हमारा हित

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

प्रत्येक व्यक्ति अपने सुख की, हित की, उन्नति की कामना लेकर काम करता है। जहां दुःख हो, वहां से दूर रहना और जहां सुख हो, वहां जाना प्रत्येक व्यक्ति और प्राणी चाहता है। हममें भी सुख और हित की भावना आए, कोई अस्वाभाविक नहीं। इस बात का विचार करना चाहिए कि हमारा हित कहां है। मनुष्य इस छोटी सी बात को समझ नहीं पाता। भगवान् ने यद्यपि मनुष्य को ज्ञानेंद्रियां और कर्मेंद्रियां दी हैं। ज्ञानेंद्रियों से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और कर्मेंद्रियों के आधार पर जो चाहता है, उसे प्राप्त करते हैं। हमारी ज्ञानेंद्रियां कई बार सत् ज्ञान नहीं करवातीं। विशेषकर जब ये ज्ञानेंद्रियां मन के अधीन आ जाती हैं तो यह ज्ञानेंद्रियां मन के चक्कर में पड़कर जैसे मन कहता है, वैसे कार्य करना प्रारंभ करती हैं। मन कहता है, वैसे कार्य करना प्रारंभ करती हैं। मन कहता है, सिनेमा देखने चलो, आंख को कष्ट होने पर भी उसे देखने का कार्य करना पड़ता है। इसलिए मन पर बुद्धि का नियंत्रण जरूरी है। बुद्धि द्वारा जो बात हितावह होगी, उसे मन से कराना चाहिए। बुद्धि के अनुसार मन को कार्य करने के लिए संस्कार की आवश्यकता है।

अब जब व्यक्ति का विचार आता है तो काम करते-करते अपने को अकेला मान चलता है। अपने को सुख मिले, सारी दुनिया उसके हिसाब से चलेगी। यदि कोई ज्योतिषी के पास जाता है और पूछता है, कहो महाराज! हमारे ग्रह-नक्षत्र कैसे हैं? वह चाहता है कि ग्रह नक्षत्र उसकी आशा के अनुकूल चलें और उसके लिए जो हितावह है, उसके अनुसार ही भ्रमण करें। इस तरह अपने को केंद्र बनाकर चलता है। सब लोग इसका विचार करें। भोजन करते समय मेरा भोजन अच्छा हो, यही विचार, समाज जाति को भोजन मिले, इसका विचार नहीं। सूर्य, चंद्र, नक्षत्र मेरा विचार करे ऐसी अपेक्षा रखता है, पर मैं उनका विचार करूं, ऐसी अपेक्षा कभी रखता नहीं। इसी तरह देश उसका विचार करे ऐसा समझता है, पर वह देश का विचार करे ऐसे अपना कर्तव्य नहीं समझता। यह बात ऐसी ही है, जैसे कोई गाय से दूध तो लेना चाहते हैं, पर उसे खिलाना नहीं चाहते। जैसे किसान खेत से अच्छी फ़सल तो चाहता है, पर उस खेत में कुछ मेहनत करने के लिए तैयार नहीं। मैं कुछ भी न करूं तो भी मुझे सभी चीजें मिल जाएं, जिसकी उसे आवश्यकता है। यह कर्म सिद्धांत के विरुद्ध है। अपने यहां कहा गया है, कार्य करो पर फल की अपेक्षा न करो। अब तो बिना कर्म करे फल की अपेक्षा करते हैं। यह ऐसे ही है, जैसे बिना बीज बोए फल की अपेक्षा करना। कुआं खोदे बिना पानी मिलना। समाज हमें ज्ञान दे, खाना दे, हमारी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करें और हम समाज को कुछ न दें तो समाज भी आपको कुछ दे न सकेगा। आप समाज की चिंता करें तो समाज आपकी चिंता करेगा। समाज अपने पास कुछ रखता नहीं। हम समाज को मां कहते हैं। उसी तरह जब कोई बेटा अपनी मां को अपनी कमाई लाकर देता है, तब मां स्वयं न खाकर भी अपने बेटे को खिलाती है। इसी तरह समाज भी अपने पास कुछ भी न रखते हुए हमको ही देता है।

यह हिंदू समाज कई सौ वर्षों से देता ही आ रहा है। हमने कभी विचार किया है, क्या कि हम उसे कुछ दे रहे हैं? हमारे पूर्वजों ने समाज को जो दिया है, उसी संचित कोष से आज तक हम प्राप्त कर रहे हैं। हम बाहर दुनिया में जाते हैं तो लोग हमारा सत्कार करते हैं। दो साल पहले जब मैं अमरीका गया, एक सज्जन मिले और उनसे परिचय हुआ तब मैंने कहा, मैं हिंदुस्तान से आया हूं। तो उसने बड़े आनंद से कहा, “You came from the land of Vivekanand.” मुझे गौरव का अनुभव हुआ। अपने आचार्य डॉ. रघुवीर’ भी कहते थे, जब वे मंगोल देश में गए, तब वहां के बड़े-बड़े लोगों ने उनके चरण स्पर्श कर चरणामृत लिया। उन्होंने कहा, आज हमारा बड़ा सत्भाग्य है। भारत से जो आचार्य आते हैं, उन्होंने हमें ज्ञान दिया है। इस तरह हमारे देश के प्रति इतनी सद्भावना विदेशों में पाई जाती है। यह केवल अपने पूर्वजों द्वारा अपने समर्पण के कारण यह भाव जगा है। ऐसे ही पूर्वजों की कमाई हम खा रहे हैं। आज हम कुछ दे रहे हैं क्या? हमें भी राष्ट्र को कुछ-न-कुछ देने का विचार करना पड़ेगा। इस राष्ट्र का हमारे साथ बड़ा घनिष्ठ संबंध है। हमारा और राष्ट्र का संबंध शरीर और उसके अवयवों में जैसे संबंध होता है, वैसे ही है। हमने नौकरी करते समय कभी यह विचार किया है कि मेरी इस नौकरी का संबंध राष्ट्र के साथ है क्या? हम बाजार में जाकर कोई चीज़ चार आने में खरीदते हैं और दूसरी चीज़ तीन आने में। चार आने स्वदेशी है और तीन आनेवाली चीज़ विदेशी है। यदि हम तीन आने की विदेशी चीज खरीदते हैं तो क्या कभी हमने सोचा है कि तीन आने कहां जाएंगे?

उस तीन आने में से एक आना व्यापारी को मिलेगा और दो आने बाहर जाएंगे। यदि हम चार आनेवाली देशी चीज खरीदेंगे तो वे चार आने अपने ही देश में रहेंगे। वह पैसे जो हमने वस्तु पर खर्च किए हैं, वे हमी को प्राप्त होंगे। मान लो, हम एक साबुन की टिकिया खरीदते हैं, यदि चार आने में खरीदेंगे तो उसमें से व्यापारी, मजदूर, कारखानादार, तेल आदि कच्चे माल वाले के पास जाएगा। यदि साबुन की टिकिया खरीदने वाला पुस्तक विक्रेता हो तो और यदि उस व्यापारी को जिसने साबुन को टिकिया बेची, जब वह किताब खरीदने जाएगा तब पुस्तक विक्रता के साबुन पर खर्च किए चार आने प्राप्त होंगे। यदि साबुन की टिकिया विदेशी रही तो कोई विदेशी दूसरा कोई माल ख़रीदने अपने देश में नहीं आएगा। तब वस्तु पर खर्च किया पैसा विदेशी को ही प्राप्त होगा। अर्थात् हमें उस वस्तु का लाभांश प्राप्त न होगा। हमारा अर्थशास्त्र राष्ट्रीय अर्थशास्त्र होना चाहिए। आज जो राजनीतिक शास्त्र, नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र पढ़ते हैं, उसमें व्यक्ति को बड़ा प्रमुख स्थान दिया गया है। जब राष्ट्र की अपेक्षा व्यक्ति को प्रमुखता प्राप्त होती है, तब राष्ट्र अधोगति की ओर जाता है। जैसे एक उदाहरण है, अमीचंद नामक एक धनाढ्य व्यक्ति ने राबर्ट क्लाइव को मदद की थी और ऐसा कहते हैं कि अमीचंद की सहायता के कारण ही राबर्ट क्लाइव प्लासी का युद्ध जीत सका। इस तरह व्यक्ति का लक्ष्य जब अपने तक ही सीमित रहता है, तब हम हर क़दम पर राष्ट्र को बेचते चले जाते हैं। आज हमारी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हम अमरीका से गेहूं मंगा रहे हैं। इससे हमें अपमान का अनुभव होता है। किसान भी इस विषय में कभी विचार नहीं करता। यदि हम प्रतिदिन के भोजन के समय जो जूठा अन्न छोड़ते हैं, वह न छोड़ें और आधे दिन का उपवास रखें तो जितनी मात्रा में बाहर से अनाज आ रहा है, उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। पर आज कोई उस दृष्टि से विचार नहीं करता। यदि कोई उपवास भी रहता हो तो वह निजी स्वार्थ, पुण्य आदि प्राप्ति के लिए करेगा, पर समाज के हेतु एक दिन का उपवास मैं करूंगा, ऐसा कोई विचार करता नहीं। यदि मंदिर भी जाते हैं, तो क्या मांगते हैं? तो कोई पास होने के विषय में मांगता है और कोई भी समाज के संकट निवारण के लिए कुछ मांगता नहीं। इस तरह किसी तरह का भी कार्य करते समय समाज का ध्यान रहता नहीं। यदि किसी को समाज की याद आती भी होगी तो संकट के समय पर आती है।

इस तरह की मुझे एक घटना याद आती है। एक सज्जन थे, उनके घर के सामने बहुत बड़ा मैदान था। उस स्थान पर शाखा लगाने का विचार हुआ और उसके लिए आज्ञा प्राप्त करने हम उस सज्जन के पास गए, तब वे कहने लगे, आप हिंदू समाज के संगठन का काम करते हैं? यह तो कम्युनल है, इस काम के लिए हम मैदान नहीं देंगे। थोड़े समय बाद विचार कर कहने लगे, यदि यह मैदान हम आपको देंगे तो उससे हमें क्या लाभ प्राप्त होगा? तो मैंने कहा, हम यह कार्य आपके लाभ के लिए ही कर रहे हैं। तो ये कहने लगे, ऐसी गोलमोल बातें मत करो। एक तो आपका काम कम्यूनल और दूसरा सरकार के विरुद्ध चलता है। इतने पर भी हमें कुछ लाभ न होगा तो हम मैदान क्यों दें? तब मैंने कहा, मैदान किराए पर लेंगे तब हम कम्यूनल नहीं कहलाएंगे क्या? उस समय किराए से मैदान लेने जैसी अपनी स्थिति नहीं थी तो उसे छोड़कर अन्य जगह हमने शाखा प्रारंभ की।

पाश्चात्य देशों के लोग समाज और व्यक्ति के बीच संघर्ष मानते हैं। कम्युनिस्ट लोग समाज में वर्ग देखते हैं और उन वर्गों के बीच संघर्ष है, ऐसे मानकर चलते हैं। मुझे एक सज्जन मिले, पूछने पर बताया कि वे समाजवादी हैं। मैंने कहा, आप समाजवादी तो नहीं, पेटवादी हैं या आप किसानवादी, मजदूरवादी हो सकते हैं, पर समाजवादी नहीं हो सकते। कारण, आप मानते हैं कि समाज में वर्ग होते हैं और उन वर्गों में संघर्ष होता है। इस तरह आप किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं, फिर आप समाजवादी कैसे कहलाएंगे। जो समग्र समाज का, समाज को वर्गों में विभाजित किए बिना उसका विचार करेगा, वह समाजवादी कहलाएगा

मैदान खाली रहने पर लोग इकट्ठा होते हैं। इस तरह वहां तरह-तरह के लोग इकट्ठा होने लगे। उसमें कुछ मुसलमान गुंडे भी थे, जो वहां जानेवाली स्त्रियों को छेड़ते थे। उस सज्जन ने जाकर उन गुंडों को यह कार्य न करने के लिए कहा। जब वे नहीं माने तब वे मुझसे मिलने आए। कहने लगे, मेरे एक संबंधी संघ में जाते हैं, वे कहते हैं— संघ कार्य बड़ा अच्छा है, मैं चाहता हूं, आप अपनी शाखा वहां खोलें। मैंने कहा, अब हमारी शाखा तो दूसरी जगह चल रही है। इस समय आवश्यकता नहीं। तो वे बड़े नम्रता के साथ कहने लगे, मेरे से यह जो बड़ा पाप हो गया है, इसे आपको सुधारना ही होगा। मैं सोचने लगा, इस महाशय में इतना परिवर्तन कैसे हुआ। बाद में पता चला कि वे गुंडे उनसे मानते नहीं थे और उन्हें मारने की धमकी भी दी थी। तब वे अपनी शाखा प्रारंभ करने के लिए कहने आए थे। इस तरह मुसीबत जब आती है तब समाज को ज्ञान आता है। इस तरह हम समाज से ज्यादा-ज्यादा लेने की कोशिश करते हैं।
पाश्चात्य देशों के लोग समाज और व्यक्ति के बीच संघर्ष मानते हैं। कम्युनिस्ट लोग समाज में वर्ग देखते हैं और उन वर्गों के बीच संघर्ष है, ऐसे मानकर चलते हैं। मुझे एक सज्जन मिले, पूछने पर बताया कि वे समाजवादी हैं। मैंने कहा, आप समाजवादी तो नहीं, पेटवादी हैं या आप किसानवादी, मजदूरवादी हो सकते हैं, पर समाजवादी नहीं हो सकते। कारण, आप मानते हैं कि समाज में वर्ग होते हैं और उन वर्गों में संघर्ष होता है। इस तरह आप किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं, फिर आप समाजवादी कैसे कहलाएंगे। जो समग्र समाज का, समाज को वर्गों में विभाजित किए बिना उसका विचार करेगा, वह समाजवादी कहलाएगा।

क्रमश:
संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : आंध्र प्रदेश (16 मई, 1965)