राष्ट्रीयता कभी मानवता विरोधी नहीं होती

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

गतांक का शेष…

राष्ट्र अपनी अभिव्यक्ति के लिए अनेक संस्थाएं बनाता है, उसमें राज्य भी एक है। सामान्य लोग राज्य और राष्ट्र में अंतर नहीं करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में राष्ट्रों के प्रतिनिधि नहीं तो राज्यों के प्रतिनिधि हैं। कारण यह है कि हर राष्ट्र का प्रतिनिधित्व भी राज्यों के द्वारा ही होता है। यह राज्य बना कैसे? एक समय ऐसा भी था, जब राज्य नहीं थे, सतयुग में राज्य नहीं था। बोल्शेविक भी वह कल्पना करते हैं कि राज्य नहीं रहेगा ‘स्टेट विल विदर अवे’। छोटा उदाहरण है, सामान्यतया सड़क पर बायां चलने का नियम है। इसको मनवाने के लिए पुलिस की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन यदि नियम भंग होने लगे और लोग टकराने लगें या भीड़ अधिक होने लगे तो पुलिस की आवश्यकता होती है।

पुराने जमाने में न कोई राज्य था, न कोई दंड देनेवाला यह सतयुग था, पर बाद में आलस्य प्रमाद आया, तब धर्मानुकूल चलना रुक गया, फिर समाज में जटिलता भी आई उस समय विकार को दूर करने के लिए, अपने लोग अपने धर्म का पालन करते रहे। इसके लिए और जटिलता को सुलझाने के लिए राज्य और राजा की जरूरत होती है। इससे अधिक राज्य का काम भी नहीं है। आज के कानून तो कई बार जटिलता को बढ़ाते हैं। अतः वे सही अर्थ में क़ानून नहीं हैं। राज्य आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने के लिए तथा बाहरी आक्रमण से रक्षा करने के लिए बनाए जाते हैं।

राज्यों का निर्माण राष्ट्रों द्वारा होता है। राज्य राष्ट्र का एक अंग (संस्था) है और भी अनेक संस्थाएं राष्ट्र की आवश्यकता के लिए बनती हैं। राज्य और संस्थाओं से अधिक शक्तिशाली होता है, क्योंकि राष्ट्र के प्रतिनिधित्व का अधिकार राज्य को ही मिलता है। जैसे वकील अपने मुवक्किल का प्रतिनिधित्व करता है। वह न्यायाधीश के सामने मैं शब्द का प्रयोग करता है, परंतु कभी-कभी गलती हो जाती है। वकील प्रतिनिधि के बजाय स्वयं मालिक बन जाता है, यह ग़लत है। इसी प्रकार कभी-कभी राज्य भी अपने अनुसार राष्ट्र को बदलने तथा दबाने का प्रयास करने लगता है, तब गड़बड़ी होने लगती है।

आजकल राजनीति बहुत चलती है। कुछ लोग कहते हैं, सरकार को चाहिए कि संघ को राजनीतिक संस्था घोषित कर दे। आप सब संघ के स्वयंसेवक राजनीति में काम करते हैं, गुरुजी के भाषण भी राजनीति से परिपूर्ण होते हैं। एक कम्युनिस्ट अखबार ने लिखा कि संघ के लोगों ने सन् 1948 में अभिवचन दे दिया था कि हम राजनीति में भाग नहीं लेंगे, लेकिन अब लेने लगे हैं। अतः इन पर पुनः प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।

वास्तव में तो हमने कभी कोई अभिवचन नहीं दिया है। हमने तो एक ही अभिवचन पू. डॉक्टरजी के समय में दिया है कि हमें केवल स्वराज्य ही नहीं चाहिए, लेकिन उसके साथ-साथ उसके मूल में जो राष्ट्र है, उस पर विचार करना आवश्यक है। अन्य लोग जब राज्य की ओर ध्यान दे रहे हैं, हमने राष्ट्र की ओर ध्यान दिया है।

कुछ लोगों ने कहा कि हमें अंग्रेजों से लड़ने के लिए सब लोगों को मिलाकर राष्ट्र बनाना चाहिए। उन्होंने यह नहीं सोचा, हमारा एक राष्ट्र तो यहां पहले से ही है। हमारा अपना राज्य नहीं है, उसको प्राप्त करना है। डॉक्टरजी ने यही सोचा कि राष्ट्र तो अपना है ही, राष्ट्रीय भावना का अभाव हो गया, ‘हम’ कमजोर हो गए। अतः यह राष्ट्रीयता का अलख जगाने का कार्य उन्होंने शुरू किया। देशभक्ति और स्वराज्य की भावना डॉक्टरजी में प्रारंभ से ही थी। पांच वर्ष की आयु में ही उन्होंने स्कूल में बंटनेवाली विदेशी राजा के राज्यारोहण की मिठाई नहीं खाई। नागपुर के किले पर जो यूनियन जैक फहराता था, उसे हटाने के लिए बचपन से ही उन्होंने अपने घर में से किले तक एक सुरंग खोदने का प्रयत्न किया। विदेशी राज्य को हटाने की कितनी उमंग थी उनमें, लेकिन उन्होंने कहा, ‘स्वराज्य से पहले हम स्वराष्ट्र का चिंतन करें, इसके लिए कार्य करें।’ अतः हमारा मुख्य कार्य राष्ट्र का कार्य है। राज्य रहेंगे और जाएंगे, इनमें परिवर्तन भी होंगे। पर राष्ट्र की कल्पनाओं में परिवर्तन नहीं किया जाता। हम चाहें तो संघ के नाम पर चुनाव लड़ सकते हैं। कौन सा क़ानून हमें रोक सकता है। न ऐसा कोई अभिवचन ही हमने दिया है। राजनीति से हम घबराते भी नहीं, हम तो राजनीति में इसलिए भाग नहीं लेते कि हमें राज्य से भी व्यापक और महत्वपूर्ण कार्य राष्ट्र का करना है। राज्य तो राष्ट्र का अंग मात्र है। हम राष्ट्र क़ायम करने को कटिबद्ध हैं।

एक मुनीमजी ने सेठजी की मृत्यु के बाद उनकी सारी संपत्ति को हड़पने की चेष्टा की। कुछ लोग एकत्र हुए। उन्हें समझाया, डराया न्याय और क़ानून का डर दिखाया, तब कहीं कठिनाई में उन्होंने संपत्ति छोड़ी। यह राज्य तो राष्ट्र का मुनीम है। मुनीम मालिक नहीं बन सकता। यदि वह मालिक बनने की चेष्टा करता है तो उसे रोकना हमारा कार्य हैं। हम मुनीम को मालिक नहीं बनने देंगे। मुनीम पर निगाह रखना हमारा काम है। इससे मुनीमजी नाराज होते हैं तो भी निगाह तो हमें रखनी ही पड़ेगी। मुनीमजी को हम मालिक नहीं बनने देंगे और यदि आवश्यक हुआ तो पहले मुनीम को हटाकर दूसरा मुनीम रख लेंगे।
देश में स्वराज्य चाहिए, यह आवश्यक है उसमें रुचि लेना स्वाभाविक है, पर हमारा मुख्य कार्य राष्ट्र में ताकत पैदा करना है। राष्ट्र में शक्ति रही तो सब ठीक होगी। राष्ट्र की प्रगति सर्वोपरि है।

देश में स्वराज्य चाहिए, यह आवश्यक है उसमें रुचि लेना स्वाभाविक है, पर हमारा मुख्य कार्य राष्ट्र में ताकत पैदा करना है। राष्ट्र में शक्ति रही तो सब ठीक होगी

स्वराज्य के तीन गुण बताए गए हैं—

1. राज्य उन लोगों के हाथ में हो, जो उसी राष्ट्र के हों।

2. राष्ट्र के हित में ही कार्य किया जाए।

3. उनमें कार्य करने का सामर्थ्य हो, उनकी निष्पत्ति उनके हाथ में हो।

आज कम्युनिस्ट चीन और रूस के हित तथा विचारधारा से कार्य करते हैं तो यह स्वराज्य नहीं कहा जा सकता। हमारे राज्य के पास जो सामर्थ्य होनी चाहिए, उसकी भी कमी है। अमरीका से गेहूं मिलने पर हमारे खाद्यान्न की पूर्ति होती है, हमारी योजनाओं को चलाने के लिए पैसा तथा मशीनें भी हम अमरीका से मंगवाते हैं, चीन और पाकिस्तान से युद्ध होता है तो हथियार भी अमरीका से मिले, तब हमारा काम चलता है। यह स्थिति उचित नहीं है। इसे हम स्वराज्य की कमी कहेंगे।

स्वराज्य के तीनों गुण तभी विकसित होंगे, जब राष्ट्र चैतन्य होगा। सामर्थ्यशाली होगा। संघ इसी शक्ति की उपासना में लगा है। इस सामर्थ्य को पैदा करना हमारा कार्य है। इसकी साधना में रत रहें और राष्ट्र को शक्तिशाली बनाएं, इसी में राष्ट्र की आत्मा का विकास है।
-संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: मई 27, 1967