा कुछ नष्ट हो गए। कारीगर तो खेती आदि की ओर झुके तथा व्यापारियों ने विदेशी माल का कारोबार प्रारंभ कर दिया। उद्योग-धंधों के नष्ट हो जाने के कारण मध्यवर्ग के लोगों की संख्या में कमी हुई। फिर भी वे काफ़ी थे। उनमें से अधिकांश के जीवन-यापन के साधन छिन चुके थे। अंग्रेजों ने उन्हें नए साधन देने का प्रयत्न किया। किंतु यह विष मिली हुइ रोटी थी। इसने उसका पेट तो भरा किंतु नए रोग पैदा कर दिए। अंग्रेज़ी काल में नौकरी मध्यवित्त व्यक्तियों का प्रधान व्यवसाय रह गई। अकबर इलाहाबादी के शब्दों में- ‘बीए. हुए नौकर हुए पेंशन मिली और मर गए’, यही हमारे जीवन की कहानी रह गई। इस कहानी का नायक बनने के लिए अंग्रेज़ी पढ़ना ज़रूरी था, अंग्रेज़ीदां ही नहीं अंग्रेज़ी तहज़ीबयाफ्ता भी होना चाहिए था। इसका नतीजा यह हुआ कि हमारा समाज से संबंध टूट गया। हम अपनी परंपरा से बिछुड़ गए। फलत: जोहड़ के पानी के समान इस समाज में गंदगी बढ़ी, जिसका व्यक्तिकरण अनेक सामाजिक और मानसिक समस्याओं के रूप में हुआ। राम मोहन राय से लेकर आज तक के सभी महापुरुषों ने इस समस्या को सुलझाने की कोशिश की। महर्षि दयानंद, तिलक, विवेकानंद, रामतीर्थ, डॉ. हेडगेवार आदि ने परंपरा से संबंध स्थापित करने का प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रयत्न किया और अन्यों ने नई भूख पैदा करके कुछ पश्चिमी और कुछ भारतीय ढंग का मिला-जुला भोजन देकर अप्रत्यक्ष रूप से प्रयत्न किया।
अंग्रेज़ी शिक्षा के परिणामस्वरूप हमारी प्रवृत्ति बहिर्मुखी हो गई। साथ ही आजीविका के लिए कलम का सहारा ही प्रमुख होने के कारण हम वीणापाणि के पवित्र संदेश को भूल गए। हमारी रीति, नीति, विचार, व्यवहार किसी का भी संबंध गांवों में फैले करोड़ों लोगों से न रहा। अंग्रेजों ने इस विभेद को सब प्रकार से बढ़ाया ही। यहां तक कि सन् 1935 के विधान में तो हिंदू और मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन की व्यवस्था नहीं थी, अपितु शहरी और देहाती इलाकों के अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्र परिसीमित हुए।
सभ्यता और संस्कृति के इस खोखलेपन के साथ ही धीरे- धीरे आर्थिक दिवालियापन भी घर कर गया। नौकरियों में तो निश्चित संख्या तक लोग ही लिए जा सकते हैं। फलत: पढ़े-लिखे बेकारों की संख्या दिन-पर-दिन बढने लगी। दफ्तरों के सामने ‘जगह नहीं है’ की पट्टियां लग गईं। बढ़ती हुई स्मस्या को देखकर आंसू पोछने के लिए ‘सपू कमेटी’ बनाई, किंतु उनकी सिफारिशों पर कभी अमल नहीं किया गया।
द्वितीय महायुद्ध के छिड़ जाने पर यह समस्या अस्थायी रूप से सुलझ गई। नौकरियों की बहुतायत हो गई। यद्यपि पुराने कर्मचारियों के सामने महंगाई के कारण नई समस्याएं आ खड़ी हुईं, किंतु कई नौकरयां मिल जाने के कारण बेकारी को राहत मिली। बाहर से चीज़ें आना बंद हो जाने के कारण स्वदेशी उद्योग भी पनपे। फलत: एक नए मध्य वर्ग का सृजन हुआ, जो पढ़ा लिखा तो नहीं था किंतु आर्थिक दृष्टि से उसकी स्थिति पढ़े-लिखे मध्य वर्ग से कहीं अच्छी थी। हां, कंट्रोल के कारण व्यापारियों को, विशेषकर छोटे व्यापारियों को अवश्य धक्का लगा। फिर भी आर्थिक दृष्टि से समस्या भीषण नहीं थी।
महायुद्ध समाप्त होने तथा स्वराज्य के बाद चक्र फिर से पुरानी दिशा में घूमने लगा है। यदि हमने इस बदली हुई स्थिति को समझा होता तथा आगे आने वाली समस्याओं को रोकने का प्रयत्न किया होता तो आज हालत अच्छी होती, किंतु हमने अपनी अदूरदर्शी नीति से समस्या को और भी विकट बना दिया है। आज मध्यम वर्ग की अत्यंत विषम स्थिति है। इसका हम संक्षेप में यह विश्लेषण कर सकते हैं।
प्रथम तो ऐसा पढ़ा-लिखा वर्ग है, जो यदि नौकरी में है तो उसका वेतन बहुत ही अपर्याप्त है। उसकी समस्याएं कुछ तो स्वाभाविक हैं तथा कुछ नए ज़माने के विचारों तथा पश्चिमी सभ्यता के अनुकरण से बढ़ गई हैं। इनकी पूर्ति के लिए वेतन की कमी अनेक भ्रष्टाचारी साधनों से पूरी की जाती है, जिसका परिणाम दिन-प्रतिदिन नैतिक पतन में हो रहा है। इसके अतिरिक्त ऐसा भी वर्ग है, जो पढ़ा-लिखा है किंतु बेकार है। उसके पास जीविकोपार्जन के कोई साधन नहीं। घर की पूंजी खर्चीली पढ़ाई-लिखाई में स्वाहा हो गई, कलम छोड़कर हाथ का काम कर नहीं सकते। फलत: उसके मन में निराशा घर करती जा रही है। तीसरा वर्ग ऐसा भी है, जो अभी तक बेकार नहीं, जो हाथ का कारीगर है, काफ़ी कमाता है किंतु आज संस्कृति और सभ्यता की दृष्टि से वह काफ़ी पीछे है। यह नया मध्यवित्त वर्ग है किंतु अभी आर्थिक और सामाजिक जीवन में अंतर है। हमें एक ओर इन सभी की समस्या को सुलझाना है तो दूसरी ओर यह प्रयत्न करना है कि मध्यवित्त वर्ग अधिकाधिक बढ़े न कि थोड़े दिनों में बेकार होकर पीछे हट जाए।
दुर्भाग्य से शासन की नीति इस वर्ग को बढ़ाने की अपेक्षा घटा ही रही है। प्रथम तो उसकी उद्योग नीति में ऐसे उद्योगों को कोई स्थान नहीं, जिन्हें थोड़ी पूंजी से तथा थोड़े ज्ञान से चलाया जा सकता है। जो कुछ छोटे-छोटे उद्योग लड़ाई के काल में पनपे थे, वे नष्ट हो रहे हैं। आयात-निर्यात की नीति इन स्वदेशी उद्योगों के लिए हानिकर रही है। विदेशी पूंजीपति भ्रष्ट नौकरशाही को सहज ही अपने अनुकूल कर लेते हैं, जिससे भारत के उद्योगों के हित के प्रतिकूल आयात किया जाता है। निर्यात पर लगाए गए टैक्सों ने हमारे छोटे-छोटे ही नही बड़े उद्योगों को भी आघात पहुंचाया है। कर नीति भी मध्यम वर्ग को समाप्त कर रही है। बहुसूत्री बिक्री कर का परिणाम बिचौलियों को समाप्त कर रहा है। फैक्टरी ऐक्ट तथा श्रमिकों संबंधी जो कानून बनाए गए हैं, उन्हें छोटे-छोटे कारखानों पर भी इस प्रकार लागू किया जाता है, जिसमें न तो श्रमिकों का लाभ होता है और न उद्योगों का। सरकारी क़ानूनों के मातहत कागजी कार्रवाई तथा भ्रष्टाचार ने उत्पादन व्यय इतना बढ़ा दिया है कि छोटे-छोटे उद्योग खत्म होते जा रहे हैं। नियंत्रण से भी सबसे अधिक धक्का मध्य वित्त लोगों को ही लगा है। उसका व्यवहार भी बड़े-बड़े उद्योगपतियों के हित में तथा खुदराफ़रोशों को घातक ही होता है। पंचवर्षीय योजना में भी इस बेकारी को दूर करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया।
भारत की समस्या का हल प्रथम तो शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन कर बेकारों को शिक्षित करना है। आवश्यकता है कि उन्हें टेक्निकल शिक्षा दी जाए। जो डिग्रियां ले चुके हैं, उन्हें भी थोड़े दिनों की कोई ट्रेनिंग देकर उत्पादन के योग्य बनाया जा सकता है। उनको केवल शिक्षा देने से ही काम नहीं चलेगा, बल्कि इस प्रकार शिक्षा प्राप्त नवयुवकों की सहकारी समितियां बनाकर उनसे छोटे-छोटे उद्योग प्रारंभ करवाए जाएं। इनके माल के विपणन का भी प्रबंध सरकार को करना होगा। यदि इस प्रकार व्यापक रूप से छोटे-छोटे धंधे खुलवाए जाएं तथा उनको शहरों मे केंद्रित करने के बजाय गांवों में विकेंद्रित किया जाए तो देश की आर्थिक ही नहीं, सांस्कृतिक एवं सामाजिक समस्या भी सुलझ जाएगी। गांव और शहरों के बीच की खाई ही इस समस्या की जड़ में है। उसे मिटाना ही होगा। बिना पढ़ा किंतु आर्थिक दृष्टि से कमाऊ वर्ग के लिए हमें शिक्षा एवं समाज केंद्रों की स्थापना करनी होगी। इन केंद्रों में पढ़े और अनपढ़ सबके मिलन की व्यवस्था करनी आवश्यक है। 4 रुपए रोज़ कमाने वाला रिक्सा वाला यद्यपि 72 रुपए के बाबूजी से आर्थिक दृष्टि से अच्छा है, किंतु अभी ऐसा कोई अवसर नहीं, जहां दोनों समान भूमि पर मिल सकें। एक ओर अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे लोगों की संस्कृति और सभ्यता की गलत धारणा को बदलना होगा तो दूसरी ओर अनपढ़ को भी सुसंस्कृत बनाना होगा।
भारतीय जनसंघ यद्यपि निचली श्रेणी के लोगों की ओर से आखें बंद नहीं करता, फिर भी वह मध्य वित्त वर्ग की समस्या को देश की प्रमुख समस्या मानता है। आज के करोड़ों किसान-मज़दूर, छोटे तथा उजड़े हुए जमींदार, कर्मचारियों आदि के सामने की समस्याओं को समन्वित रूप से सुलझाया जाए तभी देश का कल्याण होगा। स्वदेशी के व्यापक प्रसार, विकेंद्रित अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय एवं टेक्निकल शिक्षा तथा गांव-गांव और मुहल्लों-मुहल्लों में समाज केंद्रों की स्थापना से यह संभव हो सकेगा।
– पांचजन्य, दिसंबर 31, 1952