लोग, जो हमें प्रेरणा देते हैं

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

भारतीय जनसंघ अलग तरह का दल है। यह उन लोगों का समूह नहीं है, जो किसी भी तरह सत्ता पाना चाहते हैं। न ही यह किसी निहित स्वार्थ विशेष का प्रतिनिधित्व करता है, जो कि केवल अपने पक्ष में प्रचार करने तक सीमित हो। इन्हें इस बात का भी कोई दुःख नहीं है कि जब ब्रिटिश भारतीयों को सौंपकर गए तो यहां के शासकों ने इन्हें सत्ता में हिस्सेदार नहीं बनाया। वास्तव में जनसंघ की नींव रखनेवाले प्रथम अध्यक्ष श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी केंद्रीय मंत्री परिषद् के सदस्य थे और पूर्वी बंगाल के अल्पसंख्यकों की रक्षा के मुद्दे पर उनके त्याग-पत्र के पश्चात् ही इस नए दल की स्थापना का विचार आया।

जनसंघ उन लोगों का जमावड़ा भी नहीं है, जो कि इस नए युग के आगमन से राजनीतिक और आर्थिक रूप से विस्थापित हुए हैं। इसके किसी सदस्य के नाम के साथ ‘पूर्व’ उपसर्ग शायद ही लगाया जा सकेगा। अपने अतीत की कमाई पर जाने की अपेक्षा हम अपने वर्तमान के कर्मों पर निर्भर हैं। यद्यपि जनसंघ की व्याख्या प्रसिद्ध ‘नेति नेति’ शब्दों में की जा सकती है, जिससे विपक्षी संतुष्ट न होंगे। यद्यपि यह बात ही सत्य है। इसलिए वे पूछ सकते हैं कि “आखिरकार यह है क्या?”

जनसंघ दल नहीं, आंदोलन है

सचमुच भारतीय जनसंघ एक दल न होकर एक आंदोलन है। यह भारत के आत्मस्वरूप की प्राप्ति की तीव्र आकांक्षा से पैदा हुआ है। राष्ट्र को जो नियति तय है, उसे आकार देने और प्राप्त करने की यह इच्छा है। यह केवल मात्र लोगों की उस इच्छा की अभिव्यक्ति है, जो खुली हवा में सांस लेना चाहती है, उन शारीरिक और मानसिक बंधनों से मुक्ति चाहती है, जिन्होंने हमारी आत्मा को बंदी बनाकर इस राष्ट्र को गरुड़ की तरह सर्वोच्च शिखर तक उड़ने से रोक रखा है, जहां पहुंचकर यह उस सर्वोच्च का अंग बन सके। यह सृष्टि क्रम में अपना स्थान खोजने का प्रयास है, ताकि राष्ट्र के रूप में सोद्देश्य और सुखी जीवन जी सकें और मानवता की सेवा कर सकें।

भारतीय संस्कृति और मर्यादा जनसंघ के आधार हैं। भारतीय संस्कृति कुछ विशिष्ट लोगों की संस्कृति की परिचायक न होकर एक विश्व-दर्शन की परिचायक है। यह बंटे हुए विश्व को एक कर शांति प्रदान कर सकती है। सह-अस्तित्व और एकता के आदर्श मात्र राजनीतिक नारेबाजी बनकर रह जाएंगे, यदि इस महान् संस्कृति से अनुप्राणित नहीं होंगे। यह हमारा जीवन लक्ष्य है। दायित्व वहन और कर्तव्य निर्वहन भी उत्कट इच्छा को पश्चिम की यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा अपने शासन के औचित्य को ठहराने के लिए गढ़े गए ‘सफेद लोगों का बोझा’ सिद्धांत के तुल्य नहीं मानना चाहिए। भूरे लोगों का कोई बोझा नहीं है। हमें न ऐसे भ्रम हैं और न हमारी ऐसी योजनाएं हैं। हमारी भूमिका उपदेशकों की नहीं, उदाहरण पेश करनेवालों की है। सदा से यही हमारा मार्ग रहा है। मनुस्मृति में कहा गया है, “माशा भर व्यवहार मनों उपदेशों से बेहतर है।” यह एक पुरानी कहावत है। हमारे लिए इसमें एक शिक्षा है।

भारतीय संस्कृति क्या है ?

इस छोटे से लेख में मेरा उद्देश्य भारतीय संस्कृति का प्रतिपादन अथवा उसकी व्याख्या करना नहीं है। यह विखंडनात्मक या विश्लेषणात्मक न होकर समग्रतावादी है। यह जैविक है, मिश्रित नहीं। यह समग्र मनुष्य को न केवल समाज का बल्कि सृष्टि का अंग मानती है। पश्चिम के अनेक दर्शनों में मनुष्य को सृष्टि में सर्वोपरि स्थान देने के बावजूद वहीं पर अमानवीयकरण की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। मनुष्य को पुनर्जीवित और उदात्त बनाने के लिए, जीवन दर्शन को मानवीय बनाने, राजनीति, आर्थिक और सामाजिक संस्थाओं को अधिक मानवीय बनाने की जरूरत है। भारतीय संस्कृति यही कार्य करने का प्रयास करती है। यह कहना कि इसमें चरम शिखर पर पहुंच गए बड़बोलेपन, शोध की आत्मा के विपरीत और विकास के विरुद्ध कथन होगा, परंतु इस दिशा में गंभीर प्रयास हुआ है और जो सफलता मिली है, उससे आशा जगती है कि और सफलता के लिए प्रयास करें।

भारतीय संस्कृति जड़ न होकर गतिशील है। वास्तव में गतिशीलता ही जीवन है। जब आपका विकास रुक जाता है, आप निष्क्रिय होने लगते हैं और निष्क्रियता िबखराव तथा मृत्यु की ओर ले जाती है। अपने स्वर्णिम अतीत और दुर्दशापूर्ण वर्तमान के कारण समाज में दो तरह की प्रवृत्तियां प्रचलित हैं। एक पुरातन को स्वीकारती है जो कि वास्तव में इसे अपना संस्कार मानती है, जिस पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता। दूसरी प्रवृत्ति परिवर्तन की लालसा हर क्षेत्र में रखती है और इस बात की भी चिंता नहीं करती कि परिवर्तन की दिशा क्या हो और उसकी शक्ल क्या बनती है। जनसंघ इन दोनों प्रवृत्तियों का निषेध करती है। अतीत से हम प्रेरित हों। परंतु हमारी दृष्टि अग्रगामी होनी चाहिए। जो कुछ हमें विरासत में मिला है, उस सारे को सुरक्षित रखना पूर्वजों की सेवा नहीं है। हमें तो गुलामी भी विरासत में मिली थी। मनुष्य ने अपनी इस विरासत से मुक्ति के लिए कठोर संघर्ष किया है। इस तरह हज़ारों अन्य विरासतें हो सकती हैं। इनसे मुक्ति ही एकमात्र उपाय है। उधार चुकाया जाना चाहिए और पूंजी की सुरक्षा तथा परिवर्धन होना चाहिए। जो लोग केवल संरक्षण की बात करते हैं, वे प्रकृति के नियमों को भूल जाते हैं।

– ऑर्गनाइजर, दीवाली, 1964 ( अंग्रेजी से अनूदित)