सिद्धांत और नीतियां

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

जनवरी, 1965 में विजयवाड़ा में जनसंघ के बारहवें सार्वदेशिक अधिवेशन में स्वीकृत दस्तावेज

(गतांक से…)

भारत प्रजातंत्रवादी देश है। हम रूस, चीन या दूसरे कम्युनिस्ट देशों की भांति एक अधिनायकवादी पद्धति नहीं अपना सकते। अतः हमें वही योजना बनानी होगी, जिसका कार्यान्वयन लोकतंत्रीय पद्धति से हो सके। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए पूर्ण सुविचारित, विवरणमूलक योजना बनानी चाहिए, किंतु निजी क्षेत्र में मोटे-मोटे लक्ष्य निश्चित करके लोगों को उनकी सिद्धि के लिए प्रयत्न करने को स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। निजी क्षेत्र में पण्य-व्यवस्था मुख्यतः नियामक है, सार्वजनिक क्षेत्र में प्रशासनिक आदेश नियामक हो सकता है। यदि संपूर्ण अर्थव्यवस्था का नियमन एवं नियंत्रण प्रशासनिक आदेशों के अधीन करने का प्रयत्न किया जाएगा तो चोरबाजारी जैसी समस्याएं पैदा हो जाएंगी तथा लोग अपने स्वातंत्र्य पर बंधन अनुभव करने लगेंगे। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए विवरणमूलक तथा संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए व्यापक नीति नियामक होनी चाहिए। वास्तव में तो योजना की व्यूह नीति होनी चाहिए। उन अवस्थाओं का निर्माण करनेवाली वित्तीय, मौद्रिक एवं औद्योगिक नीतियों को अपनाना, जिनमें व्यक्ति के साहस को अधिकाधिक प्रोत्साहन मिले तथा विनियोजन एवं वितरण बाज़ार-व्यवस्था के अंतर्गत ही वांछित दिशाओं में प्रवाहित हो। नियोजन, नीति-निर्धारण, नियमन, नियंत्रण और राष्ट्रीयकरण इनका क्रमावरोही रूप में प्रयोग करना चाहिए।

उद्देश्य— योजना के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिए—

1. राष्ट्र को सुरक्षा सक्षम बनाना।
2. पूर्ण रोजगार।
3. प्रत्येक कुटुंब की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए उसके स्तर को ऊंचा उठाना।
4. आय और संपत्ति की विषमताओं में कमी करना।
5. विकासमान अंतरराष्ट्रीय व्यापार को ध्यान में रखते हुए भी राष्ट्र को मूलभूत उपभोग एवं उत्पादक वस्तुओं में आत्मनिर्भर बनाना।
6. सभी क्षेत्रों और जनों का विकास।

वरीयताएं — यद्यपि कृषि, उद्योग, व्यापार और सेवाएं, इन चारों का संतुलित विकास ही एक अच्छी अर्थव्यवस्था का लक्षण है, और हमें इन सबकी ओर ध्यान देना होगा, किंतु विकास को गति देने के लिए निम्नलिखित वरीयताओं का निर्धारण होना चाहिए—
1. सुरक्षा उद्योगों की स्थापना।
2. कृषि उत्पादन में वृद्धि।
3. जीवन की आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन के लिए श्रम-प्रधान उद्योगों का विस्तार।
4. सार्वजनिक सेवाओं तथा मूलभूत उद्योगों की स्थापना।

मूल्य नीति

मूल्य नीति नियोजन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है। मूल्य समाज के विभिन्न वर्गों की उपभोग-क्षमता के सूचक ही नहीं, अपितु वे वितरण और विनियोजन की दिशा भी प्रभावित करते हैं। अर्थनीति के आधुनिकीकरण में मूल्यों का कुछ अंशों में बढ़ना स्वाभाविक है, किंतु जब वे तेजी से बढ़ते अथवा गिरते हैं या विभिन्न कालों और क्षेत्रों के मूल्यों में भारी अंतर होता है तब उनसे जनजीवन तो संत्रस्त होता ही है, नियोजित विकास में भी भारी कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं। यह अंतर उत्पादक या उपभोक्ता को लाभ नहीं पहुंचाता। इससे विनियोजन कृषि और उद्योगों की ओर प्रवाहित न होकर व्यापार और वितरण की ओर जाता है। सट्टे की प्रवृत्ति बढ़ती है। अत: मूल्यों का स्थिरीकरण अत्यंत आवश्यक है।
मूल्य नीति का उद्देश्य कच्चे और पक्के माल के मूल्य, वेतन और उजरत, ब्याज और लाभ के बीच सामंजस्य बनाए रखना तथा विनियोजन की आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। प्रशासकीय आदेशों के द्वारा मूल्यों को नियंत्रित करने के स्थान पर उन्हें वित्तीय, मौद्रिक, औद्योगिक आदि आर्थिक नीतियों एवं नियमन के उपायों से प्रभावित करना वांछनीय होगा।

खाद्य एवं कृषि

न्यूनतम आवश्यकताओं में से खाद्य एक ऐसी आवश्यकता है, जिसके बिना प्राणिमात्र जीवित नहीं रह सकता। ‘अन्न वै प्राणः’ अर्थात् अन्न ही जीवन है। खाद्य के संबंध में पर निर्भरता राष्ट्रीय, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से भी भारत के लिए हानिकारक है। जिन देशों से हम अन्न प्राप्त करते रहे हैं, उनको निर्यात करने योग्य हमारे पास विशेष कुछ नहीं है। फलतः विदेशी ऋणों पर निर्भर रहना पड़ रहा है। इन ऋणों की अदायगी अथवा विभिन्न समझौतों के अंतर्गत मिश्रधन का विनियोग समस्यापूर्ण है। खाद्य में आत्मनिर्भरता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी राष्ट्रीय स्वतंत्रता।

न्यूनतम आवश्यकताओं में से खाद्य एक ऐसी आवश्यकता है, जिसके बिना प्राणिमात्र जीवित नहीं रह सकता। ‘अन्न वै प्राणः’ अर्थात् अन्न ही जीवन है। खाद्य के संबंध में पर निर्भरता राष्ट्रीय, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से भी भारत के लिए हानिकारक है

अन्न, फल, दुग्ध, मांस, मछली, अंडे आदि खाद्य के अंतर्गत आते हैं। किंतु खाद्य पूर्ति की कोई भी योजना जनता के दृष्टिकोण, उसके संस्कार तथा भावनाओं का विचार करके ही बनानी होगी। कृषि, दूध और उससे बनी चीजें ही हमारे आहार का मुख्य अंग हैं। हमें उनके उत्पादन पर ही सर्वाधिक बल देना होगा।
जिस समाज में अधिकांश व्यक्ति खाद्योत्पादन में ही लगे रहें तथा खाद्योत्पादकों की क्रयशक्ति बहुत थोड़ी हो, वहां अर्थव्यवस्था के विविधीकरण तथा विकास की संभावना नहीं। भारत में आज 69.8 प्रतिशत व्यक्ति कृषि पर निर्भर हैं तथा उनमें अधिकांश भूमिहीन या इतने छोटे किसान हैं कि वे कठिनाई से जीवन निर्वाह के लिए अन्न पैदा कर पाते हैं। उनके पास बाजार में बेचने के लिए अनाज नहीं होता। जब तक कृषि का विपणनीय अतिरेक नहीं बढ़ता, तब तक न तो कृषितर पेशों में लगे व्यक्तियों को खाद्य की सुविधा होगी और न किसान का जीवन स्तर ऊंचा होगा। जबरिया गल्ला वसूली, लेवी या मजबूरी में बिक्री की पद्धतियों से किसान से गल्ला लेने का तरीका ठीक नहीं। उपयुक्त तो यह होगा कि एक ओर तो किसान के पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बेचने के लिए गल्ला हो और दूसरी ओर उसे उन वस्तुओं और सेवाओं की मांग हो, जो कृषि के अतिरिक्त किसी अन्य क्षेत्र में उपलब्ध हैं। इसके लिए खेती के उत्पादन में वृद्धि, खेती पर निर्भर व्यक्तियों की संख्या में कमी, फ़सल का अच्छा दाम तथा कृषक के जीवन स्तर को ऊंचा करने की चाह, इन उद्देश्यों को लेकर ग्राम विकास कार्यक्रम अपनाने होंगे। भारत में भूमि की कमी होने के कारण हमें प्रति व्यक्ति के साथ प्रति एकड़ अधिकतम उत्पादन करना होगा। खेती, लाभप्रद मूल्य तथा ग्रामों का औद्योगीकरण हमारे कार्यक्रम की आधारशिला होने चाहिए।

कृषि विकास के लिए भूधृति संबंधी विद्यमान संस्थाओं को बदलना होगा, कृषि की पद्धति में प्राविधिक सुधार करने होंगे तथा साधनों को जुटाने एवं विपणन की व्यवस्था के लिए संस्थाएं बनानी होंगी। इस दृष्टि से एक समन्वित एवं सुनियोजित कार्यक्रम हाथ में लेना चाहिए। ग्राम के उद्योग-धंधों का भी इसके साथ विचार आवश्यक है।

खेती करने की पद्धति में सुधार

जहां तक खेती की पद्धति का संबंध है, भारत के किसान ने परिस्थितियों के अनुरूप उपयुक्त पद्धतियों का विकास किया है। युगों से चली आई पद्धतियों को आज की उन प्रक्रियाओं के पक्ष में, जिन पर न तो पूरे-पूरे प्रयोग हुए हैं और न भारत की समसमान अवस्थाओं में उन प्रयोगों को किया गया है, एकाएक नहीं छोड़ देना चाहिए। भारत का किसान फसलों की अदल-बदलकर बुआई, हरी खाद का प्रयोग, मल-मूत्र की खाद का पकाकर उपयोग करना, भूक्षरण रोकने के लिए मेड़ बांधना तथा वृक्ष लगाना आदि विधियों को भली-भांति जानता है। उसने युगों से भूमि की उर्वरता को बनाए रखा है। हां, पिछले दिनों में विभिन्न कारणों से वह इस ज्ञान का पूरा उपयोग नहीं कर पाया है। उसके पूंजीगत साधनों को बढ़ाने तथा उसके मन में भूस्वामित्व के संबंध में निश्चिंतता पैदा करने की आवश्यकता है। नया प्रयोग और नया ज्ञान उसी अवस्था में संक्रमणशील रहता है, जब समसमान परिस्थितियों वाले व्यक्तियों का सफल अनुभव उसके पीछे हो। इस दृष्टि से गांवों में योग्य कृषकों को प्रोत्साहन और सहायता देनी चाहिए। सरकारी फार्मों के स्थान पर इन कृषकों के खेतों को ही मॉडल फार्म बनाना चाहिए।

उपज बढ़ाने तथा भूमि की उर्वरता टिकाए रखने के लिए खाद की आवश्यकता है। उर्वरक और खाद की मात्रा तथा क़िस्म मिट्टी, सिंचाई के साधन, फसल, उत्पादन की पद्धति आदि पर निर्भर है। प्रत्येक विकास खंड में एक परीक्षणशाला होनी चाहिए, जो इस हेतु आवश्यक जांच करके किसानों को उचित सलाह दे सके।

भारी ट्रैक्टर और मशीनों से खेती भारत के लिए अनुपयुक्त है। बंजर तोड़ने में उनका अवश्य उपयोग हो सकता है। अच्छे औजार, बैल, खाद, उन्नत बीज, ऋण तथा विपणन के लिए साधन, सहकारी समितियों का गठन उपयोगी होगा।

                                         (क्रमश: ….)