“मुझे कार्यकर्ता पद से कोई हटा नहीं सकता”: अटलजी

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अटलजी का मानना था कि भाजपा कार्यकर्ताओं की पार्टी है। जो नेता है, वह भी कार्यकर्ता है। उनका कहना था कि जो आज विधायक है, वह कल शायद विधायक नहीं रहे। सांसद भी सदैव नहीं रहेंगे। कुछ लोगों को पार्टी बदल देती है, कुछ को लोग बदल देते हैं, लेकिन कार्यकर्ता का पद ऐसा है, जो बदला नहीं जा सकता। कार्यकर्ता होने का हमारा अधिकार छीना नहीं जा सकता।

प्रभात झा

आगरा स्थित बटेश्वर निवासी सामान्य शिक्षक श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी के ग्वालियर स्थित घर अटलजी पैदा हुए। उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी। भारत में उन्होंने अपनी वाणी से लोगों के दिल में अपना स्थान बनाया। केरल से कश्मीर और अटक से कटक तक उन्होंने अपनी वाणी के प्रभाव से करोड़ों लोगों को जोड़ा। अथक साधना से निर्मित अटलजी का जो व्यक्तित्व हमारे सामने है, उनके कौन से रूप का वर्णन हो, कौन सा अछूता छोड़ दिया जाए, यह निर्णय कठिन है। समग्र समेटना तो संभव नहीं, फिर भी उनका स्मरण आते ही उनकी सौम्य छवि आंखों में तैर जाती है। ग्वालियर की गलियों से निकलकर प्रधानमंत्री बनने की इस यात्रा में अनेक पड़ावों से गुजरते हुए अटलजी ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को अहर्निश साधना के साथ जिन ऊंचाइयों तक पहुंचाया, उन्हें शब्दों में बांधना कठिन है। उनका व्यक्तित्व उस सरिता की तरह रहा जो निर्बाध गति से निश्छल बहती रहती है, हर पथिक की प्यास बुझाती है, किन्तु अपने अंदर बहुत कुछ समेटे रहती है। वे उदारता के प्रतीक थे। वे सदैव सिद्धांत पर अडिग रहे। उन्होंने भले ही प्रधानमंत्री बनने का सपना न सोचा हो, पर देश सदैव उनके बारे में सोचता रहा की आज नहीं तो कल, अटलजी प्रधानमंत्री बनेंगे।

मध्य प्रदेश के दतिया निवासी विभाग संघचालक स्वर्गीय राजेंद्र तिवारी ने ‘हमारे अटलजी’ नामक पुस्तक में संस्मरण लिखते हुए बताया कि भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी गोलवलकर ने कहा था, “मैं आपको संघ के पांच पांडव दे रहा हूं। ये भारत के कर्णधार एवं सजग प्रहरी होंगे।” श्रीगुरुजी ने पंडित दीनदयाल उपाध्यायजी को युधिष्ठिर, अटलजी को अर्जुन, जगन्नाथ राव जोशीजी को भीम, यज्ञ दत्त शर्माजी को नकुल और वसंत राव ओकजी को सहदेव कहा करते थे। उनके ये संबोधन अटलजी के लिए अर्जुन के रूप में सत्य ही चरितार्थ हुआ। अपने सम्पूर्ण जीवन को राष्ट्र की सेवा में प्रतिक्षण समर्पित करने वाले भारत माता के सपूत अटलजी पर सम्पूर्ण राष्ट्र गौरवान्वित रहा। उनका अपने सम्पूर्ण जीवन में व्यक्तिगत कुछ भी नहीं रहा, राष्ट्र की सेवा और संघ का सिद्धांत “तन समर्पित मन समर्पित और ये जीवन समर्पित” के जीवंत मूर्तिस्वरूप अटलजी भारत के प्रत्येक वर्ग में और मुख्यतः युवा हृदयों के सम्राट के रूप में पहचाने गए। राष्ट्रवाद, अनुशासन, निष्ठापूर्वक ध्येयपूर्ति के लिए सतत प्रयास, ऐसे अनेक गुण जो एक स्वयंसेवक के रूप में उन्हें प्राप्त हुआ, उनके महान और सर्वस्वीकार्य छवि को गढ़ने का काम किया।

अटलजी पाञ्चजन्य, स्वदेश एवं वीर अर्जुन के सम्पादक रहे। भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी ने जब बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर जाने की घोषणा की, अटलजी उनके साथ बतौर वैचारिक पत्रकार के रूप में गए। डॉ. मुख़र्जी को जम्मू-कश्मीर के प्रवेश द्वार लखनपुर में जब पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया तो उन्होंने अटलजी से कहा, “वाजपेयी गो बैक एंड टेल द पीपल ऑफ़ इंडिया, डॉ. मुख़र्जी हैज इंटरड जम्मू एंड कश्मीर विदाउट परमिट।” डॉ. मुख़र्जी की ये बात सुन अटलजी वहां से लौटे। इसी बीच डॉ. मुख़र्जी की वहां रहस्यमय परिस्थिति में मृत्यु हो गई। अटलजी ने वहीं मन में ठाना कि डॉ. मुख़र्जी के अधूरे सपनों को पूरा करना है। इसके बाद ही वे भारतीय जनसंघ के कार्य में पूर्णतः जुट गए।

अटलजी थे तो जनसंघ और आगे भाजपा के, परंतु उन्हें सभी दलों के लोग अपना मानते थे। उनकी ग्राह्यता और स्वीकार्यता तो इसी से पता लग जाती है कि अटलजी को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री कांग्रेस के नेता पी.वी. नरसिंहराव ने सन् 1994 में प्रतिपक्ष का नेता रहते हुए जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत के प्रतिनिधिमंडल के नेता के रूप में भेजा था। जबकि ऐसी बैठकों में भारत का प्रधानमंत्री या अन्य ज्येष्ठ मंत्री ही नेता के रूप में जाते हैं, इस घटना से सारा विश्व चकित था। नरसिंहराव ने अपने एक भाषण में कहा था कि, “अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर अटलजी की जानकारी और विदेश मंत्री के तौर पर उनके अनुभव के कारण आज विश्व में वह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के शीर्ष विशेषज्ञों में से एक हैं।” भारत के राजनैतिक विश्लेषकों का मानना था कि अटलजी अगर दस वर्ष पूर्व भारत के प्रधानमंत्री बन गए होते तो भारत का भविष्य कुछ और होता। आजादी के दूसरे दिन जो प्राथमिकताएं तय होनी थीं, वह अटलजी के प्रधानमंत्री बनने तक तय नहीं हुई थीं।

सत्ता-लोलुपता के ऊहापोह के बीच निर्विकार भाव से जनसेवा के लिए प्रस्तुत रहने का सामर्थ्य हर किसी में हो ही नहीं सकता। दलगत राजनीति के जंगलराज में अपने आप को निष्पक्ष रख पाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। अटलजी विदेश मंत्री रूप में, नेता प्रतिपक्ष के रूप में और प्रधानमंत्री की महत्वपूर्ण भूमिका के दायित्व का निर्वाह करते हुए इन मर्यादाओं का पालन किया। लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। प्रतिपक्ष में रहते हुए अटलजी रचनात्मक आलोचना के हिमायती थे। रचनात्मक दृष्टिकोण तभी संभव है जब गहन अध्ययन, सभ्यता, बाह्य और संस्कृति के अंतरंग स्वरूप से सुपरिचय, जीवन मूल्यों के प्रति लगाव और मनुष्य-मनुष्य के बीच रागात्मक संबंधों की स्थापना का लगन हो।

अटलजी को प्रधानमंत्री बनने की यात्रा में सफलता की पुष्पमालाएं ही नहीं मिलती रहीं, ऐसे क्षण भी आए जब एक तरफ जनसंघ के संस्थापक डॉ. मुख़र्जी की 1953 में संदिग्ध मौत हो गई वहीं पंडित दीनदयालजी की दारुण और रहस्यमय हत्या हो गई। इसके बाद दल को घोर निराशा और वेदना के भंवर से उबारने वाले नाविक की भूमिका इन्हें निभानी पड़ी। चुनावों को सफलता का एकमात्र मापदंड माननेवालों की दृष्टि में संसद में केवल दो स्थान, जो डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी के नेतृत्व में लड़े गए पहले चुनाव में पाई गई तीन सीटों से भी कम थी, तब आस्था और विश्वास का संबल बनना पड़ा, ऐसे क्षण भी आए। अटलजी इसके बाद भी टूटे नहीं। इसके बाद भी देशभर में प्रवास की अखंड धारा चली। संसद से सड़क तक संघर्ष जारी रखा।

सन 1984 में अटलजी ग्वालियर से चुनाव लड़ रहे थे। वे उस चुनाव में पराजित हो गए। इसके बाद वे रक्षाबंधन के पर्व पर अपनी छोटी बहन से राखी बंधवाने ग्वालियर आए, उस समय पत्रकार के नाते इस पंक्ति का लेखक वहां उपस्थित था। हम सभी पत्रकार उनके पास पहुंचे। एक वरिष्ठ पत्रकार ने अटलजी से कहा, “आपके भाषण सुनकर जनता के मन में अपार श्रद्धा उत्पन्न होती है।” अटलजी ने त्वरित जवाब देते हुए कहा, “भाषण में श्रद्धा और वोट में श्राद्ध।” यह सुनकर सभी पत्रकारों ने राजनीति की गहराई समझा। अटलजी मनोविनोद में बहुत गहरी बातें कह जाते थे। उन्होंने अपनी वाणी की शैली से अपनी अलग पहचान बनाई। वे भारत के ऐसे राजनेता थे जिनकी सभा का सन्देश सुनकर लाखों लोग सहज उन्हें सुनने आ जाते थे।

अटलजी प्रधानमंत्री बनें, यह सिर्फ भाजपा की नहीं बल्कि पूरे भारत की इच्छा थी। वर्षों तक विपक्ष के नेता रहते हुए भारत का अनेक बार भ्रमण किया। भ्रमण के दौरान अपनी वाणी से प्रत्येक भारतीयों को जहां जोड़ा और भारत को समझा, वहीं सदन के भीतर सत्ता में बैठे लोगों पर मां भारती के प्रहरी बनकर सदैव उनकी गलतियों को देश के सामने रखते रहे। भारतीय राजनीति में विपक्ष में रहते हुए जितने लोकप्रिय और सर्वप्रिय अटलजी रहे, प्रधानमंत्री रहते हुए भी पण्डित जवाहरलाल नेहरू उतने लोकप्रिय नहीं हुए। अटलजी के आचरण और वचन में लयबद्धता और एकरूपता थी। वे जब तक सदन में विपक्ष या सत्ता में रहे तब तक सदन के राजनैतिक हीरो अटलजी ही रहे। इस बात को हम नहीं बल्कि तत्कालीन अनेक वरिष्ठ नेतागण स्वयं कहते थे।

सन् 1996 में पहली बार 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने, बाद में सन् 1999 में मात्र एक वोट से सरकार गिर जाने जैसी दुखद स्थिति में भी न वे स्वयं विचलित हुए, न पार्टी के सदस्यों को हार के कारण दुखी और हतप्रभ होने दिया। यह सब तभी संभव है जब व्यक्ति में आत्मबल हो और अपने आप पर पूर्ण विश्वास हो। अटलजी ने कहा भी, “खरीद-फरोख्त और ऐसी कोई भी जोड़-तोड़ की सरकार बनती है तो उसे चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा”। इसके लिए विरोधी नेताओं ने भी सदन में उनकी प्रशंसा की। प्रत्येक भारतीय ने भी अटलजी के दर्द को महसूस किया। देश के लोगों के आशीर्वाद से सन् 1999 के चुनाव में फिर प्रधानमंत्री बने। यही था अटलजी का अटल और विराट व्यक्तित्व।

अटलजी अक्सर कहा करते थे, “दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं”। यही कारण था वे भारत से बस लेकर लाहौर गए लेकिन जब पाकिस्तान ने आंख दिखाई तो कारगिल के युद्ध में उसे बुरी तरह पराजित भी किया। वे छोटे राज्यों के हिमायती थे। उन्होंने बड़ी सरलता से छत्तीसगढ़, झारखंड एवं उत्तराखंड का गठन अपने कार्यकाल में कर दिया। भारत के गांवों को सड़क से जोड़ने का ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए उसे फलीभूत करने में कोई कस्र नहीं छोड़ा। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए पोखरण में परमाणु परीक्षण कर विश्व को संदेश दिया कि हम किसी से कमजोर नहीं।

अटलजी सिद्धांतवादी, विचार एवं व्यवहार से सरल और जमीन से जुड़े महान नेता थे। उन्होंने विपक्ष में रहते हुए भी देश के हर दल के राजनेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में अपना विशिष्ट स्थान बनाया था। वह विपक्षी नेताओं का भी दिल जीत लेते थे। उनका मानना था कि भाजपा कार्यकर्ताओं की पार्टी है। जो नेता है, वह भी कार्यकर्ता है। उनका कहना था कि जो आज विधायक है, वह कल शायद विधायक नहीं रहे। सांसद भी सदैव नहीं रहेंगे। कुछ लोगों को पार्टी बदल देती है, कुछ को लोग बदल देते हैं, लेकिन कार्यकर्ता का पद ऐसा है, जो बदला नहीं जा सकता। कार्यकर्ता होने का हमारा अधिकार छीना नहीं जा सकता।

आज अटलजी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जनसंघ के घोषणा-पत्र में लगातार जो बातें आती रहीं, उन सभी को आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी साकार कर रहे हैं। अटलजी को भारत रत्न से विभूषित कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी ने केवल अटलजी का ही नहीं, भारत के करोड़ों लोग जो अटलजी के प्रसंशक थे, उनका सम्मान किया। अटलजी कहा करते थे, “सरकार गरीबों के लिए, सरकार समाज के लिए, सरकार राष्ट्र के लिए और सरकार एक-एक भारतीय के लिए होनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी की सरकार आज अपनी योजनाओं से देश के गरीबों तक पहुंच रही है। “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास” अटलजी के दिखाए गए मार्ग का प्रकटीकरण ही तो है।

(पूर्व भाजपा उपाध्यक्ष व पूर्व राज्य सभा सांसद)