सिद्धांत और नीतियां

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

जनवरी, 1965 में विजयवाड़ा में जनसंघ के बारहवें सार्वदेशिक अधिवेशन में स्वीकृत दस्तावेज

(गतांक से…)

अर्थव्यवस्था की कसौटी

राज्य व्यवस्था की भांति अर्थव्यवस्था का निष्कर्ष भी मानव का सर्वतोन्मुखी विकास होना चाहिए। मानव का सुख ही अर्थोत्पादन का प्रमुख लक्ष्य है तथा मानव शक्ति उसका प्रधान साधन है। प्रकृति के साधनों का उपयोग कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयास ही मानव की आर्थिक क्रियाओं का उद्देश्य रहा है। जो इस उद्देश्य की सफल पूर्ति के साथ-साथ मानव के सर्वांगीण विकास में सहायक हो सके, वहीं उपयुक्त व्यवस्था है। जिस व्यवस्था में आर्थिक क्षमता तो बढ़े, किंतु मानवता के अन्य अंगों के विकास की शक्ति कुंठित हो जाए, वह कल्याणकारी नहीं हो सकती। मानव ही हमारी व्यवस्था का केंद्र होना चाहिए।

संपूर्ण मानव का विचार न केवल एक अर्थपरायण मानव का सभी कृतियों का केंद्र बनाकर, विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अधूरी है। अधिकतम लाभ की स्थायी आकांक्षा इस व्यवस्था की प्रेरक तथा प्रतिस्पर्धा की नियामक शक्ति है। यह भाव भारतीय जीवन दर्शन से बेमेल है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से उत्पन्न समस्याओं की प्रतिक्रिया में कल्पित समाजवाद के उद्देश्य श्लाघ्य होने के उपरांत भी परिणाम में मानव हितकारी सिद्ध नहीं हुए। क्योंकि वैज्ञानिक समाजवाद के उद्गाता कार्ल मार्क्स का व्यक्ति और समाज का विश्लेषण मूलतः भौतिकवादी है और इसीलिए अधूरा है। वर्ग-संघर्ष की भूमिका में एक स्वेच्छया स्थायी सहयोग की भावना पैदा नहीं हो सकती।

पूंजीवादी और समाजवादी दोनों व्यवस्थाओं में पूंजी के स्वामित्व के विषय में मतभेद है, किंतु दोनों की परिणति केंद्रीकरण तथा एकाधिपत्य में होती है। फलतः दोनों मानव की उपेक्षा करती हैं। हमें ऐसी अर्थव्यवस्था चाहिए, जिसमें व्यक्ति की अपनी प्रेरणा बनी रहे तथा वह समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ अपने संबंधों में मानवता का विकास कर सके। विकेंद्रित अर्थव्यवस्था ही इस लक्ष्य को सिद्ध कर सकती है।

विकेंद्रित अर्थव्यवस्था

शक्ति का केंद्रीकरण लोकतंत्र एवं मानव-स्वतंत्रता के अनुकूल है। राष्ट्रीय एकात्मकता के अधीन राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियों का भौगोलिक एवं व्यावसायिक दोनों ही दृष्टियों से विकेंद्रीकरण होना चाहिए। पाश्चात्य देशों में औद्योगीकरण की जो ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है, उससे शक्तियों का केंद्रीकरण हुआ है। सीमित समवाय, प्रबंध अधिकरण तथा सूत्रधारी समवाय आदि की क़ानूनी व्यवस्थाओं ने इसका पोषण किया है। पूँजीवादी व्यवस्था के अनेक दोष केंद्रीकरण को देन हैं।

समाजवाद की व्यवस्था ने केंद्रीकरण को रोकने की कोई चेष्टा नहीं की। उसने व्यक्तियों के हाथ से पूँजी के स्वामित्व को छीनकर राज्यों के हाथों में सौंपने मात्र से संतोष कर लिया। किंतु इससे राजनीतिक और आर्थिक दोनों शक्तियों के एक स्थान पर एकत्र होने के कारण केंद्रीकरण तथा उसके दोषों में और अधिक वृद्धि हुई है। रोग का इलाज विकेंद्रीकरण से ही संभव है। आर्थिक और सामाजिक संस्थाओं का इस उद्देश्य से पुनर्निर्धारण करना होगा। विज्ञान की आधुनिकतम खोजें और प्रौद्योगिकी विकेंद्रित उद्योगों के पक्ष में है। मानव व्यक्तित्व को बनाए रखने और उसके सर्वतोमुखी विकास की इस व्यवस्था में सर्वाधिक सुविधा है। निजी या सहकारी स्वामित्व में छोटे यंत्रचालित उद्योग, छोटा व्यापार और कृषि हमारी अर्थव्यवस्था के मूल आधार हों। बड़े उद्योगों का विचार अपवाद रूप में ही किया जाए।

प्रगति के मानदंड

जन्म लेनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के भरण-पोषण की, उसके शिक्षण की, जिससे वह समाज के एक जिम्मेदार घटक के नाते अपना योगदान करते हुए अपने विकास में समर्थ हो सके, उसके लिए स्वस्थ एवं क्षमता की अवस्था में जीविकोपार्जन की और यदि किसी भी कारण वह संभव न हो तो भरण-पोषण की तथा उचित अवकाश की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी समाज की है। प्रत्येक सभ्य समाज इसका किसी-न किसी रूप में निर्वाह करता है। प्रगति के यही मुख्य मानदंड हैं। अत: न्यूनतम जीवन स्तर को गारंटी, शिक्षा, जीविकोपार्जन के लिए रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण को हमें मूलभूत अधिकार के रूप में स्वीकार करना होगा।

एकात्म मानववाद

हमारी संपूर्ण व्यवस्था का केंद्र मानव होना चाहिए, जो ‘यत् पिन्डे तत् ब्रह्माण्डे’ के न्यायानुसार समष्टि का जीवंत प्रतिनिधि एवं उसका उपकरण है। भौतिक उपकरण मानव के सुख के साधन हैं, साध्य नहीं। जिस व्यवस्था में भिन्न रुचिलोक का विचार केवल एक औसत मानव से अथवा शरीर-मन-बुद्धि एवं आत्मायुक्त अनेक एषणाओं से प्रेरित पुरुषार्थ चतुष्ट्यशील पूर्ण मानव के स्थान पर एकांगी मानव का ही विचार किया जाए, वह अधूरी है। हमारा आधार एकात्म मानव है, जो अनेक एकात्म समष्टियों का एक साथ प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखता है। एकात्म मानववाद (Integral Humanism) के आधार पर हमें जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विकास करना होगा।

मानवतावाद के नाम से कई विचारधाराएं प्रचलित रही हैं। किंतु उनका विचार भारतीय संस्कृति के चिंतन से अनुप्राणित न होने के कारण मूलतः भौतिकवादी है। मानव के नैतिक स्वरूप अथवा व्यवहार के लिए वे कोई तात्त्विक विवेचन प्रस्तुत नहीं कर पाई। आध्यात्मिकता को अमान्य कर मानव तथा मानव और जगत् के संबंधों एवं व्यवहार की संगति नहीं बिठाई जा सकती।
आह्वान

वास्तव में समाज में प्रचलित अनेक कुरीतियां, जैसे छुआछूत, जाति-भेद, दहेज, मृत्युभोज, नारी अवमानना आदि भारतीय संस्कृति और समाज के स्वास्थ्य की सूचक नहीं, बल्कि रोग लक्षण हैं

भारत के अधिकांश राजनीतिक दल पाश्चात्य विचारों को लेकर ही चलते हैं। वे वहां की किसी-न-किसी राजनीतिक विचारधारा से संबद्ध एवं यहां के दलों को अनुकृति मात्र है। वे भारत की मनीषा को पूर्ण नहीं कर सकते और न चौराहे पर खड़े विश्व मानव का मार्गदर्शन कर सकते हैं।

भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा लेकर चलनेवाले भी कुछ राजनीतिक दल हैं। किंतु वे भारतीय संस्कृति की सनातनता को उसकी गतिहीनता समझ बैठे हैं और इसलिए बीते युग की रूढ़ियों अथवा यथास्थिति का समर्थन करते हैं। संस्कृति के क्रांतिकारी तत्त्व की ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती। वास्तव में समाज में प्रचलित अनेक कुरीतियां, जैसे छुआछूत, जाति-भेद, दहेज, मृत्युभोज, नारी अवमानना आदि भारतीय संस्कृति और समाज के स्वास्थ्य की सूचक नहीं, बल्कि रोग लक्षण हैं। भारत के अनेक महापुरुष, जिनकी भारतीय परंपरा और संस्कृति के प्रति अनन्य निष्ठा थी, इन बुराइयों के विरुद्ध लड़े। आज के अनेक आर्थिक और सामाजिक विधानों की हम जांच करें तो पता चलेगा कि वे हमारी सांस्कृतिक चेतना के क्षीण होने के कारण युगानुकूल परिवर्तन और परिवर्धन की कमी से बनी हुई रूढ़ियां, परकीयों के साथ संघर्ष की परिस्थिति से उत्पन्न मांग को पूरा करने के लिए अपनाए गए उपाय अथवा परकीयों द्वारा थोपे गए या उनका अनुकरण कर स्वीकार की गई व्यवस्थाएं मात्र हैं। भारतीय संस्कृति के नाम पर उन्हें जिंदा नहीं रखा जा सकता।

एकात्म मानव विचार भारतीय और भारत-बाह्य सभी चिंतनधाराओं का सम्यक् आकलन करके चलता है। उनकी शक्ति और दुर्बलताओं को भी परखता है और एक ऐसा मार्ग प्रशस्त करता है, जो मानव को अब तक के उसके चिंतन, अनुभव और उपलब्धि की मंजिल से आगे बढ़ा सके।

पाश्चात्य जगत् ने भौतिक उन्नति तो की, किंतु उसकी आध्यात्मिक अनुभूति पिछड़ गई। भारत भौतिक दृष्टि से पिछड़ गया और इसलिए उसकी आध्यात्मिकता शब्द मात्र रह गई। ‘नाध्यमात्मा बलहीनेन लभ्यः’ अर्थात् अशक्त आत्मानुभूति नहीं कर सकता। बिना अभ्युदय के निःश्रेयस की सिद्धि नहीं होती। अतः आवश्यक है कि ‘बलमुपास्व’ के आदेश के अनुसार हम बल संवर्धन करें, अभ्युदय के लिए प्रयत्नशील हों, जिससे अपने रोगों को दूर कर स्वास्थ्य लाभ कर सकें तथा विश्व के लिए भार न बनकर उसकी प्रगति में साधक हो सकें।

राष्ट्रीय नीति

भारतीय संस्कृति के शाश्वत, प्रवहमान, दैवी एवं समन्वयकारी तत्त्वों को ही एकात्म मानव के धर्म की संज्ञा दी गई है। यह वह आदर्श है, जो हमारी दिशा निश्चित करेगा। आदर्शोन्मुख रहते हुए भी जनसंघ किसी वाद को लेकर हठवादी बनना उचित नहीं समझता। आदर्श की व्यवहार में परिणति आवश्यक है। उसके लिए यथार्थ के ठोस धरातल का आकलन कर ही कार्यक्रम बनाने होंगे। यथार्थ ही प्रयत्नों की उपलब्धियों के माप तथा सिद्धांतों की कसौटी है। इस पृष्ठभूमि में भारत की वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारतीय जनसंघ निम्नलिखित नीति और कार्यक्रम निर्धारित करता है।

एक देश

उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी पर्यंत समस्त भारतवर्ष भौगोलिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से सदैव एक और अखंड रहा है। इस जीवंत एकता तथा अखंडता की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्ति हुई है। देश के कण-कण के प्रति अपना पवित्र एवं अटूट प्रेम प्रकट करने के लिए हमने उसकी भारतमाता के रूप में उपासना की है। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजी राज्य की समाप्ति के साथ भारत की चली आई एकता को भी खंडित कर दिया गया। भारतभूमि पर पाकिस्तान का अस्तित्व केवल एक स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता ही नहीं, अपितु एक संस्कृति एवं एक राष्ट्र के सत्य सिद्धांत के विपरीत दो संस्कृतियों एवं दो राष्ट्रों के सिद्धांतों को मूर्तिमान करने का प्रयत्न है। यह प्रवृत्ति भारत के मानस की विकृति है। अत: उससे अनेक समस्याओं का जन्म हुआ है। भारतीय जनसंघ की नीतियों का लक्ष्य रहेगा कि भारत और पाकिस्तान के विलगाव को दूर कर उन्हें एक साथ लाया जाए।

भारतीय जनसंघ संपूर्ण जम्मू और कश्मीर राज्य को भारत का अभिन्न अंग मानता है। भारत का संविधान अन्य प्रदेशों की भांति ही इस प्रदेश पर लागू होना आवश्यक है। पुर्तगाली तथा फ्रांसीसी शासन से मुक्त भारतीय भू-भाग’ संलग्न प्रदेशों में जोड़ दिया जाए।

(क्रमश:…)