समष्टि का सामूहिक स्वरूप

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पं. दीनदयाल उपाध्याय

व्यक्ति केवल शरीर नहीं, अपितु शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा, इन सबका एक संकलित, संगठित रूप है। व्यक्ति के समान समाज भी एक जीवमान चैतन्ययुक्त सत्ता है। जिस प्रकार व्यक्ति में शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा आदि रहते हैं, उसी प्रकार समाज में भी शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा ये रहते हैं। अब यह समाज का शरीर क्या है, हम लोग मुख्यतः राष्ट्र का विचार करें।

समष्टि कई प्रकार की होती है। एक व्यक्ति से ज्यादा व्यक्ति जब एकत्र होते हैं, तब उनकी समष्टि बनती है। कुटुंब, जाति, पंचायत, जनपद, राष्ट्र, मानव, सृष्टि, इस प्रकार क्रमश: समष्टि बढ़ती जाती है। व्यक्ति से मानवता तक अनेक समष्टियां हैं और इनका एक-दूसरे के साथ क्रमश: आरोह करता हुआ संबंध एक-दूसरे में मिल जाता है। व्यक्ति कुटुंब में, कुटुंब जाति में ऐसे मानव तक, इन सबमें व्यक्ति है। हर काम व्यक्ति से होता है। उदाहरणार्थ, शासन में बहुत लोग होते हैं। कोई विभिन्न विभागों का अधिकारी रहता है। विकास विभाग, पुलिस, शिक्षा, योजना आदि सारी जगह वह जाता है। उसी प्रकार व्यक्ति कुटुंब से लेकर सृष्टि तक सबका प्रतिनिधित्व करता है। व्यक्तियों के भिन्न-भिन्न आधार पर समष्टि बनती है। व्यक्तियों का समूह ही समष्टि है। कोई सी भी संस्था हो, उसमें (1) सदस्य (2) उद्देश्य निश्चित रहने (3) विधान नियमावली लिखित या अलिखित, बिना उसके चार लोगों का संगठन नहीं होता। (4) कृति, संस्था के अस्तित्व में हुआ काम यदि हो, वर्ष के समय में कहां-कहां खेले, इनाम कितने मिले, कहां-कहां किए। फिर मिले हुए, एक स्थान पर रखे रहते हैं, सर्टिफिकेट्स फ्रेम बनाकर लगाते हैं। यानी अच्छी-अच्छी चीजें तो रखी जाती हैं। गौरवास्पद बातों का संकलन होता है कि जिनसे आगे चलकर प्रेरणा ले सकें। इस प्रकार सदस्य, निश्चित उद्देश्य, संविधान और अच्छी कृति, ये चार बातें किसी भी समष्टि में रहती हैं।

ये चार बातें एक राष्ट्र के संबंध में भी लागू हैं। राष्ट्र यह एक समष्टि का सामूहिक स्वरूप है। राष्ट्र के घटक मनुष्य और भूमि होते हैं। मनुष्य, जिनका उस भूमि के साथ माता का संबंध है, जो उसको मातृभूमि, पितृभूमि कहे। यह संबंध स्वार्थ प्रेरित नहीं रहता। उस भूमि को कोई बेचने का विचार नहीं करता। उसके साथ इतना आत्मीयता का संबंध रहता है। यानी पुत्र रूप जनसमुदाय और भूमि मिलाकर देश होता है। देश, यानी जमीन के टुकड़े नहीं। दक्षिणी ध्रुव पर ज़मीन है, लेकिन वह देश नहीं कहा जाता। कारण, वहां मां समझकर उस पर रहने वाले मनुष्य नहीं हैं।

देश के घटक तो मनुष्य हैं, वे क्यों उस भूमि में उसे मां कहते हुए रहते हैं? वे कुछ-न-कुछ भगवान् से उद्देश्य लेकर आते हैं। राष्ट्रों के जीवनोद्देश्य का तय भगवान् की ओर से ही होता है। भगवान् की ओर से क्या तय हुआ, इसका पता लगाना पड़ता है। व्यक्ति भी अपना जीवनोद्देश्य तय नहीं कर सकता तो वह पहचानना पड़ता है। हम हिंदुस्तान में ही क्यों पैदा हुए? पुराने कर्म के अनुसार या तो यह जन्म उस भगवान् ने तय कर दिया, इसलिए यहां क्यों पैदा हुए, उसको ढूंढ़ना पड़ता है। जो खोज करते हुए जीवन जीते हैं, वे सफल होते हैं।

उदाहरणार्थ, पं. सातवलेकर जी पहले किसी के यहां मुनीम थे। उनको लगा कि अपना जीवनोद्देश्य किसी की नौकरी करना नहीं है। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और वेद का संशोधन कार्य हाथ में लिया और उससे वे एक बड़े व्यक्ति बन गए। इस तरह राष्ट्र का उद्देश्य भी होता है। उसके अनुसार नियम बनते हैं। राष्ट्र के लिए कौन सी चीजें ठीक हैं, उसकी खोज करते हैं। अंतर्दृष्टि से, द्वंद्वातीत, निरपेक्ष भाव से खोज निकालते हैं। कहीं राष्ट्र-जीवन का साक्षात्कार कर लेते हैं। उस जीवनोद्देश्य को पूरा करने के लिए जो नियम बनते हैं।

यह जो जीवनोद्देश्य है, उसको चिति कहते हैं। चिति, यानी राष्ट्र की प्रकृति, उसका साक्षात्कार कर लेने में मनुष्य को आनंद होता है। चिति को प्राप्त करने के लिए जो-जो आवश्यक और लायक चीजें होती हैं, उनको धर्म कहते हैं। यही राष्ट्र-धर्म है। अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जो प्रयत्न होते हैं, वही इतिहास है। जीवन में हुए विजय, बलिदान, त्याग, अन्यान्य व्यवहार, उनमें सुख, समाधान देनेवाली चीजें, जो गौरवास्पद हैं, जिनको स्मरण करते ही मनुष्य को आनंद होता है और आत्मसाक्षात्कार करने में आगे बढ़ता है। इस प्रकार इतिहास काल में हो गई गौरवमयी गाथाएं, कृतियों का संग्रह, यही अपनी संस्कृति है। राष्ट्र के घटक, मनुष्य और भूमि, राष्ट्र का जीवनोद्देश्य, राष्ट्रधर्म और राष्ट्र-संस्कृति, ये चार बातें मिलाकर ही राष्ट्र होता है। व्यक्ति और राष्ट्र के संबंध कैसे? राष्ट्र व्यक्ति के सहारे काम करता है।

पंखुड़ियों से फूल बनता है, दोनों का अस्तित्व अलग-अलग नहीं। राष्ट्र का जीवन प्रखर करने में ही व्यक्ति की सार्थकता रहती है। इनमें परस्पर विरोध नहीं। राष्ट्र के उत्कर्ष का माध्यम बनने में ही व्यक्ति-जीवन का विकास है। उद्देश्य का विस्मरण हो जाने से संघर्ष निर्माण होता है। समाज व्यक्ति को ग़ुलाम नहीं बनाता। अपने वर्ग में शिक्षक अपने से संचालन कराता है। इसमें अपने को कोई ग़ुलाम नहीं बनाता। पुलिस अधिकारी क्यों न हो, पुलिस के हाथ दिखाते ही मोटरकार रुक जाती है। यह बंधन नहीं। रक्षण और विकास के लिए आवश्यक है। इस प्रकार व्यक्ति विकास और समाज का हित इसमें समन्वय है। इन दोनों में संघर्ष नहीं। व्यक्ति के विकास और हित के लिए जो व्यवस्था कही गई है, उसको हम पुरुषार्थ कहते हैं।
                                क्रमश:
-संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग: बंगलौर, मई 27, 1965