राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण : संप्रभुता बनाम वोट-बैंक

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अरुण जेटली

संप्रभु राज्य के दो सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं- उनका क्षेत्र और उसके नागरिक। किसी भी सरकार का मुख्य कर्तव्य देश की सीमाओं की रक्षा करना, किसी भी अपराध को रोकने और अपने नागरिकों के जीवन को सुरक्षित बनाना है। जम्मू-कश्मीर में संप्रभुता की रक्षा स्वतंत्र भारत के समक्ष एक बड़ी चुनौती रही है। भारत की स्वतंत्रता और फिर विभाजन के समय, असम राज्य पाकिस्तान के लिए भी एक गंभीर मुद्दा था। उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि कश्मीर की तरह, असम भी स्वतंत्र भारत का हिस्सा बन गया है। जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी पुस्तक ‘मिथ ऑफ़ इंडिपेंडेंस’ में लिखा था:
“यह बात गलत है कि भारत और पाकिस्तान के बीच केवल कश्मीर ही एकमात्र मुद्दा है, जो उनको विभाजित करता है, लेकिन निस्संदेह यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा जरूर है। कश्मीर विवाद के साथ साथ असम और पूर्वी पाकिस्तान से लगते जिले भी महत्व रखते हैं। इन इलाकों पर भी पाकिस्तानों अपनी दावेदारी करता है।” इसी प्रकार वर्ष 1971 से पहले, पूर्वी पाकिस्तान के नेता शेख मुजीबुर रहमान ने अपनी पुस्तक ‘पूर्वी पाकिस्तान, इट्स पॉप्युलेशन एंड एकोमोनिक्स’ में लिखा था:

“क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान के विस्तार के लिए पर्याप्त भूमि नहीं है और असम में प्रचुर मात्रा में वन और खनिज संसाधन, कोयला, पेट्रोलियम इत्यादि हैं, इसलिए पूर्वी पाकिस्तान में असम को सम्मिलित किया जाना चाहिए, ताकि इस प्रांत को भी वित्तीय और आर्थिक रूप से मजबूत बनाया जा सके।”
आजादी के बाद से ही भारत में पूर्वी पाकिस्तान से अवैध लोगों का आना जारी रहा। वहीं जातीय और भाषाई समानता एवं धार्मिक समानता के कारण, इन लोगों का असम में आश्रय ढूंढना भी आसान हुआ।

भारत के नागरिक कौन हैं?

भारत की नागरिकता का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 तक में किया गया है। इन प्रावधानों को पूरा नहीं करने वाले व्यक्ति को नागरिकता नहीं दी जा सकती है। नागरिकता से संबंधित कानून केवल उन लोगों को ही भारतीय नागरिक मानता है जो जन्म से, पंजीकरण से, वंश और प्राकृतिककरण से भारत में रहने की शर्तों को पूरा करते हों। धारा 6 (ए) नागरिकता के विशेष प्रावधानों से संबंधित है, जिसमें ‘1985 असम समझौते’ के तहत नागरिकता का उल्लेख मिलता है।

अवैध घुसपैठ के परिणाम

बीस साल पहले, 6 मई, 1997 को तत्कालीन गृह मंत्री श्री इंद्रजीत गुप्ता ने संसद को बताया कि भारत में रहने वाले 10 मिलियन से अधिक लोग घुसपैठ कर यहां पहुंचे थे, जिनमें से 5.4 मिलियन पश्चिम बंगाल और 4 मिलियन असम में रह रहे थे। यहां कहने की जरूरत नहीं है कि इस आंकड़े में इजाफा ही हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने असम के वर्तमान मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल बनाम यूनियन आॅफ इंडिया (2005) के मामले में विश्लेषण करते हुए पाया:

‘बांग्लादेश से बड़े पैमाने पर हो रही घुसपैठ के खतरनाक परिणाम असम के लोगों और भारत को भुगतने पड़ रहे हैं। ऐसा करने के तरीके में धर्मनिरपेक्षता की किसी भी गलत धारणाओं को आड़े नहीं आने दिया जा सकता। बांग्लादेश से घुसपैठ ने असम के मूल निवासियों को ही राज्य में अल्पसंख्यक बना दिया है। इसके चलते उनका सांस्कृतिक अस्तित्व खतरे में है, उनका राजनीतिक नियंत्रण कमजोर हुआ है और उनके रोजगार के अवसरों को सीमित कर दिया है। असम में इस भयानक जनसांख्यिकीय आक्रमण के कारण निचले असम के जिलों को नुकसान हो सकता है। इस घुसपैठ के कारण असम के ये जिले एक मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में तब्दील होते जा रहे हैं। ऐसी आशंका जताई जा सकती है कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब इन जिलों का विलय बांग्लादेश में करने की मांग उठने लगे। अंतरराष्ट्रीय इस्लामी कट्टरतावादी सोच इस मांग को बल प्रदान कर सकती है। इस संदर्भ में यह बताना बेहद उचित होगा कि बांग्लादेश पहले ही धर्मनिरपेक्षता को त्याग कर इस्लामी राज्य बनने का फैसला ले चुका है। इस क्रम में निचले असम का नुकसान भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्र के लिए गंभीर चुनौती पेश करेगा। साथ ही, उस क्षेत्र के समृद्ध प्राकृतिक संसाधन का नुकसान पूरे राष्ट्र का नुकसान होगा।”

इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के दो समझौते

साल 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के बाद, भारतीय और बांग्लादेशी प्रधानमंत्रियों के मध्य फरवरी, 1972 को एक समझौता हुआ। इसके बाद 30 सितंबर, 1972 को भारत सरकार ने अपने आदेश में कहा कि जो बांग्लादेशी नागरिक 25 मार्च, 1971 से पहले भारत में दखिल हो चुके है उनके विषय में पता लगाया जाएगा, लेकिन जो लोग इस तारीख को या उसके बाद भारत में प्रवेश करते हैं उन्हें वापस उनके वतन भेज दिया जाएगा। इंदिरा गांधी की भारत और उसके नागरिकों के प्रति यही प्रतिबद्धता थी।

वही राजीव गांधी सरकार ने असम समझौते पर 15 अगस्त 1984 को हस्ताक्षर किए, जिसमें तीन श्रेणियों का जिक्र है। इसके मुताबिक साल 1.1.1966 से पहले भारत में आने वाले लोगों का नाम भारत की मतदाता सूची में बना रहेगा और उन्हें नियमित किया जाएगा। वही ऐसे विदेशी नागरिक जो 1.1.1966 से 24.3.1971 के मध्य भारत में दाखिल हुए उनका निबटारा विदेशी अधिनियम और विदेशी ट्रिब्यूनल 1964 के आदेश में दिए गए प्रावधानों के तहत होगा। अगर ऐसा किसी व्यक्ति के संबंध में पता चलाता है तो उनका नाम मतदाता सूची से हटा दिया जाएगा और उस व्यक्ति को अपना पंजीकरण विदेशी नागरिक के रूप कराना होगा। वही ऐसे व्यक्ति जो 25.3.1971 को या उसके बाद भारत में दाखिल हुए है, उनके खिलाफ कानून कानूनी कार्रवाई की जाएगी। “ऐसे लोगों को निष्कासित करने के लिए तत्काल और व्यावहारिक कदम उठाए जाएंगे।”

इस प्रकार इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकारों ने 25 मार्च, 1971 के बाद भारत आने वाले घुसपैठियों की पहचान करने और उनको उनके मुल्क वापिस भेजने की प्रतिबद्ध को देश के समक्ष रखा।

विदेश अधिनियम कानून के तहत नागरिकता का दावा करने वाला व्यक्ति ही इस संबंध में साक्ष्य पेश कर सकता है। ऐसे में गुपचुप तरीके से भारतीय क्षेत्र में जो व्यक्ति प्रवेश करता है, उसकी पहचान स्थापित करना राज्य के लिए लगभग असंभव होता है। हालांकि, कांग्रेस सरकार ने आईएमडीटी अधिनियम कानून बनाया, जिसमें नागरिकता के सबूतों के संदर्भ में स्पष्टता नहीं थी। यही कारण है कि इस कानून के लागू होने के बाद से ही ऐसे घुसपैठियों की पहचान करना और उनकों वापिस भेजना लगभग असंभव हो गया है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने 12 जुलाई, 2005 को आईएमडीटी अधिनियम कानून को असंवैधानिक बताते हुए इसको निरस्त कर दिया था और ऐसे मामलों में विदेशी अधिनियम के तहत कार्रवाई करने का आदेश पारित किया था। इसी के बाद असम के अलग—अलग जिलों में नागरिकों की पहचान करने का काम किया गया।

पश्चिम बंगाल भी बहुत पीछे नहीं है

पश्चिम बंगाल की मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने लोकसभा में 4.8.2005 को इस विषय पर अपनी बात कुछ इस तरह रखी:

“बंगाल में घुसपैठ अब आपदा बन गई है। आप सूची में भारतीय नागरिकों के साथ—साथ बांग्लादेशियों के नाम भी देख सकते हैं। मेरे पास बांग्लादेशी और भारतीय मतदाता सूची दोनों हैं। यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। मैं जानना चाहता हूं कि सदन में इस पर कब चर्चा की जाएगी?”

भारत की संप्रभुता अपने राजनीतिक प्रवचनों के कारण भारी कीमत चुका रही है। हालांकि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने 1972 और 1985 में विदेशियों को हटाने और निर्वासन के लिए एक असाधारण निर्णय लिया, लेकिन राहुल गांधी का नजरिया इसमें विरोधाभास पैदा करता हैं। इसी प्रकार, 2005 में भाजपा सहयोगी रही ममता बनर्जी ने इस मुद्दे को गंभीरता से लिया था, लेकिन अब संयुक्त मोर्चे के नेता के रूप में, वह विपरीत बात करती है। क्या भारत की संप्रभुता इस तरह के चंचल दिमाग और नाजुक हाथों से तय की जा सकती है?

इसका नतीजा यह हुआ कि 1961 और 2011 के बीच 50 वर्षों में असम में बहुसंख्यक समुदाय 2.4 गुना बढ़ा है, वहीं इसी दौरान अल्पसंख्यक समुदाय की जनसंख्या में 3.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई है। इन राज्यों की जनसंख्या पर इसका प्रभाव साफ देखा जा सकता है।

एक नागरिक, शरणार्थी और घुसपैठिए के बीच अंतर

एक नागरिक और शरणार्थी के बीच एक मौलिक अंतर है। संविधान द्वारा नागरिकता को नियंत्रित किया जाता है। जो व्यक्ति कुछ परिस्थितियों के कारण अपने देश छोड़ने और उत्पीड़न के डर से दूसरे देश में शरण लेते हैं, वे शरणार्थी हैं। यह राष्ट्र मानवता के आधार पर, इन शरणार्थियों को जीवन जीने के लिए मूलभूत सुविधाएं प्रदान करते है। शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान नहीं की जाती हैं। शरणार्थी मतदाता नहीं बनते हैं। माना जा सकता है कि साल 1971 से पहले के प्रवासियों ने उत्पीड़न के कारणों भारत में शरण ली, लेकिन यह बात 1971 के बाद आने वाले लोगों पर लागू नहीं होती है, उनके इस कदम को अवैध घुसपैठ ही माना जाऐगा। एक तीसरी श्रेणी है जो न तो नागरिक हैं और न ही शरणार्थी हैं, जो केवल आर्थिक अवसरों की तलाश में किसी भी देश में जाते है। ये अवैध प्रवासी हैं। वह जिस भी देश में जाते है, उसे वह घुसपैठ ही कहा जाएगा। दुनिया के सबसे उदार माने जाने वाले न्यायाधीशों में से एक लॉर्ड डेनिंग ने अपनी पुस्तक ‘द ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ’ के भाग 5 की प्रस्तावना में ‘प्रवेश और निकास’ पर अपना नजरिया देते हुए लिखा है, जिसका पहला पैरा कुछ इस प्रकार है:

“हाल के दिनों में इंग्लैंड पर न ही दुश्मनों और न ही दोस्तों द्वारा हमला किया गया है, लेकिन यह हमला ऐसे लोगों द्वारा किया गया है जो इंग्लैंड को स्वर्ग के रूप में देखते हैं। यह वह लोग है जिनके यहां गरीबी है, बीमारी है और रहने के लिए मकान भी नहीं है। वहीं इंग्लैंड में सामाजिक सुरक्षा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा और गारंटीकृत आवास हैं और इन सभी सुविधाओं के लिए इनकों कोई कीमत भी चुकानी नहीं पड़ती। एक बार यहां आने वाला व्यक्ति यह प्रयास करता है कि वह अपने रिश्तेदार को भी यहां पहुंचा दे, इसलिए इनकी जनसंख्या तेजी से बढ़ जाती हैं।”

विडंबना यह है कि लॉर्ड डेनिंग भी इसे आक्रमण कहते हैं। वहीं, यह याद रखना चाहिए कि नागरिकता अवैध घुसपैठ से प्राप्त नहीं की जा सकती। यह केवल संविधान और नागरिकता अधिनियम में निर्धारित शर्तों के तहत प्राप्त होती है।

अनुच्छेद 19 और 21 में दिए गए मौलिक अधिकारों के बीच अंतर

एक निराशाजनक तर्क मानवाधिकार के विषय में दिया जाता है। उत्पीड़न के कारण शरण लेने वाले लोगों के विषय में मानवाधिकार का तर्क दिया जा सकता है, लेकिन अवैध घुसपैठ करने वालों पर यह बात लागू नहीं होती है। ऐसा करने वाले व्यक्तियों का कोई मौलिक अधिकार नहीं होता है। संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 19 को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अनुच्छेद 19 भारत के किसी भी हिस्से में जाने और वहां रहकर कार्य करने की अनुमति देता है, लेकिन यह बात केवल एक नागरिक पर ही लागू होती है। हालांकि, अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता का अधिकार और जीने का हक सभी को प्राप्त है, चाहे वह भारत का नागरिक हो या नहीं। एक नागरिक या गैर नागरिक को जीने के अधिकार और उसकी स्वतंत्रता से केवल उचित कानूनी प्रक्रिया के बाद ही वंचित किया जा सकता है। यह अधिकार उसे भारत का संविधान प्रदान करता है। यह उसका मानवाधिकार है, लेकिन संविधान निर्माताओं ने गैर-नागरिक को भारत के पूरे क्षेत्र में जाने या भारत में किसी भी हिस्से या क्षेत्र में बसने का अधिकार नहीं दिया। जबकि संविधान निर्माताओं ने केवल ‘नागरिकों’ पर ही अनुच्छेद 19 लागू किया है, अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार ‘व्यक्ति’ के लिए उपलब्ध कराए गए थे। इस विभेदन का एक अपना ही तरीका है।

मैंने जो कहा है, उसे दोहराते हुए कहता हूं कि कांग्रेस भारतीय राजनीति में मुख्यधारा की पार्टी थी, लेकिन यह पार्टी अपनी विश्वसनियता खोती जा रही है। फिर चाहें ‘टुकड़े-टुकड़े’ गिरोह का पक्ष लेना हो। वहीं, अब यह पार्टी भारत की संप्रभुता से समझौता कर रही है। राहुल गांधी और ममता बनर्जी जैसे नेताओं को यह महसूस करना चाहिए कि भारत की संप्रभुता एक नाटक की बात नहीं है। संप्रभुता और नागरिकता भारत की आत्मा है। आयातित वोट-बैंक नहीं हैं।

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