प्रकृति, संस्कृति और विकृति

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

‘संस्कृति’ क्या है? इस संबंध में हमें कुछ मूल तत्त्वों पर विचार करना होगा। ‘संस्कृति’ शब्द ‘कृ’ धातु से बना है। ‘कृ’ का अर्थ है ‘कृति’। जो कुछ हम करते हैं, वह सब कर्म ही हमारी ‘कृति’ है। हमारे प्रत्येक कार्य हमारे स्वभाव के अनुसार होते हैं, इसलिए मनुष्य का सामान्य स्वभाव ही उसकी ‘प्रकृति’ है। इस ‘प्रकृति में यदि कुछ बिगाड़ उत्पन्न हो जाए, तो वह उसकी ‘विकृति’ होगी और यदि उसके कार्य में सुधार हुआ तो वह ‘संस्कृति’ हुई। इस प्रकार ‘प्रकृति’, ‘विकृति’ भी हो सकती है और ‘संस्कृति’ भी। ‘संस्कृति’ में दिशा है और गति भी अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर जब हम बढ़ते हैं तो वह ‘संस्कृति’ कहलाएगी और इसके विपरीत ‘विकृति’ होगी। इस प्रकार गतिशील होना या अवगतिशील होना, आगे बढ़ना या पीछे हटना इस बात पर निर्भर है कि हमारा गंतव्य, हमारा लक्ष्य क्या है? हमें जाना कहां है?

जीवन के इस निर्धारित लक्ष्य को भली-भांति पहचानकर आचरण करने में अतीव सुख का अनुभव होता है। इस विपरीत लक्ष्य को समझने के लिए हमें मूल-प्रकृति का ही विचार करना होता है। हमारी मूल प्रकृति हमारे लक्ष्य निर्धारण में ही सहायक होती है और तदनुसार हमें सुख-दुःख की अनुभूतियां होती हैं। लक्ष्यानुरूप होनेवाले कार्यों में सुख तथा लक्ष्य विरुद्ध होनेवाले कार्यों में दुःख होता है। इतिहास में रंतिदेव का क़िस्सा आता है। 49 दिन भूखे रहने के बाद भी उनके हाथ से जब कुत्ता रोटी छीनकर भाग गया, तो वे उसके पीछे इसलिए नहीं दौड़े कि वह उनकी रोटी छीनकर ले भागा है, वरन् वे सब्जी लेकर दौड़े, जिससे कुत्ता सूखी रोटी न खाए। कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें यदि कुत्ता रोटी ले जाए तो उस कुत्ते से रोटी छिनवा लेने में ही आनंद आएगा। भले ही वे स्वयं उस रोटी को न खाएं। इस प्रकार सुखों की अनुभूति में अंतर होता है। अंतर उसकी प्रकृति का द्योतक है, जो परंपरा से रक्त-मांस में प्राप्त होती है। प्रकृति का मूल स्वभाव एक दिन या अवस्था का परिपाक नहीं होता। बीती अनेक शताब्दियां, अनेक पीढ़ियां, पूर्व पुरुषों के अनेक आचरण, जलवायु, प्राकृतिक वायुमंडल और अनेक घटनाओं के संघातों से उत्पन्न सामान्य क्रियाओं के सूक्ष्म प्रभावों से प्रकृति का निर्माण होता है। इस मूल प्रकृति से संबंध विच्छेद नहीं किया जा सकता। अत: संस्कृति का विचार करते समय हमें मूल प्रकृति का ही विचार करना पड़ता है। जाति, धर्म, भूमि, राष्ट्र इतिहास से बनी इस मूल प्रकृति का पालन करने से बहुत कुछ ‘संस्कृति’ इसी में से प्राप्त हो जाती है। इस मूल प्रकृति में समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार कुछ परिष्कार करने की आवश्यकता समझी जा सकती है, किंतु उसका आधार भी मूल प्रकृति ही रहेगी।

मूल प्रकृति को न समझते हुए यदि कोई उपाय योजना की गई, तो संस्कृति तो दूर, कृति ही समाप्त होकर संपूर्ण विनाश उपस्थित हो सकता है। जैसे एक बीज होता है तो उसकी एक विशिष्ट प्रकृति भी होती है। उसे मिट्टी में डालने से अंकुर अवश्य निकलेंगे और जैसा वह बीज होगा, उसके अनुरूप अंकुर निकलेंगे। धीरे-धीरे पौधा बनेगा, वृक्ष बनेगा। माली जो उस बीज की प्रकृति को पहचानता है, बो देता है। एक ओर बीज की प्रकृति में उपस्थित होनेवाली बाधाओं को दूर करता है और दूसरी ओर अधिक अच्छे परिणाम पाने के लिए उचित खाद-पानी की व्यवस्था करता है और पहले से अच्छे फल प्राप्त कर लेता है। किंतु इसके विपरीत कुछ हो तो? जैसे एक शेखचिल्ली का क़िस्सा है। एक शेखचिल्ली था, उसे मोटा-मोटा इतना ज्ञान था कि जैसे बोओ वैसा काटो। उसके पास कुछ भुने हुए चने थे। उसने यह सोचकर अपने पास के सब भुने हुए चने जमीन में वो दिए कि जिससे भुने चनों की अच्छी खेती उसे प्राप्त हो। परिणाम क्या हुआ? उसने चने के बीज की मूल प्रकृति नहीं समझी, अत: पैसे भी खर्च हुए, श्रम भी व्यर्थ गया और मूल में जो कुछ था, उससे भी हाथ धो बैठा। मूल प्रकृति न पहचानकर प्रयत्न करने से ऐसा ही होता है।

मूल प्रकृति का विचार जिस एक प्रश्न के द्वारा सनातन काल से होता आया है, वह है, ‘‘मैं कौन हूं?’’
दुनिया में ऐसे लोग हैं, जो इस प्रश्न का उत्तर अपनी प्रकृति के अनुसार तत्काल देते हैं कि ‘‘मैं शरीर हूं।’’ वे शारीरिक सुख के लिए पागल रहते हैं। उनका कहना है कि कुछ रासायनिक क्रियाओं से शरीर बना है। शरीर और उसका सुख ही सत्य है। किंतु कई बार शरीर के सब सुख उपलब्ध होने के बाद भी रुचते नहीं। सबकुछ खाने की सुविधा के बाद भी खाया हुआ अंग नहीं लगता। मन की अप्रसन्नता के कारण शरीर शिथिल पड़ जाता है। यह इस बात का द्योतक है कि शरीर ही सबकुछ नहीं है। अब तो पश्चिम के लोग भी इस बात को मानने लगे हैं कि मन की चिंता बड़ी भयंकर चीज़ है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए मानसिक स्वास्थ्य की भी आवश्यकता होती है। उसी प्रकार हम जानते हैं कि कई बार अपने आप हाथ हिल उठता है। कारण बताया जाता है कि अचेतन मस्तिष्क में कुछ क्रियाएं होती हैं। इस प्रकार बुद्धि का भी विचार सामने आ जाता है। बुद्धि का सुख यदि प्राप्त न हो तो मनुष्य पागल हो जाता है। दिखाई देने से पागल व्यक्ति शरीर से बड़ा स्वस्थ दिखाई पड़ता है। उसमें शारीरिक शक्ति रहती है, किंतु उसे बुद्धि का सुख प्राप्त नहीं होता। इसलिए ‘मैं कौन हूं, ‘इस प्रश्न का उत्तर ‘मैं शरीर हूं’ नहीं हो सकता। शरीर, मन, बुद्धि तीनों का विचार आवश्यक है। इसके अतिरिक्त एक चौथी वस्तु भी है, जिसे आत्मा कहते हैं। जब तक इस आत्मसुख की प्राप्ति नहीं होती, तब तक शरीर, मन, बुद्धि के सुख कुछ एक सीमा तक ही सुखकारक हैं। इसलिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा चारों का विचार करने पर संपूर्ण मनुष्य का विचार हो सकेगा। शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा की सुखानुभूति प्राप्त करने के लिए निर्धारित की गई दिशा और विकास के अवसरों का निर्धारण ही भिन्न-भिन्न मनुष्य-समाजों की मूल प्रकृति का अंतर स्पष्ट करेगा।
– राष्ट्रधर्म, अक्तूबर, 1964