सिद्धांत और नीतियां

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

जनवरी, 1965 में िवजयवाड़ा में जनसंघ के बारहवें सार्वदेशिक अधिवेशन में स्वीकृत दस्तावेज

(गतांक से…)

लोक शिक्षा

शालेय अध्ययन के अतिरिक्त लोक-संस्कार, स्वाध्याय, लोकमत परिष्कार भी शिक्षा के साधन हैं। इस दृष्टि से रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, संगीत तथा पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकालयों, क्लबों आदि का भरपूर उपयोग किया जा सकता है। इनकी योग्य व्यवस्था की ओर राज्य को ध्यान देना चाहिए।
रेडियो और टेलीविजन को सरकारी विभाग के स्थान पर एक स्वायत्त निगम के रूप में चलाना चाहिए।
चित्रपट लोक-शिक्षा का एक अत्यंत प्रभावी साधन है। अभिव्यक्ति के इस माध्यम का विकास करना चाहिए। किंतु शासन को यह ध्यान रखना चाहिए कि चित्रपट लोकमत-परिष्कार तथा सुरुचि पैदा करने के साधन बनने के स्थान पर लोगों की रुचि बिगाड़नेवाले न बनें।

विदेश नीति

राष्ट्र के उदात्त हितों का संरक्षण ही किसी देश की विदेश नीति का प्रमुख आधार है। भारतीय राष्ट्र की प्रकृति और परंपरा साम्राज्यवादी विस्तारवाद के प्रतिकूल मानव की समानता और आत्मीयता के आधार पर विश्व-एकता की रही है। विश्व शांति और विश्व की एकता भारत की राष्ट्रीय मनीषा है। जब तक विश्व में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद कायम है, जब तक रंग, धर्म और विचारों के भेद के आधार पर दूसरों को हेय समझने की प्रवृत्ति मौजूद है, जब तक राष्ट्रों के बीच भारी आर्थिक विषमताएं और उनके कारण शोषण विद्यमान है और जब तक दुनिया में युद्ध और शांति की ठेकेदारी दो-चार बड़े राष्ट्रों के पास है, तब तक विश्व में तनाव कम नहीं होंगे तथा हम सदैव ही एक कगार पर खड़े रहेंगे। आवश्यकता है कि पराधीन राष्ट्र स्वतंत्र हों, मानवाधिकारों की सर्वत्र मान्यता हो, विश्व को समान स्तर पर लाया जाए, विभिन्न राष्ट्रों के बीच सहयोग का क्षेत्र विस्तृत हो तथा अंतरराष्ट्रीय संस्था के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ अधिक सबल, प्रातिनिधिक एवं न्याययुक्त आधार पर विकसित हो। ऐसे अंतरराष्ट्रीय मोरचों का विकास भी आवश्यक है, जहां राज्यों के शासकीय प्रतिनिधियों के स्थान पर जन प्रतिनिधि एकत्र होकर मोरचों में राष्ट्र-राष्ट्र के बीच विद्यमान खाई को पाट सकें। भारतीय दर्शन विश्व की विविधता को स्वीकार करता है। अतः भारतीय जनसंघ प्रत्येक राष्ट्र के मूलभूत अधिकार को मानता है कि वह अपनी जीवन पद्धति का स्वयं अपनी इच्छानुसार निर्माण करे तथा इस विचार का विरोध करता है कि सब एक ही सांचे में ढल जाएं।

विदेशों से संबंधों का आधार

विश्व के विभिन्न देशों के साथ भारत के संबंधों का निर्धारण किसी एक मोटे नियम के अधीन नहीं हो सकता। सबकी मित्रता और सद्भावना के इच्छुक भारत को मूलत: सम-सहयोग की नीति लेकर चलना होगा। बिना शक्ति और पौरुष के शांति की आकांक्षा दुर्जनों को बढ़ावा देनेवाली और अंत में शांति के लिए घातक होती है। भारत को अपनी विदेश नीति तेजस्वी बनानी होगी। अंतिम लक्ष्यों को सामने रखते हुए उसे परिस्थिति के अनुसार विभिन्न राष्ट्रों के साथ शत्रु-मित्र भावों का निर्धारण यथार्थवादी आधार पर करना होगा। किसी भी एक अपरिवर्तनीय नीति से बंधे रहना अनीतिमत्तापूर्ण होगा। विश्व को दो शक्ति गुटों के बीच बंटा मानकर किसी के साथ लगाव या तटस्थता का विचार बीते दिनों की बात तथा अयथार्थपूर्ण है।

आक्रांत भू-भाग की मुक्ति

कम्युनिस्ट चीन और पाकिस्तान दोनों ही भारत के स्वाभाविक शत्रु हैं। दोनों ने भारत की सीमाओं पर अतिक्रमण करके देश के बड़े भू-भाग पर बलात् अधिकार कर रखा है। अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में भारत का अहित ही दोनों की नीतियों का प्रमुख लक्ष्य है। भारत का प्रयत्न होना चाहिए कि वह अपने खोए हुए भागों को वापस ले तथा दोनों की आक्रामक प्रवृत्तियों को प्रतिबंधित करे।

पाकिस्तान के प्रति दृढ़ता

पाकिस्तान की जनता मूलत: भारतीय राष्ट्र का अंग है। वह पृथकतावादी राजनीतिक शक्तियों का शिकार बनकर अलग हुई है। पाकिस्तान की निर्मिति के बाद से वह बराबर पीड़ित है। जिस स्वर्ग की उसे आशा दिखाई गई थी, वह मृग मरीचिका सिद्ध हुई। पाकिस्तान के शासक भारत-विरोधी भावनाएं भड़काकर अपना आसन स्थिर करने की नीति लेकर चल रहे हैं। भारत द्वारा अपनाई गई तुष्टीकरण की नीति ही उनका सबसे बड़ा बल है। भारत यदि दृढता की नीति अपनाए तो पाकिस्तानी विरोध का बुलबुला अधिक दिनों तक नहीं टिक सकता।

कम्युनिस्ट चीन का संकट

कम्युनिस्ट चीन भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व के लिए एक संकट बना हुआ है। सभी शांतिवादी एवं सह-अस्तित्व के पुजारी देशों के सहयोग से कम्युनिस्ट चीन की विस्तारवादी एवं युद्धलोलुप प्रवृत्ति का विरोध करना होगा। तिब्बत, सिंक्यांग, मंचूरिया और मंगोलिया की स्वतंत्रता फारमोसा सरकार की मान्यता तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों की चीन प्रभाव से मुक्ति इस दृष्टि से आवश्यक है।

उत्पादन वृद्धि के बिना देश की समृद्धि संभव नहीं।
किंतु समृद्धि की साधना और फल में सभी लोग साझीदार
हों, इस हेतु हमें समतर वितरण का भी ध्यान रखना होगा

सांस्कृतिक संबंधों का पुनरुज्जीवन

दक्षिण-पूर्व एशिया तथा अन्य देशों के साथ भारत के ऐतिहासिक सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। इन संबंधों को पुनरुज्जीवित कर सुदृढ़ करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए।

भारतीय प्रवासी

विश्व के अनेक देशों में भारतीय प्रवासी विभिन्न कारणों से जाकर बसे हैं। उन देशों के विकास में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन देशों की स्वतंत्रता के बाद कहीं-कहीं उनके साथ विभेदपूर्ण व्यवहार हुआ है, जिससे वे भविष्य के प्रति आशंकित हैं। भारत का यह दायित्व है कि उन प्रवासियों को समान अधिकार प्राप्त हों, जिससे वे उन देशों की प्रगति में अपना समुचित योगदान कर सकें।

अफ्रीकी देशों से संबंध

अफ्रीकी देशों की स्वतंत्रता सदैव से भारत की रुचि और समर्थन का विषय रही है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का उनके साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। इन स्वतंत्र देशों के साथ सहयोग और मित्रता के संबंध सुदृढ़ करने की नीति बढ़नी चाहिए।

आर्थिक नीति

भारत की वर्तमान अर्थव्यवस्था विशृंखलित है। वह न तो व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है और न समाज के सुरक्षा सामर्थ्य की गारंटी दे सकती है। उसका पुनर्गठन करना होगा।

स्वदेशी का मंत्र

उत्पादन वृद्धि के बिना देश की समृद्धि संभव नहीं। किंतु समृद्धि की साधना और फल में सभी लोग साझीदार हों, इस हेतु हमें समतर वितरण का भी ध्यान रखना होगा। वितरण को सुधारे बिना न तो आज का निर्धन धनवान् होने का अनुभव कर सकेगा और न उत्पादन वृद्धि के लिए आवश्यक क्षमता और संकल्प जुटा सकेगा। पैदा माल की खपत के लिए बाजार का विस्तार जनसामान्य की क्रयशक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि से ही संभव है।

अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाने तथा उत्पादन वृद्धि के लिए पूंजी-निर्माण आवश्यक है। पूंजी के लिए बचत और साहस चाहिए। भारत में अधिकांश लोगों का जीवन स्तर इतना नीचा है कि उपभोग को टालकर बचत की गुंजाइश ही नहीं। साथ ही, परानुकरण से उत्पन्न दिखावा करने की प्रवृत्ति तथा जीवन-मूल्यों में परिवर्तन के कारण जीवन स्तर की धारणा में भी अंतर आया है। हमारी उपभोग-प्रवणता, गुण और मात्रा दोनों में, बड़ी तेजी से बदल रही है। फलत: पुराने धंधों में बेकारी और विपूंजीकरण तथा नए में अभाव की स्थिति पैदा हो गई है। आधुनिकीकरण के नाम पर पाश्चात्यीकरण तेजी से आ रहा है। सामाजिक क्षेत्र के अतिरिक्त आर्थिक क्षेत्र में भी इससे अनेक समस्याएं तथा अवांछनीय प्रवृत्तियां जन्म ले रही हैं। आवश्यकता इस बात की है कि स्वदेशी के मंत्र का पुनरुच्चार किया जाए। इससे आवश्यक संयम एवं स्वावलंबन का भाव जागेगा तथा अनावश्यक रूप से विदेशी पूंजी पर निर्भरता के व्यामोह तथा उसके प्रभाव से बचेंगे।

नियोजन

राष्ट्र के साधनों को न्यूनतम काल में अधिकतम लाभ के लिए प्रयुक्त करने की दृष्टि से आर्थिक नियोजन की आवश्यकता है। किंतु योजना साधन है, साध्य नहीं। उसका निर्माण राज्य की स्थायी निष्ठाओं की मर्यादाओं के अंतर्गत ही करना होगा। भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता, लोकतंत्र तथा भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्य वे निष्ठाएं हैं, जिनके प्रतिकूल अर्थोत्पादन की कोई योजना स्वीकार नहीं की जा सकती। वास्तव में ये मर्यादाएं नियोजकों के मार्ग में रुकावट नहीं, बल्कि उनके संबल हैं। यदि उनका सही-सही उपयोग किया जाए तो उनसे राष्ट्र के सामूहिक प्रयत्नों को भारी बल मिल सकता है। कल की समृद्धि के लिए आज के कष्टों की प्रेरणा केवल आर्थिक उद्देश्यों से नहीं मिल सकती। जन-मन में योजना की सिद्धि की आकांक्षा जाग्रत् करने के लिए उसे आदर्शवादी बनना होगा, किंतु उसके लक्ष्य जनता के संभव सामर्थ्य की कल्पना कर यथार्थ की ठोस भूमि पर ही निर्धारित करने चाहिए।

(क्रमश:…)