सिद्धांत और नीतियां

| Published on:

पं. दीनदयाल उपाध्याय

जनवरी, 1965 में  विजयवाड़ा में जनसंघ के बारहवें सार्वदेशिक अधिवेशन में स्वीकृत दस्तावेज

(गतांक से…)

राष्ट्रीय सुरक्षा

राष्ट्र की सीमाओं का व्याप, उनकी स्थिति, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, पड़ोसियों की नीति और तैयारी का ध्यान रखकर सुरक्षा बल की सभी शाखाओं का पर्याप्त विकास कर उन्हें आधुनिकतम शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित किया जाए।

देश की अर्थनीति और विदेश नीति के निर्धारण में सुरक्षा की आवश्यकताओं पर विशेष बल दिया जाए। राष्ट्र को मानसिक एवं शारीरिक, दोनों दृष्टियों से सुरक्षा सन्नद्ध करने के लिए जनसंघ निम्नलिखित कदम उठाना आवश्यक समझता है-

1. राष्ट्र के युवकों के लिए दो वर्ष की अनिवार्य सैनिक भरती।
2. सुरक्षा सेनाओं की सभी शाखाओं का स्वरूप और अंतःस्फूर्ति दोनों दृष्टियों से पूर्ण भारतीयकरण।
3. रक्षा संबंधी उद्योगों का पर्याप्त विकास।
4. परमाणु अस्त्रों का निर्माण।
5. एक विशाल प्रादेशिक सेना का संगठन।

सीमांत क्षेत्रों का विकास

सीमांत क्षेत्रों के विकास की विशेष व्यवस्था होनी चाहिए तथा वहां के निवासियों को पूर्णत: सुसज्जित किया जाए, जिससे वे एक दृढ रक्षापंक्ति का काम कर सकें तथा सीमा के छोटे-मोटे उल्लंघनों को रोक सकें। पाकिस्तान से लगी सीमा के क्षेत्रवासी पाकिस्तान की घुसपैठ की योजनाओं को निष्फल करने में समर्थ हो सकें, इस दृष्टि से उस क्षेत्र की रचना की जाए।

भाषा नीति

भारत में अनेक भाषाएं और बोलियां हैं। वे भारतीय जीवन की आधारभूत एकता की अभिव्यक्ति का प्रभावी माध्यम रही हैं। उनमें कोई प्रकृति भेद नहीं है, प्रत्युत उनका संस्कृत के साथ आधारभूत संबंध होने के कारण तथा समान विचारधारा, समान धर्म, समान ज्ञान-विज्ञान होने के कारण उनकी एक बड़ी समान शब्दावली है तथा एक ही समाज की भावनाओं की अभिव्यक्ति के कारण उनके साहित्य की आत्मा एक है। पश्चिम के ज्ञान और विज्ञान को प्रकट करने के लिए आज सभी भारतीय भाषाओं में पारिभाषिक शब्दावली के सृजन की आवश्यकता है। केंद्र के निर्देशन में समान शब्दावली का निर्माण इस कार्य को सुकर बनाएगा तथा इन भाषाओं के स्वरूप की निकटता को आगे बढ़ाएगा।
शासन और शिक्षा, उद्योग और व्यापार सभी क्षेत्रों में स्वभाषाओं का प्रयोग स्वराज्य की स्वाभाविक परिणति है। राष्ट्रीय मनीषा को प्रकट करनेवाले जन-व्यवहार तथा जन आंदोलनों के परिणामस्वरूप भारतीय भाषाओं के प्रयोग क्षेत्र का एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में विकास हुआ है। हमारा कर्तव्य है कि इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाएं। शासन एवं शिक्षा के क्षेत्र की भाषा नीति का निर्धारण इसी आधार पर होना चाहिए।

राष्ट्रभाषा संस्कृत

संस्कृत सदैव से भारत की राष्ट्रभाषा रही है। संस्कृत को इस रूप में मान्यता मिलनी चाहिए तथा विशेष संस्कार के अवसरों पर उसका प्रयोग करना चाहिए।

राजभाषा

भारत की भाषाओं में हिंदी ही सर्वाधिक समझी जानेवाली तथा पिछले अनेक वर्षों अखिल भारतीय भाषा के रूप में विकासमान भाषा है। संविधान ने उसे केंद्रीय भाषा के रूप में अंगीकार कर इस तथ्य को स्वीकार किया है। देवनागरी लिपि में हिंदी का प्रयोग केंद्रीय राजभाषा के रूप में होना चाहिए।
विभिन्न प्रदेशों में वहां की भाषाएं राज-काज में प्रयुक्त होनी चाहिए। केंद्रीय शासन के जिन विभागों का जनता के साथ सीधा संबंध है, वहां क्षेत्रीय भाषाओं का व्यवहार हो।

भारतीय भाषाओं के राजभाषा के रूप में व्यवहार के कारण राजसेवा में भरती तथा पदोन्नति के संबंध में उन व्यक्तियों के मन में आशंकाएं पैदा हो सकती हैं, जिनको इन भाषाओं का पर्याप्त ज्ञान नहीं है। अंतरिम काल के लिए उन्हें इस विषय में आश्वस्ति देनी चाहिए।

अनुसूचित भाषाएं

भारत की सभी भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं। अतः भारत के किसी भी भू-भाग में किसी भी अनुसूचित भाषा में प्रशासनाधिकारियों को आवेदन देने पर प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। सिंधी का अनुसूचित भाषाओं में समावेश हो।

उर्दू अलग भाषा न होकर हिंदी की एक शैली है, जिसका साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके विकास के लिए आवश्यक है कि वह नागरी लिपि में लिखी जाए।

संविधान में अनुसूचित भाषाओं के अतिरिक्त भी भारत में अनेक लोकभाषाएं हैं। इनका विकास तथा संबंधित क्षेत्रीय भाषा के साथ उनका निकट का संबंध दोनों के लिए पोषक होगा तथा हमारे साहित्य को सही अर्थ में जनजीवन का आदर्श बनाएगा।

शिक्षा

शिक्षा व्यक्ति का सामाजिक अधिकार है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति समाज के साथ एकात्म होता है तथा अपने व्यक्तित्व की साधना के मार्ग तथा लक्ष्य को पाता है। शिक्षा के सहारे मानव की अद्यतन संचित ज्ञाननिधि हस्तांतरित होती है। इस पूंजी को लेकर ही मानव समष्टि को अपना योगदान करता है। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को इस योग्य बनाना है कि वह अपनी वृत्ति का अनुपालन करता हुआ राष्ट्र के एक उत्तरदायी एवं संवेदनशील घटक के के नाते अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सके। साक्षरता, पुस्तक ज्ञान तथा तंत्रपटुता के साथ शारीरिक शक्ति का विकास, बुद्धि उद्बोधन, शील-संवर्धन, आदर्शों का प्रतिस्थापन, सामाजिकता एवं शिष्टाचार का स्वभाव-निर्माण शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य हैं। स्पष्ट है कि यह शिक्षा राष्ट्रीय जीवन मूल्यों से अलग हटकर नहीं दी जा सकती। इस दृष्टि से शिक्षा के भारतीयकरण तथा अभिनवीकरण की आवश्यकता है, जिसकी कमी का अनुभव बहुत दिनों से व्यापक रूप से होते हुए भी उसे पूरा करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए गए।

शिक्षा व्यक्ति का सामाजिक अधिकार है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति समाज के साथ एकात्म होता है तथा अपने व्यक्तित्व की साधना के मार्ग तथा लक्ष्य को पाता है

शिक्षा व्यवस्था

प्रजा को शिक्षा की उपेक्षा न करने देना, शिक्षा संबंधी कार्यों में उनकी सहायता करना, प्रत्येक स्थान पर विद्वान् गुरुओं का प्राचुर्य रखना, देशकाल निमित्तों को शिक्षा के अनुकूल रखना, स्थान-स्थान पर शिक्षाश्रमों की व्यवस्था करना, स्नातकों एवं आचार्यों का योगक्षेम करना, सर्वतः उनके उत्साह को बढ़ाए रखना राज्य के परंपरागत कर्तव्य हैं।

राज्य की शिक्षा नीति का निम्नलिखित लक्ष्य होना चाहिए

1. माध्यमिक स्तर तक प्रत्येक बालक और बालिका के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा का प्रबंध। यह स्तर इतना हो कि व्यक्ति विषयों के सामान्य ज्ञान के साथ आवश्यकतानुसार जीविकोपार्जन की क्षमता प्राप्त कर सके।
2. उच्च शिक्षा के लिए इच्छुक विद्यार्थियों के शिक्षण की उपयुक्त एवं पर्याप्त व्यवस्था।

स्वायत्त शिक्षा

शिक्षा का व्यय राज्य द्वारा वहन होने के उपरांत भी उसका सरकारीकरण नहीं होना चाहिए। प्रत्येक क्षेत्र में शिक्षा संस्थाओं का प्रबंध करने के लिए शिक्षकों तथा शिक्षाविदों के स्वायत्त निकाय होने चाहिए। सरकार के विभाग के रूप में उनका चलाना ठीक नहीं। सरकारी और ग़ैर-सरकारी शिक्षण संस्थाओं का भेद समाप्त कर देना चाहिए। सभी क्षेत्रों के शिक्षकों के वेतनक्रम एवं अन्य सुविधाएं ऐसी हों, जिससे योग्य व्यक्ति शिक्षा के क्षेत्र में आने में संकोच न करे। शिक्षा संस्थाओं को मैनेजरों अथवा प्रबंध समिति की निजी संपत्ति बनने देना उचित नहीं।

शिक्षा समाज में भेद निर्माण करनेवाली न होकर उसमें एकात्म भाव निर्माण करनेवाली हो। भारत के ‘पब्लिक स्कूल’ इस उद्देश्य के प्रतिकूल हैं। आवश्यकता है कि सभी शिक्षण संस्थाओं का स्तर ऊंचा उठाया जाए।

शिक्षा का माध्यम

स्वभाषा के बिना जनता का विकास संभव नहीं है। जब तक भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम नहीं बनाया जाता, तब तक न तो हम सभी जनों को साक्षर और शिक्षित कर सकेंगे और न उस पैमाने पर तंत्र एवं अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञ उत्पन्न कर सकेंगे, जिनकी हमारी विकास योजनाओं को आवश्यकता है। मौलिक चिंतन तथा खोज तो परायी भाषा द्वारा प्राप्त ज्ञान में सहज संभव ही नहीं।
जनसंघ अंग्रेज़ी या अन्य विदेशी भाषाओं का विरोधी नहीं। दुनिया के विभिन्न देशों के साथ संपर्क बढ़ाने तथा ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए हमें अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, रूसी, स्पैनिश, जापानी, स्वाहिली, अरबी, फारसी आदि अनेक भाषाओं का अध्ययन करना होगा। आज शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी के प्रभुत्व एवं एकाधिकार ने हमें इन भाषाओं से भी दूर कर दिया है। फलतः आज हम दुनिया को अंग्रेजी भाषा-भाषी जगत् के चश्मे से ही देख रहे हैं। अंग्रेजी हमको दुनिया के साथ जोड़नेवाली कड़ी नहीं, बल्कि बहुत बड़े भाग से तोड़नेवाली कड़ी सिद्ध हो रही है।

शिक्षा क्षेत्र में भाषा के संबंध में यह नीति होनी चाहिए—

1. प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाए।
2. माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा प्रादेशिक भाषा के माध्यम से दी जाए और हिंदी का अध्ययन अनिवार्य हो।
3. हिंदीभाषी विद्यार्थियों के लिए किसी अन्य भारतीय भाषा का ज्ञान आवश्यक हो।
4. राष्ट्र-भाषा संस्कृत की शिक्षा अनिवार्य हो।
जहां क्षेत्रीय भाषा के अतिरिक्त किसी दूसरी भाषा के विद्यार्थियों की पर्याप्त संख्या हो, वहां उस भाषा के माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था की जाए। हिंदी माध्यम से पढ़ानेवाली शिक्षण संस्थाओं की देश भर में व्यवस्था हो।
(क्रमश:…)