सिद्धांत और नीतियां

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

जनवरी, 1965 में विजयवाड़ा में जनसंघ के बारहवें सार्वदेशिक अधिवेशन में स्वीकृत दस्तावेज

(गतांक से…)

नवीन प्रौद्योगिकी

विज्ञान के मूलभूत सिद्धांत देश-काल निरपेक्ष होते हुए भी उनका प्रयोग कर उपयुक्त उत्पादन पद्धति का विकास, प्रत्येक देश में उपलब्ध उत्पादन के साधन एवं पण तथा वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक स्थिति सापेक्ष होते हैं। देश की आवश्यकताओं, उपलब्ध प्राकृतिक साधनों, विकसित तथा संभव शक्ति, श्रमिकों को संख्या तथा उनकी शिक्षा, प्रबंध कुशलता और तंत्रपटुता का स्तर एवं संक्रमणशीलता, प्राप्त पूंजी, क्रयशक्ति एवं पण तथा अर्थव्यवस्था के अन्योन्याश्रित अंगों की स्थिति का विचार करके ही हमें उपयुक्त मशीन का निर्धारण एवं निर्माण करना होगा। भारत को पश्चिम की प्रौद्योगिकी का अनुकरण करने के स्थान पर अपने लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी का आविष्कार करना चाहिए।

औद्योगिक विकेंद्रीकरण

भारत का औद्योगीकरण प्रमुखतः यंत्रचालित लघु उद्योगों के आधार पर ही होना चाहिए। ये एकात्म मानव के लिए पोषक हैं। विद्यमान आर्थिक कारण उनके पक्ष में हैं। इन उद्योगों के लिए जो कठिनाइयां थीं, वे विज्ञान की आधुनिकतम प्रगति तथा खोजों के बाद दूर हो गई हैं। इनका कृषि के साथ मेल बिठाया जा सकता है। ये गांवों में स्थापित किए जा सकते हैं, जिससे एक ओर तेजी से होनेवाले नागरीकरण की समस्याओं से बचेंगे तथा दूसरी ओर गांव भी देश की समृद्धि में सहभागी बनेंगे। समाज का शिक्षित एवं युवा यदि गांवों में न रहा तो उनकी स्थिति में सुधार नहीं हो सकता और न राजनीतिक विकेंद्रीकरण के कार्यक्रम सफल हो सकते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के विचार से तो विकेंद्रीकरण नितांत आवश्यक है।

छोटे उद्योग श्रम प्रधान होने के कारण बेकारी के निवारण में बहुत सहायक हैं। इनमें पूंजी कम लगती है और इसलिए इनको चलानेवाले साहसियों की संख्या बड़े उद्योगों के मुक़ाबले में बहुत ज्यादा हो सकती है। इस कारण कुल मिलाकर इनके द्वारा अधिक पूंजीकरण होगा। ये विद्यमान उद्योगों के सहारे विकसित हो सकते हैं। अतः प्रौद्योगिकीय विपूंजीकरण तथा बेकारी को बचा सकते हैं। ये उद्योग श्रमिक की मालिकी के आधार पर चलाए जा सकते हैं। यदि दूसरे श्रमिक मजदूरी पर रखने भी पड़ें तो मालिक और मजदूर परस्पर मानवीय संबंध रखकर सहयोग के आधार पर इनका विकास कर सकते हैं। सहकारिता के लिए भी यहां पर्याप्त गुंजाइश है। ये उद्योग आशुफलदायी हैं, अत: बहुत समय तक पूंजी फंसी नहीं रहती।

बैंक, साख, यातायात तथा राज्य के औद्योगिक नीति संबंधी सभी नियम इस प्रकार बने हैं कि उनमें बड़े उद्योग के साथ पक्षपात होता है। फलतः छोटे उद्योग पनप नहीं पाते। फिर भी पिछले वर्षों में आधुनिक उत्पादन के अनेक क्षेत्रों में छोटे उद्योगों ने इतनी अधिक प्रगति की है कि वे बड़े उद्योगों के साथ टक्कर ले सकते हैं। विदेशी उद्योगों के मुकाबले जैसे स्वदेशी उद्योगों को संरक्षण दिया जाता है, उसी प्रकार बड़े उद्योगों के मुक़ाबले छोटे उद्योगों को संरक्षण देने की नीति शासन को अपनानी चाहिए।

क्षेत्र विभाजन

छोटे और बड़े उद्योगों में क्षेत्रों का विभाजन होना चाहिए। सामान्यतः उपभोक्ता वस्तुएं छोटे उद्योगों द्वारा तथा उत्पादक एवं मूलभूत वस्तुओं का उत्पादन बड़े उद्योगों द्वारा होना चाहिए।

ग्रामोद्योग

परंपरागत ग्राम और कुटीर उद्योगों में से अधिकांश आज अनार्थिक हो गए हैं। उन्हें आर्थिक बनाना होगा। बिजली और यंत्र के सहारे उनका आधुनिकीकरण करके उन्हें छोटे उद्योगों की श्रेणी में लाना चाहिए। इन उद्योगों की उत्पादन क्षमता बढ़ाए बिना वे टिक नहीं सकते। शैशव में पोषण के लिए संरक्षण उपयोगी है, किंतु वह स्थायी भाव नहीं बनना चाहिए।

ग्रामीण कारीगर

गांव के कारीगरों का ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण से वे विस्थापित होते जा रहे हैं। नई अर्थव्यवस्था में उनको योग्य स्थान मिल सके, इसका प्रबंध करना होगा।

राष्ट्रीय क्षेत्र

बड़े उद्योग का स्वामित्व विवाद का विषय है। समाजवाद और पूंजीवाद के समर्थक अपने-अपने सिद्धांतों के आधार पर अपने पक्ष का समर्थन करते हैं। भारत की वर्तमान परिस्थिति में, जब विकास और विस्तार के लिए पर्याप्त क्षेत्र पड़ा हो तथा राज्य एवं निजी दोनों ही क्षेत्रों की शक्तियां अधूरी सिद्ध हो रही हों, यह विवाद बेमानी है। हमें एक राष्ट्रीय क्षेत्र की कल्पना रखकर प्रत्येक को अपनी शक्ति और क्षमता के अनुसार काम करने का मौका देना चाहिए।

प्रत्येक समर्थ और स्वस्थ व्यक्ति के जीविकोपार्जन की व्यवस्था करना आर्थिक नियोजन एवं औद्योगिक नीति का लक्ष्य होना चाहिए। बेकारी को दूर करने के लिए रोजगार के नए अवसरों निर्माण के साथ-साथ अर्ध रोजगार वालों की उत्पादकता एवं आय बढ़ाने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। बढ़ी हुई क्रयशक्ति से वे दूसरों को कामगे दे सकें

भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था आवश्यक है। उसमें निजी और सार्वजनिक क्षेत्र दोनों ही महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। दोनों क्षेत्रों में सहयोग और पूरकता का भाव रखना चाहिए। सार्वजनिक उद्योगों में 49 प्रतिशत तक पूंजी जनता के अंशदान के लिए खुली रखी जा सकती है।

सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के इस विवाद में जनक्षेत्र की उपेक्षा हो रही है। वास्तव में तो यही क्षेत्र सबसे बड़ा, महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली होना चाहिए। हमारी नीति होनी चाहिए कि जनता जहां चाहे वहां, पूंजीपति जहां चाहिए वहां, और सरकार जहां न संभव हो सके वहां।

सार्वजनिक क्षेत्र

अविकसित क्षेत्र में ऐसी अनेक परिस्थितियां हैं, जहां निजी क्षेत्र या तो प्रवेश की हिम्मत ही नहीं करता अथवा राजनीतिक एवं सामाजिक लक्ष्यों के हित में राज्य को ही उन क्षेत्रों में जाना आवश्यक होता है। निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं—

1. आधारभूत एवं सार्वजनिक सेवा उद्योग इतने पूंजीप्रधान एवं लंबे समय बाद फलदायी हैं कि बिना राज्य के उस क्षेत्र में प्रवेश किए वे स्थापित ही नहीं हो पाएंगे। अतः राज्य को उन उद्योगों की स्थापना करनी चाहिए।
2. जहां विदेशी पूंजी राजकीय स्तर पर उपलब्ध हो, राज्य को ही उस उद्योग का दायित्व संभालना आवश्यक होगा।
3. निजी क्षेत्र के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत करने तथा उसकी पूरकता के लिए भी राज्य को कुछ क्षेत्रों में आना आवश्यक हो सकता है। ये आंशिक रूप से सार्वजनिक क्षेत्र रहेंगे। खाद्यान्न का व्यापार, बैंक, बीमा, यातायात, विदेशी व्यापार इस क्षेत्र में आते हैं।
यदि किसी कारणवश निजी क्षेत्र में चलनेवाले किसी उद्योग के राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता अनुभव हो तो यह प्रश्न एक न्यायिक आयोग को सुपुर्द किया जाए तथा उसकी सिफारिशों के अनुसार ही राष्ट्रीयकरण की दिशा में क़दम उठाए जाएं। सार्वजनिक उद्योगों का प्रबंध स्वायत्त निगमों द्वारा ही होना चाहिए तथा उन पर वे सभी नियम लागू हों, जो निजी क्षेत्र पर लागू होते हैं।

एकाधिपत्य पर रोक

राज्य का कर्तव्य है कि वह आर्थिक कारणों से होनेवाले एकीकरण तथा एकाधिकार को रोके ।

पूर्ण रोज़गार

प्रत्येक समर्थ और स्वस्थ व्यक्ति के जीविकोपार्जन की व्यवस्था करना आर्थिक नियोजन एवं औद्योगिक नीति का लक्ष्य होना चाहिए। बेकारी को दूर करने के लिए रोजगार के नए अवसरों निर्माण के साथ-साथ अर्ध रोजगार वालों की उत्पादकता एवं आय बढ़ाने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। बढ़ी हुई क्रयशक्ति से वे दूसरों को काम दे सकेंगे। रोजगार संबंधी कार्यक्रमों के निर्धारण, श्रमिकों की संख्या, तज्ञता, उत्पादकता, काम और बेकारी की प्रकृति और व्याप्ति, संक्रमणशीलता आदि सभी प्रश्नों पर विचार करना होगा।

काम न मिलने की अवस्था में जीवनयापन के लिए बेकारी-भत्ते की व्यवस्था होनी चाहिए।

वैज्ञानिकीकरण

अर्धबेकारी को दूर करने तथा उत्पादकता बढ़ाने के लिए वैज्ञानिकीकरण (Rationalisation) आवश्यक है। किंतु भारत में वैज्ञानिकीकरण मुख्यत: आयात प्रधान होने के कारण सहज नहीं। साथ ही उद्योग के आवश्यक विस्तार के अभाव में कई बार वैज्ञानिकीकरण के कारण छंटे हुए मजदूरों की दूसरी जगह खपत संभव नहीं होती। नई मशीन से अर्थव्यवस्था में तभी गति प्राप्त हो सकती है जब (1) बढ़ी हुई उत्पादकता से प्राप्त आय का श्रमिकों और पूंजी लगानेवालों में वितरण हो; (2) इस आय का कुछ-न-कुछ अंश वित्त संचय तथा उपभोग दोनों के काम आए: (3) देश में पूंजी निर्माण की गति इतनी हो कि नई मशीनों के ख़रीदने में व्यय करने के बाद भी वह इतनी बची रहे कि केवल छंटनी किए हुए मजदूरों को ही नहीं, अन्यों को भी काम देने के लिए उद्योग-धंधे प्रारंभ किए जा सकें। सभी पहलुओं पर विचार कर नियोजकों को इस संबंध में कार्यक्रम बनाने चाहिए।

                                                                                           (क्रमश:…)