संस्कृति का अर्थ

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दीनदयाल उपाध्याय

म लोगों ने यहां संघ कार्य के अनेक रूपों का विचार किया होगा। एक प्रश्न हमारे सामने यह भी आता है कि समय-समय पर हम कहते हैं कि हमारा कार्य सांस्कृतिक अधिष्ठान पर खड़ा है। इस दृष्टि से यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही है कि वह संस्कृति क्या है? संघ की प्रतिज्ञा में भी हम ऐसा कहते हैं, ‘हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति की रक्षा कर हिंदू समाज की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए हम संघ के घटक बने हैं।’ बिना संस्कृति संरक्षण के राष्ट्र की उन्नति नहीं हो सकती, यह भी हम स्वीकारते हैं।

आख़िर संस्कृति है क्या? हम यह भी देखते हैं कि संस्कृति के नाम पर आज देश में बहुत से कार्य प्रारंभ हो गए हैं। हर कहीं हम Cultural progress का नाम सुनते हैं। हमारे कलाकार सांस्कृतिक शिष्टमंडलों के रूप में विदेश जाते हैं, अन्य देशों से हम संस्कृति का संबंध जोड़ते हैं आदि। कहने का तात्पर्य यह कि हम नाच-गान को ही संस्कृति मान बैठते हैं।

भारत के विचारकों के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या गाना, नाचना, नाटक खेलना मात्र ही संस्कृति है। यदि यही संस्कृति की परिभाषा है तो इसका प्रचार हमारे पूर्वज ऋषियों, विद्वानों, स्वामी विवेकानंद जैसे लोगों द्वारा न होकर फ़िल्म अभिनेता तथा अभिनेत्रियों द्वारा ही होगा।

संस्कृति शब्द को आज ग़लत अर्थ ही दिया गया है। यह अज्ञानवश हो सकता है और जानबूझकर भी। जानबूझकर इसलिए कि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए वे संस्कृति शब्द का उपयोग उन लोगों में ग़लत धारणा पैदा करके अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। जैसे डालडा को घी की संज्ञा देने से यह बात स्पष्ट है। घी शब्द के बारे में लोगों की धारणा अच्छी है। इसलिए डालडा के साथ साफ़ किया हुआ तेल-ऐसा न जोड़कर घी शब्द जोड़ दिया गया है। कुछ समय उपरांत लोग इस डालडा को ही वास्तविक घी समझकर इसका उपयोग करने में लज्जा महसूस नहीं करेंगे। ठीक यही बात संस्कृति के संबंध में है। संस्कृति के प्रति जिनकी श्रद्धा है, उन्हें ग़लत रास्ते पर डालने के लिए इस नवीन संस्कृति का प्रचार किया जा रहा है। राष्ट्रीयता के संबंध में भी यही बात हुई । हमें Indian Nationalism की भ्रांत धारणा दी गई और कहा गया कि मुसलमान, ईसाई सभी यहां के राष्ट्रीय हैं। सिक्खों को यह ग़लत धारणा दी गई कि वे हिंदू नहीं हैं आदि।

आज सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बारे में इसी कारण लोगों की कल्पना नाचने-गाने की ही हो गई है। एक व्यक्ति ने पूछा कि आप कहते हैं कि हमारा कार्य सांस्कृतिक है, परंतु हमें तो ऐसा दिखाई नहीं देता, क्योंकि वहां तो नाच-गाना होता नहीं। फिर मैंने व्यंग्य कसते हुए कहा कि जिस प्रकार नाचने-गाने में वे स्वर-ताल का ध्यान रखते हैं, इसी प्रकार संघ के कार्यक्रमों में एक कहने पर बायां पैर और दो कहने पर दायां पैर निकलता है और एक ताल के अनुसार कार्य होता है, इसलिए यह भी सांस्कृतिक हुआ।

संस्कृति के पीछे क्या भाव है, यह समझना कुछ कठिन है। संस्कृति शब्द का प्रयोग वेदों को छोड़कर अन्य प्राचीन वाङ्मय में नहीं हुआ। संस्कृति को धर्म के अंतर्गत ही मान लिया गया था, परंतु आज संस्कृति शब्द का व्यापक प्रचार होने के कारण लोग इस शब्द को सुनकर चौंकते नहीं। कुछ लोगों ने इसे Culture के अनुवाद के रूप में स्वीकार किया है। यह भी संभावना हो सकती है कि यह शब्द स्वतंत्र रूप से विकसित हुआ हो। संस्कृति से मिलता-जुलता संस्कार शब्द हमारा पूर्व परिचित शब्द है। हमारे यहां सोलह संस्कार होते हैं, संस्कारों से मनुष्य बनता है, बिना संस्कार के वह पशु समान है-ऐसा बराबर सुनने में आता है। साधारणतया हम कह सकते हैं कि जो बाह्य वातावरण है, उसका मनुष्य पर जो परिणाम होता है, उसे हम संस्कार (Impression) कह सकते हैं।

परंतु संस्कार अच्छे और बुरे दोनों हो सकते हैं। किसी को चोरी की आदत लग जाए तो हम कहेंगे, उस पर बुरे संस्कार पड़े हैं। परंतु जब हम संस्कार कहते हैं तो उससे हमारा अभिप्राय अच्छे संस्कार से ही होता है। बुरे संस्कारों के लिए हम कुसंस्कार शब्द का प्रयोग करेंगे। जैसे चरित्रवान् कहने से हमारा आशय अच्छे चरित्र वाले व्यक्ति से होता है, जबकि बुरे चरित्र वाले व्यक्ति के लिए हम चरित्रहीन शब्द का प्रयोग करते हैं।

अतः संस्कृति का अर्थ हुआ, अच्छे संस्कारों का परिणाम (प्रभाव)। मलयालम भाषा में हिंदू संस्कृति के लिए हिंदू संस्कार शब्द का प्रयोग होता है। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि किन संस्कारों को हम अच्छा कहेंगे और किनको बुरा। इसकी व्याख्या करना सरल नहीं। पर एक छोटी सी कसौटी तो है। वह यह कि समाज के ध्येय के लिए जो पोषक है, वह अच्छा और जो बाधक है, वह बुरा। जैसे यदि हमारा लक्ष्य दिल्ली जाना है, तो जो रेलगाड़ी या मोटरगाड़ी उधर ले जाने में सहायक हो, वह अच्छी और जो विपरीत दिशा में ले जानेवाली है, वह बुरी।

परंतु दूसरा प्रश्न उत्पन्न होता है कि ध्येय क्या है? इस संबंध में हम इतना जानते हैं कि हमारी जो एकात्मकता है, एकीकरण है, इसकी अनुभूति ही हमारा ध्येय है। जब सब लोग एकता का अनुभव करें, तभी समाज अथवा राष्ट्र बनता है। यदि हम राष्ट्र के नाते जीवित रहना चाहते हैं तो एकात्मकता की अनुभूति जिससे होगी, वही हमारा ध्येय होगा।

यदि पांव में कांटा चुभ जाए और पता न लगे कि कहां चुभा है तो चिंता होने लगती है। शरीर के कण-कण की जब तक ठीक अनुभूति रहती है, तब तक ठीक है, परंतु जब बेहोशी आदि में शरीर का ज्ञान नहीं रहता, क्रियाओं, चेष्टाओं का ज्ञान नहीं रहता तो वह स्थिति चिंताजनक होती है और सारा शरीर गया, ऐसा लगने लगता है। जैसे लकवे में हाथ होते हुए भी हाथ की क्रिया रुक जाती है, हाथ की अनुभूति नहीं होती। जब तक शरीर में चेतना है, अंगों का संबंध बराबर बना रहता है। तभी तक हममें सामर्थ्य है, जीवन है। इसी प्रकार राष्ट्र रूपी शरीर में चेतना बनाए रखना आवश्यक है। अतः जिन कारणों से राष्ट्र में चेतना का निर्माण होता है, वे अच्छे और दूसरे बुरे।

प्रत्येक राष्ट्र में राष्ट्रीयता की भावना जिससे बनी रहे, वही संस्कृति का आधार माना जाता है। संस्कृति राष्ट्र की आत्मा है। आत्मा निकल जाने के पश्चात् जैसे सब अंग-प्रत्यंग निश्चेष्ट हो जाते हैं। उसी प्रकार की अवस्था संस्कृति का लोप हो जाने से राष्ट्र की होती है। जैसे यूनान और मिस्र का प्राचीन राज्य समाप्त हो गया। इसका यह अर्थ तो नहीं कि वहां की भूमि, नदियां, पर्वत, व्यक्ति आदि नष्ट हो गए। ये वस्तुएं तो ज्यों-की-त्यों बनी रहती हैं, परंतु व्यक्ति को एकसूत्र में बांधने की जो शक्ति संस्कृति में है, वह शक्ति समाप्त हो जाती है। लकड़ियों को सूत के धागे से बांधा जा सकता है परंतु व्यक्ति-व्यक्ति को बांधने वाला सूत्र संस्कृति ही है। यह सूत्र वर्तमान प्राणियों के अतिरिक्त हमारा संबंध हमारे पूर्वजों अर्थात् राम, कृष्ण, शिवा, प्रताप, गोविंद सिंह आदि से तथा आगे जन्म लेनेवालों से भी जोड़ देता है। इसी के बूते पर राष्ट्र टिक सकता है। अतः राष्ट्र रूप में जीवित रहने के लिए यही संस्कृति प्राप्तव्य है। अतः सिद्ध हुआ कि सारे समाज को आपस में जोड़ने वाला नाता संस्कृति है। जिन कार्यक्रमों से यह नाता जुड़ता है, वह संस्कार तथा जिन कार्यों से यह नाता टूटने लगता है, वे कुसंस्कार।

डाकुओं में जो स्वार्थ के कारण एकता है, क्या उसे भी संस्कृति मानें? उत्तर मिलेगा-’नहीं।’ कुछ देशों की संस्कृति का आधार यद्यपि यह भी है। जैसे अरब में मुसलमानों का संगठन लूट-खसोट के आधार पर ही किया; इसी प्रकार इंग्लैंड भी सामूहिक स्वार्थ के नाम पर ही खड़ा हुआ।

परंतु हमने स्वार्थ के आधार पर एकता खड़ी नहीं की। यही हमारी और दूसरों की संस्कृति में अंतर है। जैसे मां से प्रेम करने के भिन्न-भिन्न आधार हो सकते हैं। इसी प्रकार विवाह के भी भिन्न आधार हो सकते हैं। एक यह कि विवाह दो प्राणियों का एकात्मकता के नाते आगे बढ़ना इसलिए है कि घर की देखभाल के लिए पत्नी मिल जाएगी। इसी प्रकार परिवार में हमारे माता-पिता भी शामिल होंगे। परंतु यूरोप में परिवार में मां-बाप नहीं होते।

जीवन में सभी चीज़ों की ओर देखने की हमारी दृष्टि कुछ भिन्न है। कुछ राष्ट्रों में ईमानदारी को व्यापार के लिए सर्वोत्तम नीति माना जाता है, परंतु हम इसे व्यापार की नीति के रूप में नहीं अपितु जीवन की नीति के रूप में अपनाना चाहते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग रुचि होती है। यह रुचि भिन्नता मूलतः सब प्राणियों में विद्यमान है। इसी प्रकार राष्ट्रों में भी रुचि भिन्नता है, अपनी-अपनी विशेषता है। सबके आधार भिन्न-भिन्न रहते हैं। इसके कारण हमारे देश में भी कुछ चीजें हमें रंजित करती हैं और कुछ नहीं। हमारी विशेष प्रवृत्ति है, जिसके आधार पर हम संगठन करते हैं। वह प्रवृत्ति स्वार्थ की नहीं, निस्स्वार्थ भाव की है।

(जून 12, 1959, संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : दिल्ली)