राष्ट्र जीवन की समस्याएं

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पं. दीनदयाल उपाध्याय 

भारतीय जनसंघ के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता पं दीनदयाल उपाध्याय कुशल संगठनकर्ता एवं मौिलक विचारक थे। देशभर में उनकी जन्मशताब्दी वर्ष (2016-17) के अवसर पर संगोिष्ठयों का आयोजन एवं पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। कमल संदेश में भी हम उनके द्वारा लिखे गए विचारशील लेखों को लगातार प्रस्तुत कर रहे हैं। निम्न लेख 1962 में प्रकािशत पुस्तक ‘राष्ट्र चिंतन’ से साभार (प्रथम भाग गतांक में प्रकाशित हो चुका है) प्रस्तुत है।

संस्कृतियों का संघर्ष :

ज भी भारत में प्रमुख समस्या सांस्कृतिक ही है। वह भी आज दो प्रकार से उपस्थित है, प्रथम तो संस्कृति को ही भारतीय जीवन का प्रथम तत्त्व मानना तथा दूसरे यदि इसे मान लें तो उस संस्कृति का रूप कौन सा हो? विचार के लिए यद्यपि यह समस्या दो प्रकार की मालूम होती है, किंतु वास्तव में है एक ही। क्योंकि एक बार संस्कृति का जीवन को प्रमुख एवं आवश्यक तत्त्व मान लेने पर उसके स्वरूप के संबंध में झगड़ा नहीं रहता, न उसके संबंध में किसी प्रकार का मतभेद ही उत्पन्न होता है। यह मतभेद तो तब उत्पन्न होता है जब अन्य तत्त्वों को प्रधानता देकर संस्कृति को उसके अनुरूप उन ढाँचों में ढ़कने का प्रयत्न किया जाता है।

इस दृष्टि से देखें तो आज भारत में एक-संस्कृतिवाद, द्वि-संस्कृतिवाद तथा बहुसंस्कृतिवाद के नाम से तीन वर्ग दिखाई देते हैं। एक-संस्कृतिवाद के पुरस्कर्ता भारत में केवल एक ही भारतीय संस्कृति का अस्तित्व मानते हैं तथा अन्य संस्कृतियों का या तो अस्तित्व ही मानने को तैयार नहीं हैं या उसके लिए आवश्यक समझते हैं कि वह भारतीय संस्कृति में विलीन हो जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा कांग्रेस में श्री पुरुषोत्तमदास टंडन प्रभृति व्यक्ति इसी एक-संस्कृतिवाद के पोषक हैं।

द्वि-संस्कृतिवादी :

द्वि-संस्कृतिवादी दो प्रकार के हैं। एक तो स्पष्ट तथा दूसरे प्रच्छन्न। एक वर्ग भारत में स्पष्टतया दो संस्कृतियों का अस्तित्व मानता है तथा उनको बनाए रखने की मांग करता है। मुस्लिम लिगी इसी मत के हैं। ये हिंदू और मुसलिम दो संस्कृतियों को मानते हैं तथा उनका आग्रह है कि मुसलमान अपनी संस्कृति की रक्षा अवश्य करेगा। दो संस्कृतियों के आधार पर ही उन्होंने दो राष्ट्रों का सिद्धांत सामने रखा, जिसके परिणाम को हम पिछले दो वर्षों में भली-भाँति अनुभव कर चुके हैं। प्रच्छन्न द्वि-संस्कृतिवादी वे लोग हैं जो स्पष्टतया तो दो संस्कृतियों का अस्तित्व नहीं मानते, भूल से एक संस्कृति एवं एक राष्ट्र का ही राग अलापते हैं, किंतु व्यवहार में दो संस्कृतियों को मानकर उनका समन्वय करने का असफल प्रयत्न करते हैं। वे ये तो मान लेते हैं कि हिंदू और मुसलमान दो संस्कृतियाँ हैं, किंतु उनको मिलाकर एक नवीन हिंदुस्तानी संस्कृति बनाना चाहते हैं। अत: हिंदी-उर्दू का प्रश्न वे हिंदुस्तानी बनाकर हल करना चाहते हैं तथा अकबर को राष्ट्र पुरुष मानकर अपने राष्ट्र के महापुरुषों के प्रश्न को हल करना चाहते हैं। ‘नमस्ते’ और ‘सलामवालेकुम’ का काम ये ‘आदाब अर्ज’ से चला लेना चाहते हैं। यह वर्ग कांग्रेस में बहुमत में है। दो संस्कृतियों के मिलाने के अब तक असफल प्रयत्न हुए हैं, किंतु परिणाम विघातक ही रहा है। मुख्य कारण यह है कि जिसको मुसलिम संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है वह किसी मजहब की संस्कृति न होकर अनेक अभारतीय संस्कृतियों का समुच्चय मात्र है। फलत: उसमें विदेशीपन है, जिसका मेल भारतीयत्व से बैठना कठिन ही नहीं, असंभव भी है। इसलिए यदि भारत में एक संस्कृति एवं एक राष्ट्र को मानना है तो वह भारतीय संस्कृति एवं भारतीय हिंदू राष्ट्र जिसके अंतर्गत मुसलमान भी आ जाते हैं, के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता।

बहु-संस्कृतिवादी :

बहु-संस्कृतिवादी वे लोग हैं जो प्रांत की निजी संस्कृति मानते हैं तथा उस प्रांत को उस आधार पर आत्मनिर्णय का अधिकार देकर बहुत कुछ अंशों में स्वतंत्र ही मान लेते हैं। साम्यवादी एवं भाषानुसार प्रांतवादी लोग इस वर्ग के हैं। वे भारत में सभी प्रांतों में भारतीय संस्कृति की अखंड धारा का दर्शन नहीं कर पाते।

संस्कृति से भिन्न जीवन का आधार :

उपरोक्त तीनों प्रकार के वर्गों का प्रमुख कारण यह है कि उनके सम्मुख संस्कृति-प्रधान जीवन न होकर मजहब, राजनीति अथवा अर्थनीति प्रधान जीवन की है। मुसलिम लीग ने अपने अमूर्त तत्त्व का आधार मुसलिम मजहब समझकर ही भिन्न मुसलिम संस्कृति एवं राष्ट्र का नारा लगाया तथा उसके आधार पर ही अपनी सब नीति निर्धारित की। कांग्रेस का जीवन एवं लक्ष्य राजनीति प्रधान होने के कारण उसने अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए तथा शासन चलाने के लिए सब वर्गों को मिलाकर खड़ा करने का विचार किया, जिसके कारण अप्रत्यक्ष रूप से वर्गों को मिलाकर खड़ा करने का विचार किया, जिसके कारण अप्रत्यक्ष रूप से यह भी द्वि-संस्कृतिवाद का शिकार बन गईं। बहु-संस्कृतिवादी जीवन को अर्थ प्रधान मानते हैं, अत: वे आर्थिक एकता की चिंता करते हुए सांस्कृतिक एकता की ओर से उदासीन रह सकते हैं।

एक राष्ट्र और एक संस्कृति :

केवल एक-संस्कृतिवादी लोग ही ऐसे हैं जिनके समक्ष और कोई ध्येय नहीं है तथा जैसाकि हमने देखा, संस्कृति ही भारत की आत्मा होने के कारण वे भारतीयता की रक्षा एवं विकास कर सकते हैं। शेष सब तो पश्चिम का अनुकरण करके या तो पूँजीवाद अथवा रूस की तरह आर्थिक प्रजातंत्र तथा राजनीतिक पूँजीवादी का निर्माण करना चाहते हैं। अत: उनमें सब प्रकार की सद्भावना होते हुए भी इस बात की संभावना कम नहीं है कि उनके द्वारा भी भारतीय आत्मा का तथा भारतीयत्व का विनाश हो जाए। अत: आज की प्रमुख आवश्यकता तो यह है कि एक-संस्कृतिवादियों के साथ पूर्ण सहयोग किया जाए। तभी हम गौरव और वैभव से खड़े हो सकेंगे तथा भारत-विभाजन जैसी भावी दुर्घटनाओं को रोक सकेंगे।

                                                                                                                                                                                                                       समाप्त