परकीय प्रेरणास्रोत देश में स्वावलंबन की प्रेरणा नहीं जगा सकता

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दीनदयाल उपाध्याय

देश में जब तक अंग्रेज़ों का राज्य चलता था, तब तक सबके लिए राष्ट्रीय दृष्टि से एकत्र करने का सुगम ध्येय उपस्थित था और वह था अंग्रेज़ी राज्य हटाना। इस विषय में विचार विभिन्नता भले हो, किंतु एक सरल बात सबकी समझ में आती थी कि जब तक अंग्रेज़ों का राज्य समाप्त नहीं होगा, तब तक हम आगे कुछ कर नहीं पाएंगे और जितने भी प्रश्न, जितनी भी समस्याएं इस समय राष्ट्र के सम्मुख दिखाई देती हैं, उन पर सभी का मत एक था कि वे या तो परकीय राजसत्ता के कारण उत्पन्न हुई हैं या अंग्रेज़ों के भारत में रहने के कारण। उन समस्याओं का निराकरण हम लोग ठीक प्रकार से अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए अपनी प्रकृति एवं प्रतिभा के अनुरूप नहीं कर सकते थे। देश की परतंत्रता हमारे प्रयत्नों में बाधास्वरूप थी। उस बाधा को हटाने के बाद अब हम जब स्वतंत्र हुए तो सबके सामने प्रश्न आया कि इस स्वतंत्रता का क्या करें? अब तो जो कुछ करना है, हमें ही करना है, कोई ऐसी परकीय सत्ता नहीं, जो हमें अपने जीवन का अपनी इच्छा के अनुसार निर्माण करने से रोके। इसलिए स्वतंत्र जीवन की योग्य कल्पना अभिप्रेत है।

वादों के वात्याचक्र

जब हम यह सोचते हैं कि अपने जीवन का स्पष्ट चित्र सामने होना चाहिए, तब यह प्रश्न भी उठता है कि जिस राष्ट्र के वैभव की हम कल्पना करते हैं, वह वैभव है क्या? बहुत से लोग हैं तो इस प्रश्न का उत्तर भी देते हैं, किंतु अभी तक जो उत्तर दिए गए हैं, उन उत्तरों में एक बात यह तो दिखाई देती है कि वे उत्तर प्रायः बाहर की जीवन पद्धतियों के आधार पर ही दिए गए हैं, अर्थात् कोई समाजवादी आधार पर चलने वाली सामज रचना चाहता है तो कोई साम्यवादी और कोई समाजवाद के साथ व्यक्ति स्वातंत्र्य का मेल बिठाकर प्रजातांत्रिक पद्धति निर्माण करना चाहता है। कोई-कोई प्रजातांत्रिक समाजवाद की भी आकांक्षा रखते हैं। इसी प्रकार के अनेक वाद आज अपने यहां दिखाई दे रहे हैं।

राष्ट्र का स्वाभिमान

हमें इस बात का विचार करना चाहिए कि यह सब जितने भी प्रयत्न हो रहे हैं, ये प्रयत्न उचित भी हैं? इन प्रयत्नों की सफलता से हम अपने जीवन की समस्याओं को सुलझा भी सकेंगे? जब इस पर विचार करते हैं तो प्रथम विचार यह आता है कि ये बाहर के जितने भी वाद हैं, इन वादों को लेना भी अपने राष्ट्र के स्वाभिमान के अनुकूल नहीं है। स्वाभिमान हृदय की एक भावना है। मैं समझता हूं कि यह भाव राष्ट्र और व्यक्ति विकास के लिए आवश्यक भी है। लोग कह सकते हैं कि इसके बीच में क्यों स्वाभिमान का झगड़ा खड़ा करते हो, अगर कोई चीज़ अच्छी है, भली है, लाभ की है तो वह कहीं से भी लेनी चाहिए। फिर उसमें एक अहंकार लाकर खड़ा करना कि नहीं, नहीं यह तो दूसरे का है, इसको हम नहीं लेंगे, यह बुद्धिमानी नहीं। पर यह सब सुनने के बाद भी यह तो मानना पड़ेगा कि राष्ट्रीय अभिमान जैसी कोई वस्तु होती अवश्य है। शायद वही एक ऐसी चीज़ है, जिसने हमको बहुत सी बातों में परिवर्तन करने के लिए प्रेरित भी किया है। हम विचार करके देखें कि क्योंकि हमारा अपना ध्वज था, इसलिए परकीय ध्वज बदला। यदि ‘यूनियन जैक’ ही लगा रहता तो क्या बात थी? पर नहीं, हमने अपना नया ध्वज बना लिया, यह हमारे स्वाभिमान का परिचायक है।

कहीं पर अहं भी आवश्यक

आज भी लोग कहते हैं कि सड़कों के अंग्रेजी नाम भी बदल जाने चाहिए। इससे राष्ट्र का स्वाभिमान प्रकट होता है। जीवन में कोरे बुद्धिवाद से काम नहीं चलता। कहीं न कहीं व्यक्तिगत जीवन में ममता होती है, उसमें अपनापन होता है। उस अपनेपन में अहं का भाव भी होता है। यह अहं का भाव अभिमान से भिन्न एवं आवश्यक होता है और उसके आधार पर जीवन के अनेक प्रश्नों पर निर्णय लेने पड़ते हैं। यहां तक कि बहुत बार ऋषियों और मुनियों ने भी कहा-यह मेरा-तेरा का सवाल मत खड़ा करो।
किंतु व्यवहार में मेरा-तेरा का सवाल आता है। इतना ही नहीं, कई बार यह सवाल आवश्यक भी लगता है। उदाहरणार्थ, हम कहते हैं कि सभी स्त्रियां माता के समान हैं और स्त्रियों के लिए मनुष्य पुत्रवत् हैं, किंतु यह व्यावहारिक नहीं है। व्यवहार शास्त्र तो यह बताता है कि अपनी मां की चिंता करो और माता को यह बतलाता है कि वह अपने पुत्र का लालन-पालन करे। यदि कोई माता अपने पुत्र को दूध पिलाना छोड़कर सभी को अपना पुत्र माने और इधर-उधर दूध पिलाती फिरे, तो हम परिणाम की कल्पना आसानी से कर सकते हैं।

आदान-प्रदान संहिता

राष्ट्रों में भी ‘मेरे-तेरे’ का भाव आता है। किसी राष्ट्र की अस्मिता में बुद्धिवाद घुसेड़ने पर उस राष्ट्र की अस्मिता को चोट लगती है, उसके राष्ट्रत्व को आघात लगता है राष्ट्रीयता का विनाश होता है। इसलिए राष्ट्र की अस्मिता को जीवित रखने के लिए हमें विचार करना होता है। यहां तक कि यदि कोई चीज़ बाहर से लेनी भी होती है तो उसको इस रूप में लेते हैं कि वह अपनी लगे। उसे विजातीय रूप में स्वीकार करना घातक होता है, यह सर्व सत्य है।

कुटुंबों के बीच

सृष्टि में यह आदान-प्रदान चलता ही रहता है, सब लोग लेते रहते हैं और देते रहते हैं। हमने दुनिया को बहुत सा दिया और बहुत सा लिया। जीवन में यह क्रम चलता ही रहेगा। हां, मनुष्य प्रयास करता है कि जिसको वह लेता है, उसको अपना बनाकर लेता है और यदि यह न हुआ तो वह उसकी चिंता करता है। हम विचार करके देखें कि जैसे हमारे अपने कुटुंब हैं, उनमें कोई भी कुटुंब यह दावा नहीं कर सकता कि हमारे घर में कोई भी प्राणी, कोई भी मानव दूसरे कुटुंब का नहीं आया। जब व्यवहार होता है तो दूसरे कुटुंब से ही होता है। कोई कहे कि हमारा अपना छोटा सा परिवार है हम उसी में रहेंगे। जीवन के सारे व्यवहार अपने कुटुंब के भीतर ही करेंगे, तो यह नहीं हो सकता, यदि ऐसा करेंगे तो पाप होगा, अर्थात् विवाह-संस्कार तो दूसरे परिवारों से ही होते हैं किंतु जो कुटुंब वर या कन्या को अपने यहां लाता है, उसे अपना बनाकर लाता है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो गड़बड़ होना स्वाभाविक होता है।

स्वामी भी नहीं, दास भी नहीं

जितने भी सर्वसाधारण व्यवहार हैं, उनमें इसी प्रकार का आदान-प्रदान चलता रहता है, पर यदि हमने इसके विपरीत किया तो दूसरे कुटुंब में से अपने यहां किसी को लाने की दो विधियां हो सकती हैं। या तो हम उसे मालिक बनाकर लाएं या फिर दास बनाकर। पहली पद्धति के अनुसार अपने यहां अंग्रेज़ थे और दूसरी पद्धति के अनुसार अमरीका में ‘नीग्रो जाति’। ये दोनों ही पद्धतियां किसी राष्ट्र-जीवन के लिए उपयुक्त नहीं। मालिक बनकर रहे तो वह परतंत्रता होगी। जैसे अंग्रेज़ यहां रहे तो उनको हटाना आवश्यक हो गया। ऐसी स्थिति में परकीय बनकर रहने वालों का प्रेरणा केंद्र बाहर का होता है और उससे राष्ट्र की हानि होती है। इसलिए प्रत्येक राष्ट्र को हर बात की चिंता करनी पड़ती है कि प्रेरणा का केंद्र स्रोत अपने यहां का ही होना चाहिए, यदि वह परकीय रहा तो परिस्थिति घातक एवं विनाशक हो जाती है, इसका हमें ध्यान रखना चाहिए।

-पाञ्चजन्य, सितंबर 12, 1960 (क्रमशः)