मातृ शक्ति को सलाम

| Published on:

प्रशांत मिश्र 

एक साथ तीन तलाक (तलाक ए बिद्दत) के खिलाफ सरकार के प्रयास का समर्थन देश और राजनीतिक दलों का बड़ा हिस्सा कर रहा है। यह सवाल जरूर है कि कितने खुले दिल से कर रहे हैं और कितने ऐसे हैं जो मजबूर होकर साथ खड़े दिख रहे हैं। मुस्लिम समाज में भी एक गुट ऐसा है जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार की कानूनी कार्रवाई को समाज को बांटने वाली कवायद के रूप में देख रहा है। जो कट्टर हैं वे अपना प्रभुत्व बरकरार रखने के लिए ऐसा ही करेंगे, लेकिन उन्हें परोक्ष रूप से समर्थन देने वालों को जरूर अपना नजरिया बदलना चाहिए। देश उनसे भी जवाब मांगेगा। उन्हें यह देखना चाहिए कि नारी समाज के लिए अगर हर क्षेत्र में समानता और सुरक्षा का दायरा बढ़ा है, तो मुस्लिम महिलाओं को अकेले कैसे छोड़ा जा सकता है? तीन तलाक के खिलाफ कानून और महरम के बिना हज जैसा फैसला समाज का विभाजन नहीं, बल्कि एकजुट करने का प्रयास है। सरकार का फर्ज है कि जाति,धर्म और संप्रदाय में किसी भेदभाव के बिना ‘आधी आबादी’ को पूरा अधिकार और सम्मान मिले। मोदी सरकार की सोच के केंद्र में समाज और महिला रही है। महिलाओं की सुरक्षा, उन्हें स्वावलंबी बनाने के लिए कदम, आर्थिक सशक्तिकरण,न्याय आदि पर तीन चार वर्षों में सार्थक पहल दिखी है।

वे लोग जो मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण को समाज में विभाजन के रूप मे देख रहे है उन्हें जवाब देना होगा कि विकास की मुख्यधारा में तेज गति से बढ़ने का अधिकार क्या केवल हिंदू महिलाओं को है? अगर मुस्लिम महिलाओं को अवसर मुहैया कराया जाए तो क्या यह नकारात्मक राजनीति है? अगर कोई ऐसा सोचता है तो हम आशा ही कर सकते हैं कि नए साल में उनकी सोच में कुछ सकारात्मक बदलाव आए। वे व्यक्तिगत राजनीति और प्रभुत्व को छोड़कर उस समाज और देश के बारे में सोचें, जो संकुचित मानसिकता के कारण ही क्षमता के बावजूद विकसित देशों के साथ दौड़ लगाने में असफल रहा है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजना पुरुष महिला अनुपात को दुरुस्त करने के लिहाज से शुरू की गई थी। यह किसी जाति धर्म के खांचे से बाहर है। असुरक्षा महिलाओं के बढ़ते कदम को रोकती है। हर राज्य में महिला हेल्प लाइन और वन स्टाप सेंटर स्थापित किए गए।

इसका मकसद है कि किसी भी आपात स्थिति में फिर वह चाहे मेडिकल मदद की बात हो या पुलिस की, महिलाओं के साथ खड़ा होना। इसमें हिंसा की शिकार महिलाओं को मानसिक काउंसलिंग और अस्थाई शेल्टर मुहैया कराने की भी व्यवस्था है। एसिड अटैक पीड़िता को दिव्यांगों को मिलने वाले अधिकार देने की बात हुई। राज्यों को यह अधिकार भी दिया गया कि वे इससे परे भी पीड़िता को पांच लाख रुपये तक की आर्थिक मदद और इलाज मुहैया करा सकते हैं। निर्भया फंड में पहली बार 200 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। 2019 तक एक ऐसा इंटीग्रेटेड इमरजेंसी रिस्पांस मैनेजमेंट सिस्टम तैयार हो जाएगा, जिससे देश के नौ सौ रेलवे स्टेशनों पर सीसीटीवी के जरिये नजर रहेगी।

इससे महिलाओं और बच्चियों की तस्करी पर अंकुश लगेगा। पुलिस की कमी और आबादी के अनुपात में पुलिसकर्मियों की संख्या वैसे ही चिंताजनक है। ऐसे में महिला पुलिस की मौजूदगी पर तो सवाल पूछना भी लाजिमी नहीं होता, लेकिन यह सुखद है कि अब तक आठ राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों ने पुलिस में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण का प्रावधान कर दिया है। कोशिश है कि पूरे देश में महिला पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़े। एक रोचक तथ्य है कि ‘जेंडर चैंपियन’ नाम का एक कार्यक्रम देश के सौ विश्वविद्यालयों और लगभग डेढ़ सौ कालेजों मे चल रहा है। इसके जरिये युवाओं को संवेदनशील बनाया जा रहा है, ताकि युवतियों और महिलाओं के अधिकार और महत्व को समझा जा सके।

कामगार महिलाओं के लिए मातृत्व विधेयक में संशोधन बड़ी राहत लेकर आया है। उनका मातृत्व अवकाश बढ़ाकर 26 सप्ताह कर दिया गया है। उनके लिए क्रैच की भी व्यवस्था की गई है। ध्यान रहे कि ऐसी महिलाओं की बड़ी संख्या थी जो मातृत्व के बाद अपनी नौकरी खो देती थीं। उन्हें नया अवसर मिला है। ऐसी महिलाओं की कमी नहीं जो असंगठित क्षेत्र में नौकरी करती हैं। उनके लिए प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना शुरू की गई, जो पहले बच्चे के जन्म के लिए मातृत्व लाभ देती है। माना जाता है कि खासकर ग्रामीण इलाकों में महिलाएं उसी वक्त शोषण का शिकार बनाई जाती हैं, जब वे रात के अंधेरे में शौचालय जाती हैं। ऐसे में स्वच्छता अभियान केवल सफाई से ही नहीं महिला सुरक्षा से भी जुड़ता है। आंकड़े बताते है कि ग्रामीण स्वच्छता कवरेज 39 फीसद से बढ़कर 71 फीसद हो गया है। उज्ज्वला योजना तो जैसे गरीब महिलाओं की आंखों की रोशनी बनकर आई।

अब तक सवा तीन करोड़ गरीब घरों को एलपीजी कनेक्शन और गैस का चूल्हा उपलब्ध कराया गया है, ताकि वे धुएं से दूर रहें। इन सभी योजनाओं में ऐसी कोई भी नहीं जो जाति या धर्म के आधार पर हो। हां, गरीब और बेसहारा औरतों को आगे बढ़ाने की कोशिश जरूर हुई है। फिर मुस्लिम महिलाओं को दूसरी महिलाओं की तरह ही अधिकार देने पर शोर शराबा कैसा? राजनीति समाज को बांटकर नहीं, बल्कि जोड़कर चलती है। जो समाज को जितना ज्यादा जोड़ेगा, उसका आधार उतना बड़ा होगा। सरकार का जिम्मा बनता है कि वह कमजोरों को सबसे पहले उठाकर खड़ा करे। इसी क्रम में अनुसूचित जाति और जनजाति के खिलाफ अत्याचार के कानून में संशोधन भी किया गया। वहीं ओबीसी के वर्गीकरण के लिए आयोग बनाया गया है।

यह किसी से छिपा नहीं कि क्रीमी लेयर प्रावधान के बावजूद ओबीसी समाज के ऐसे लोग आरक्षण की दौड़ में बहुत पीछे छूट जाते थे जो सचमुच पिछड़े हैं। अनुसूचित जाति जनजाति आयोग की तर्ज पर ही ओबीसी आयोग का गठन भी इसी मकसद से किया जा रहा है। विधेयक लोकसभा से पारित होकर राज्यसभा पहुंचा था, लेकिन वहां विपक्ष ने अड़ंगा लगा दिया। सरकार फिर से विधेयक लाने की बात कर रही है। खैर बात शुरू हुई थी तीन तलाक से। कांग्रेस समेत कुछ दल हैैं जो सजा के प्रावधान को लेकर सवाल उठा रहे है। उन्हें फिर से सोचना होगा। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने कहा था- ‘किसी समुदाय का विकास उसमें महिलाओं के विकास से आंका जाता है।’ वक्त है कि जाति धर्म से उपर उठकर मातृ शक्ति को सलाम किया जाए।

(लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)