संगठन का आधार

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दीनदयाल उपाध्याय

म लोग संगठन के काम में लगे हुए हैं। संगठन की महत्ता और आवश्यकता समझते हैं। उसके विषय में बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। यह अलग बात है, जैसा संगठन चाहिए, वैसा दिखता नहीं है। पर कोई ऐसा नहीं मिलेगा, जो कहे, संगठन की आवश्यकता नहीं है। हर एक कहेगा कि हमारा संगठन होना ही चाहिए। उसका मूल कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति अकेला सब कुछ नहीं कर सकता। ऐसा बहुत सा कार्य है, जो वह अकेला कर लेता है, जैसे खाना-पीना। पर इन सब कार्यों को करने के लिए भी दूसरे लोगों की आवश्यकता अनुभव होती है। भोजन के पीछे कितने लोगों के प्रयत्न छिपे हुए हैं। यदि वे सब लोग वह कार्य न करें तो संभवतया यह काम संभव न हो। किसान बोता है, व्यापारी स्थान-स्थान पर पहुंचाता है, कोई साफ़ करता, पीसता और रोटी बनाता-परोसता है, तब कहीं हम खा पाते हैं। फिर हल की आवश्यकता किसान को पड़ती है। वह हल लुहार न बनाए तो काम नहीं चलेगा। व्यापारी फ़सल को ख़रीदता है, पर स्थान-स्थान पर पहुंचाने के लिए रेलगाड़ी, ट्रक, बैलगाड़ी आदि न हों तो सामान दूसरी जगह पहुंच नहीं पाएगा। ऐसा हुआ है कि अन्न एक जगह पड़ा है और दूसरी जगह अकाल पड़ा है। सामान पहुंचाया नहीं जा सका। फिर गोदाम में रखवाने के लिए बोरी आदि चाहिए। अतः एक छोटी सी चीज़ के लिए भी एक व्यक्ति को कितने ही लोगों की मदद लेनी पड़ती है। तब कहीं भोजन मिल पाता है।

संगठन का मतलब ही यह है कि सब लोग इस एक बात को ध्यान में रखकर चलें कि हमको और सब लोगों की सहायता के लिए सबके साथ चलना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त भी ऐसे कार्य हैं, जिनको एक व्यक्ति पूर्ण नहीं कर सकता। लाख लोगों का सामान तैयार करने के लिए हज़ारों लोगों को इकट्ठा करना पड़ेगा।

फिर एक व्यक्ति को अकेले आनंद भी नहीं आ सकता। यदि किसी को जेल की काल कोठरी में बाक़ी सब कैदियों से अकेले बंद करके रख दिया जाए, किंतु उसे खाना ठीक समय पर दिया जाए तो भी अकेले बंद रहते-रहते वह इतना ऊब जाता है कि उसे लोगों से मिलने को जी चाहता है। अकेलापन लोगों को खाने को दौड़ता है। अकेले लोगों को डर-सा लगता है, हालांकि बड़े मकान में डर की क्या बात? अच्छा मकान है, ताला बंद है परंतु फिर भी एक साथी मिल जाता है तो उसे समाधान हो जाता है। यह भी भूल जाता है कि यह दूसरा उसका मित्र है या शत्रु। अकेले किसी को गौरव मिल भी जाए। उसका क्या लाभ? जंगल में मोर नाचा किसने देखा। नाचने वाले को भी लगता है, चार लोग देखें। विवाह-शादी में व्यक्ति चाहता है, अधिक-से-अधिक लोग आएं। कारण-जितने लोग आते हैं, उनको उतना ही आनंद होता है। ऐसे ही दुःख के अवसरों पर भी। किसी के यहां मृत्यु हो जाती है तो मिलने वाले आते हैं। उनके खिलाने-पिलाने की व्यवस्था करनी पड़ती है। मरने वाला मर गया, व्यवस्था करने में हम भी मर जाएंगे। पर इतना दु:ख होते हुए भी व्यक्ति करता है। कारण-उसका सुख बढ़ता है और दुःख घटता है। विद्या के बारे में कहते हैं, जितनी दी जाएगी, उतनी बढ़ती जाएगी। सुख के बारे में भी यही बात। जितने लोग बढ़ते जाएंगे, उतना ही सुख बढ़ता जाता है। जितने सहभागी होंगे, दुःख उतना ही बंट जाता है। अतः आदमी अकेले रह ही नहीं सकता। मिलकर ही रहना चाहता है। इसी मिलकर रहने का नाम संगठन है। संगठन में शक्ति है। दो आदमी जब संगठित होते हैं तो एक और एक अर्थात् ग्यारह हो जाते हैं। कोई ऊपर नहीं, नीचे नहीं, सबका समान स्तर होता है और एक लिख दे तो एक सौ ग्यारह हो जाएगा। जहां ऊपर नीचे का भाव रहता है, वहां सुख बहुत कम बढ़ता है। ताक़त के लिए, आनंद के लिए, भौतिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए, यहां तक कि जीवन की रक्षा के लिए संगठन आवश्यक है।

पर कैसी संगठन शक्ति होनी चाहिए, उसके लिए प्रश्न उठता है, किसका संगठन हो? किनके बीच में मेल-मिलाप होना चाहिए? संगठन किनके और उसके लिए किन चीज़ों की आवश्यकता है? उसके आधार पर संगठन करो-ऐसा नारा देते हैं। अमीरों के ख़िलाफ़ ग़रीबों का संगठन होना चाहिए, क्योंकि अमीर हमें सताते हैं। अमीर एक तरफ़, ग़रीब एक तरफ़। कोई कहता है हम एक जाति के हैं। कई समस्याएं आती हैं, इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, चमार, लोधा आदि आपस में संगठन कर लें। कोई कहता है, जातियों का कोई उपयोग अब बचा नहीं, केवल विवाह के समय ही उसका उपयोग है। अतः आधुनिक समय के अनुसार एक ही व्यवसाय करनेवाले लोगों का संगठन होना चाहिए। डॉक्टर, वकील, व्यापारी, विद्यार्थी, मास्टर तथा किसान संगठन, क्योंकि इसके कारण समानता हो जाती है। कुछ लोगों की समान रुचियां (Hobbies) होती हैं। गीत गाने वाले, नाचने वाले, लेखक, नाटक करने वालों के भी संगठन होते हैं। बहुत से ऐसे भी हैं, जो कहते हैं, नहीं, ईश्वर को मानने वालों के आधार पर संगठन होना चाहिए। मसजिद, शिव, यज्ञ हवन करने वाले, भगवान महावीर को मानने वाले और कोई ईसा को मानकर संगठन करने की बात करते हैं। और लोग हैं, जो भाषाओं को महत्त्व देते हैं। भाषा न हो तो अपनी बात प्रकट करना कठिन हो जाए। गूंगा भी भाव प्रकट करता है। पर भाषा के अनुसार संगठन होना चाहिए।

समान राजनीतिक आकांक्षा के आधार पर संगठन बनाने के उददेश्य से भी लोग चलते हैं। इन सबसे ऊपर संपूर्ण मानवमात्र का संगठन करनेवाले भी मिलते हैं। इससे भी ऊपर कहने वाले अभी नहीं मिले, जो कहते हों, संपूर्ण प्राणीमात्र का संगठन होना चाहिए। जानवर भी जीवधारी हैं। अतः बकरी के साथ भी संगठन हो सकने का सोचा जा सकता है।

जब इतनी बहुत सी चीजें आती हैं, तब समस्या खड़ी हो जाती है कि संगठन का आधार क्या हो? संगठन के लिए उसके स्वरूप को सोचना पड़ेगा। आधार प्रथम, कि वह उच्च एवं स्थायी हो तथा दूसरा, वह व्यावहारिक हो।

खेल के मैदान में कबड्डी खेलते हैं। ग्यारह एक पाले में और ग्यारह दूसरे में, उन ग्यारह में संगठन हो जाता है। जो आता है, उसे लौटकर जाने नहीं देना, यह एक विचार होता है। पर यह संगठन कब तक के लिए जब तक खेल है तब तक के लिए। कहीं-कहीं कबड्डी के क्लब होते हैं-वह कुछ अधिक दिन चलते हैं, परंतु वह भी जब कभी मैच होता है। फिर उसमें भी हर बार एक से लोग नहीं होते।

वैसा ही व्यवसाय की दृष्टि से तथा अन्य दृष्टि से संगठन बनते हैं। वे भी अधिक दिन चलते नहीं, फिर उनमें भी समस्याएं बन जाती हैं। अध्यापकों का संगठन बना, उसमें से कोई प्रिंसिपल बन गया तो वह फिर उस संगठन में रहेगा कि नहीं, यह प्रश्न खड़ा हो जाता है। प्रिंसिपल गड़बड़ न करे, इसलिए वह संगठन में था। किंतु अब वह स्वयं ही प्रिंसिपल हो गया, तो वह संगठन उसी के ख़िलाफ़ हो जाएगा।

अमीर और ग़रीब के बारे में भी वही बात। आज जो ग़रीब है, कल वह अमीर हो सकता है। जो अमीर है, वह ग़रीब हो सकता है। फिर उसका संगठन के साथ संबंध नहीं। फिर इस अमीर और ग़रीब की रेखा कैसे खींची जाए? एक घेरे में आप खड़े हो जाएं तो आप किसी के दाएं होंगे तो किसी के बाएं होंगे। पूरब भी होंगे तो पश्चिम भी होंगे (उदाहरण एक व्यक्ति चाहता था चपरासी से जिलाधीश हो जाऊं, किंतु ज़िलाधीश को भी डांट सहनी पड़ती है) अर्थात् इस परिधि का अंत नहीं, कोई रेखा नहीं। एक अंग्रेज़ी कविता का भाव कि एक व्यक्ति के पास जाड़े में जूते नहीं थे, किंतु जूते पहनने को इच्छा हुई तो देखा किसी व्यक्ति के पैर भी नहीं हैं तो सोचा हम ही अच्छे हैं। यह सारी बातें ऐसी हैं, जो स्थायी नहीं हैं। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आज जो ग़रीब है, स्थायी रूप से ग़रीब रहेगा। क्षितिज को छूने वालों का संगठन, जो सोचते हैं, उन्हें विज्ञान ने बता दिया कि धरती और आकाश कहीं नहीं मिलते। ऐसे लोगों का यदि संगठन बना दिया तो कैसे होगा? यह संगठन एक ग़लत आधार पर होगा।

वैसे ही इन सभी संगठनों में स्थायित्व नहीं है। एक चीज़, स्थायित्व चाहिए और दूसरी वह व्यावहारिक होनी चाहिए। केवल चालीस या पचास लोगों को मिला लेना ही संगठन नहीं, उसका भी एक व्यावहारिक यूनिट होती है। भोजन की व्यवस्था करनेवालों का संगठन, जिसमें केवल रोटी पकाने वालों का या दाल, पानी इत्यादि की व्यवस्था करनेवालों का ही संगठन नहीं, एक पूरी इकाई चाहिए। ठीक उसी प्रकार, जैसे कॉलेज की इमारत बना देने और शिक्षकों को नियुक्त कर देने से ही कॉलेज नहीं चल जाता, उसमें कक्षाओं, प्रयोगशालाओं आदि की व्यवस्था, कॉलेज की सफ़ाई, पुस्तकालय, विद्यार्थियों का कॉलेज में प्रवेश, उनकी शिक्षा, शुल्क, उनका प्राध्यापकों के साथ संबंध और कॉलेज से पढ़ाई पूरी करके निकलने तक की हर व्यवस्था और कार्य में संगठन की आवश्यकता है। कॉलेज एक इकाई है, किंतु उसमें भी अनेक संगठन बन जाते हैं, जैसे शिक्षकों के, विद्यार्थियों और कर्मचारियों के।
जीविकोपार्जन के संगठन आख़िर किसी बड़े संगठन के अंग हैं। घड़ी के पुजों के समान सब मिलकर काम करते हैं। परंतु सुई, बाल, कमानी इन सब का मेल न हो तो काम न चले।

यह तो व्यावहारिकता और स्थायित्व के दृष्टिकोण से यदि हम देखते हैं तो लगता है, यह जो संपूर्ण मानव समाज है, हम उसके आधार पर क्यों न खड़े हो जाएं। यह हो तो सकता है, पर आज के समय में यह व्यावहारिक नहीं है। हर एक व्यवहार आपस में एक से नहीं। आज यदि युद्ध छिड़ गया तो मानव का कुछ भाग तो संगठित हो जाएगा किंतु सारा भाग नहीं। किंतु कुछ संगठन हैं, जो मानव के हैं, जैसे यू.एन.ओ.। पर वहां जब बैठते हैं तो किस नाते बैठते हैं? सारा व्यवहार राष्ट्र के नाते होता है। राष्ट्र के नीचे कोई विचार नहीं। ऐसे संगठन तो चल सकते हैं। International Labour Association, World Health Organisation ये सब मानव जाति का विचार करते हैं, पर आधार सबका राष्ट्र है।

राष्ट्र में ही वह स्थायित्व है। राष्ट्र एक व्यावहारिक इकाई है, जैसे एक कोई कारखाना होता है। वह उत्पादन की बात करता है, इसके अलग-अलग भागों से बातें करता हैं। ठीक वैसे ही जैसे हमारा शरीर, वह भी एक कारखाना है। हमारे बहुत से अंग हैं, सब मिलकर यह शरीर एक व्यावहारिक इकाई है। कभी-कभी हज़ारों हाथ मिलाने की आवश्यकता हो जाती है। गांव में विराट छप्पर उठाने के लिए कोई यदि सोचे लोगों को लाने की क्या ज़रूरत? चालीस हाथ के लिए बीस लोग न लाकर केवल हाथ काटकर ले आए। मतदान के लिए मतदाता को न लाकर केवल उसकी एक अंगुली काटकर ले आएं तो चलेगा? यह सही है केवल अंगुली की ही आवश्यकता है, पर उस अंगुली के पीछे उन लोगों की ताक़त है। उसी प्रकार भिन्न-भिन्न व्यवहार की दृष्टि से नहीं, व्यावसायिक-मज़दूर के संगठन नहीं, संपूर्ण राष्ट्र के आधार पर संगठन चाहिए। हां, राष्ट्र के अतिरिक्त जो कोई इकाई होगी, वह छोटी होगी और टूट भी सकती है। यदि उसने किसी को हेय समझा तो चल नहीं पाएगा।
राष्ट्र के नाते विचार छोड़कर केवल मानवमात्र का विचार लेकर चले तो वह अव्यावहारिक होगा। सब दृष्टि के विचार करने पर लगेगा कि राष्ट्र के आधार पर ही केवल संगठन हो सकता है।

-मई 20, 1962, संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : प्रयाग