सिद्धांत और नीतियां

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

(गतांक से…)

श्रम-नीति

श्रम की प्रतिष्ठा मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा है। श्रमिक को संगठित और सामूहिक रूप से पारिश्रमिक निश्चित कराने का अधिकार है। उसके हड़ताल के अधिकार को जनसंघ स्वीकार करता है, किंतु उसका उपयोग अंतिम शस्त्र के रूप में ही करना चाहिए। इस अधिकार के उपयोग की आवश्यकता न पड़े, इस हेतु शासन को परामर्श, समझौता वार्त्ता, साधारण पंचनिर्णय, अधिनिर्णय आदि के योग्य एवं प्रभावी तंत्र का निर्माण करना चाहिए।

भारतीय जनसंघ श्रमिक और मालिक में कोई स्थायी हित संघर्ष नहीं मानता। श्रमिक भी वास्तव में श्रम की पूंजी लगाता है। प्रबंध और लाभ में उसके साझे की व्यवस्था होनी चाहिए।

वेतन-मंडल

यद्यपि वेतन और अन्य परिलाभ सामूहिक सौदे से तय करने का श्रमिक को अधिकार है, फिर भी औद्योगिक विवादों को बचाने तथा असंगठित वर्गों के हितों की रक्षा करने के लिए आवश्यक है कि समय-समय पर वेतन आदि की दरें निश्चित करने की व्यवस्था हो। इस दृष्टि से एक स्थायी वेतन-मंडल होना चाहिए, जो समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों और उद्योगों में मूल्य-स्तर, राष्ट्रीय जीवन स्तर की न्यूनतम आवश्यकताओं, उद्योग विशेष की आर्थिक स्थिति तथा सामाजिक लक्ष्यों को ध्यान में रखकर वेतन दरें निश्चित करे।

भारतीय जनसंघ समान काम के लिए समान मजदूरी के सिद्धांत को स्वीकार करता है।

वेतन नीति

भारतीय जनसंध राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन दर निश्चित करना आवश्यक समझता है। जीवन निर्देशांक के अनुरूप संपूर्ण परिलाभ की मात्रा ही वास्तविक वेतन स्तर है। राष्ट्रीय-समृद्धि का परिणाम अधिक के जीवन-वेतन में परिलक्षित होना चाहिए। समवितरण के इस स्तर के उपरांत ही ‘बोनस’ को लाभ में साझेदारी समझा जाएगा।

पूंजी निर्माण

आर्थिक विकास के लिए पूंजी निर्माण आवश्यक है। बचत और विनियोजन की प्रवृत्ति को बढ़ाने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। समाज में संयम एवं मितव्ययिता का भाव आवश्यक है। उपभोग में शानशौकत तथा विलासिता पर रोक लगाने के लिए व्यय योग्य आय की अधिकतम सीमा निश्चित होनी चाहिए। शासन को भी इस विषय में आदर्श उपस्थित करना चाहिए।

अधिकोषण की अच्छी व्यवस्था और उसका विस्तार वित्त संचय के लिए सहायक ही नहीं, आवश्यक भी है। ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक खोलने की ओर विशेष ध्यान देना होगा। सहकारी बैंक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, किंतु गांव में ऋण और साख के अन्य संस्थान न होने के कारण वे ग्रामीण क्षेत्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते। गांवों में बचत बढ़ाने और उनके वित्तीय साधनों को विनियोजन हेतु जुटाने की ओर उनका विशेष ध्यान नहीं है।

बैंकों का राष्ट्रीयकरण आर्थिक लक्ष्यों के प्रतिकूल है। इससे पूंजी निर्माण में बाधा उत्पन्न हो जाएगी। राष्ट्रीयकरण से पूंजी बढ़ती नहीं, केवल प्रबंध और स्वामित्व बदल जाता है। अधिकोषण का एकाधिपत्य अपने हाथों में न लेते हुए, राज्य आवश्यकतानुसार अधिकोषण संस्थान चला सकता है। अभी तक बैंक मुख्यत: व्यापार की आवश्यकताएं पूरी करते रहे हैं। वे उद्योग और कृषि की पूंजी संबंधी मांगों की भी पूर्ति कर सकें, इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। अधिकोषण के नियमन के संबंध में भी शासन एवं रिजर्व बैंक को पूर्ण जागरूक रहना चाहिए।

विदेशी पूंजी

अंदर की पूंजी की कमी कुछ अंशों में विदेशी पूंजी से पूरी की जा सकती है। किंतु उसका एक सीमित उपयोग ही है। अनेक देशों का अनुभव यही बताता है कि विदेशी पूंजी के रूप में जितना आयात होता है, उससे कई गुना अधिक लाभ, ब्याज, मूलधन आदि के रूप में निर्यात होता है। प्रौद्योगिक कारणों से भी, जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, विदेशी पूंजी बहुत उपयोगी नहीं होगी। केवल ऐसे क्षेत्रों में, जहां विदेशी प्रौद्योगिकी उपयोगी और आवश्यक है, हम विदेशी पूंजी का उपयोग कर सकते हैं। सामान्यतः हमें इस मोह से बचना चाहिए।

कराधान

वित्त और मौद्रिक नीतियां आर्थिक नियोजन एवं उसके लक्ष्यों को प्राप्त करने के अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रभावी एवं नाजुक उपकरण हैं। भारत में विभिन्न राजकीय सत्ताओं के बीच करों का किसी वैज्ञानिक आधार पर निर्धारण नहीं हुआ। पिछले वर्षों में विभिन्न सत्ताओं ने जिस प्रकार मनमाने ढंग से कर लगाए हैं, उससे संपूर्ण व्यवस्था बड़ी बेढंगी हो गई है। आवश्यकता है कि एकात्मक वित्त व्यवस्था के आधार पर उसका विचार कर करों का पुनर्निर्धारण किया जाए। न्यूनतम जीवन की आवश्यक वस्तुएं सामान्यत: कर मुक्त रहनी चाहिए तथा राष्ट्रीय न्यूनतम आय से कम आय वाले व्यक्ति प्रत्यक्ष कर से मुक्त रहने चाहिए।

सहकारिता

सहकारिता भारतीय जीवन-व्यवस्था का अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं केंद्रीय तत्त्व रहा है। उसके आधार पर अर्थ-नीति की पुनर्रचना का प्रयास करना चाहिए। किंतु यह आवश्यक है कि सहकारी समितियां स्वाभाविक रूप से ही विकसित हों तथा वे ऊपर से थोपी न जाएं। शासन के कर्मचारियों का नियंत्रण एवं हस्तक्षेप सहकारिता की भावना एवं पद्धति के प्रतिकूल है। संयुक्त कुटुंब प्रथा यदि सहकारी तत्त्व पर पुनरुज्जीवित हो सकती है तो उसका उपयोग अवश्य करना चाहिए।

आवास

नागरिक की न्यूनतम आवश्यकताओं में आवास अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अर्थव्यवस्था के परिवर्तन से श्रमिक की संक्रमणशीलता तथा नगरीकरण के कारण आवास का अभाव अत्यंत गंभीर रूप धारण कर गया है। राज्य को तथा विभिन्न निकायों को इस संबंध में एक व्यापक कार्यक्रम लेना चाहिए। प्रत्येक कुटुंब को रहने को मकान मिले, यह राज्य का दायित्व होना चाहिए।

सामाजिक सुरक्षा और कल्याण

समाज की अर्थव्यवस्था का यह लक्ष्य होना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जीविकोपार्जन करता हुआ अपना और अपने कुटुंबी जनों का सुखपूर्वक जीवन निर्वाह कर सके। प्रत्येक नागरिक को एक न्यूनतम जीवन-स्तर की गारंटी होनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक ओर तो समाज कल्याण के ऐसे कार्यक्रम लेने होंगे, जिनमें प्रत्येक नागरिक कुछ सेवाएं सहज अथवा निःशुल्क प्राप्त कर सके और दूसरी ओर, उन वर्गों के लिए जो आयु अथवा अन्य किसी कारण से असहाय हों, सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी। निःशुल्क शिक्षा और निःशुल्क चिकित्सा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा, बेकारी और बीमारी बीमा, बुढ़ापा पेंशन, अनाथाश्रम आदि के कार्यक्रम इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपनाने होंगे।

स्वास्थ्य और चिकित्सा

व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक सुख के लिए ही नहीं अपितु इसलिए भी कि वह समाज की योजनाओं में अपना पूर्ण योगदान कर सके, उसका स्वस्थ रहना आवश्यक है। अतः राज्य का कर्तव्य है कि वह सार्वजनिक स्वास्थ्य के व्यापक एवं प्रभावी कार्यक्रम हाथ में ले। महामारी और संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था होनी चाहिए। भोजन, पानी और हवा शुद्ध मिल सकें, इसका ध्यान रखना होगा। खाद्य में मिलावट को रोकने के लिए कठोर उपाय करने चाहिए।

आयुर्वेद स्वास्थ्य और चिकित्सा दोनों का विचार लेकर चला है। विगत शताब्दियों में भारत में अनेक चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित हुई हैं। उनमें नए-नए शोध भी हुए हैं। भारतीय जनसंघ प्रत्येक चिकित्सा पद्धति को उसकी प्रभावशीलता और देश की स्थितियों की पृष्ठभूमि में अनुकूलता का विचार कर पूर्ण प्रोत्साहन देने की नीति उपयुक्त समझता है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि चिकित्सा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अद्यतन ज्ञान और शोधों को समाहित कर आयुर्वेद का राष्ट्रीय चिकित्सा पद्धति के रूप में विकास हो।

हमारा आराध्य

आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज में ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे हुए व्यक्ति नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा। आज देश में करोड़ों ऐसे मानव हैं, जो मानव के किसी भी अधिकार का उपभोग नहीं कर पाते। शासन के नियम और व्यवस्थाएं, योजनाएं और नीतियां, प्रशासन का व्यवहार और भावना इनको अपनी परिधि में लेकर नहीं चलतीं, प्रत्युत उन्हें मार्ग का रोड़ा ही समझा जाता है। हमारी भावना और सिद्धांत है कि ये मैले-कुचैले, अनपढ़, मूर्ख लोग हमारे नारायण हैं। हमें इनकी पूजा करनी है। यह हमारा सामाजिक एवं मानव धर्म है। जिस दिन इनको पक्के, सुंदर, सभ्य घर बनाकर देंगे, जिस दिन हम इनके बच्चों और स्त्रियों को शिक्षा और जीवन-दर्शन का ज्ञान देंगे, जिस दिन हम इनके हाथ और पांवों की बिवाइयों को भरेंगे और जिस दिन इनको उद्योगों और धंधों की शिक्षा देकर इनकी आय को ऊंचा उठा देंगे, उसी दिन तो हमारा भ्रातृभाव ‘व्यक्त’ होगा। ग्रामों में जहां समय अचल खड़ा है, जहां माता और पिता अपने बच्चों के भविष्य को बनाने में असमर्थ हैं, वहां जब तक हम आशा और पुरुषार्थ का संदेश नहीं पहुंचा पाएंगे, तब तक हम राष्ट्र के चैतन्य को जाग्रत् नहीं कर सकेंगे। हमारी श्रद्धा का केंद्र, आराध्य और उपास्य, हमारे पराक्रम और प्रयत्न का उपकरण तथा उपलब्धियों का मानदंड वह मानव होगा, जो आज शब्दश: अनिकेत और अपरिग्रही है। जब हम उस मानव को पुरुषार्थ-चतुष्ट्यशील बनाकर समुत्कर्ष का स्वामी और विद्या-विनय संपन्न करके आध्यात्मिकता के साक्षात्कार से राष्ट्र और विश्वसेवा परायण अनिकेतन और अपरिग्रही बना सकेंगे, तभी हमारा एकात्म मानव साकार हो सकेगा।
           (समाप्त)