(12 अप्रैल, 1921 — 22 जून, 2005)
शत-शत नमन
कुशल संगठक श्री सुन्दर सिंह भण्डारी का जन्म 12 अप्रैल, 1921 को राजस्थान स्थित उदयपुर के एक जैन परिवार में हुआ था। मूलत: उनका परिवार भीलवाड़ा के मण्डलगढ़ से संबंध रखता था, परन्तु उनके दादा वहां से उदयपुर चले गए। श्री भण्डारी के पिता डाॅ. सुजान सिंह भण्डारी एक डाॅक्टर थे। इस कारण उन्हें सदैव घूमते रहना पड़ता था। श्री भण्डारी की शिक्षा कई स्थानों पर हुई। उन्होंने उदयपुर से सिरोही से इंटरमीडिएट परीक्षा पास की और डीएवी कॉलेज, कानपुर से बी.ए. और एम.ए. किया। उन्होंने अर्थशास्त्र में एम.ए. पास किया और बाद में कानून का अध्ययन किया।
शांत भाव के श्री भण्डारी जीवन भर अविवाहित रहे और राष्ट्र की सेवा में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। 1942 में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद श्री भण्डारी ने मेवाड़ उच्च न्यायालय में लीगल प्रेक्टिस शुरू की। 1937 में उन्होंने एस.डी. कॉलेज, कानपुर में प्रवेश लिया, जहां पं. दीनदयाल उपाध्याय उनके सहपाठी थे। 1937 में इंदौर के बालू महाशब्दे ने उन्हें कानपुर के निकट नवाबगंज की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में ले गए थे। तब से वे सदैव अपनी अंतिम सांस तक रा. स्व. संघ की विचारधारा के प्रति समर्पित रहे।
1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। रा. स्व. संघ से जिन प्रमुख कार्यकर्ताओं को जनसंघ में कार्य के लिए भेजा गया था, उनमें श्री भण्डारी का नाम प्रमुख रूप से शामिल था। 1951 से 1965 तक श्री भण्डारी ने राजस्थान जनसंघ में महामंत्री का दायित्व निभाया। इसके अलावा वे जनसंघ के अखिल भारतीय मंत्री थे। पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु के बाद 1968 में भण्डारी जी को अखिल भारतीय महामंत्री (संगठन) बनाया गया।
श्री सुन्दर सिंह भण्डारी ने अनुशासित पार्टी की छवि कायम रखी। उन्होंने कार्यकर्ताओं से उच्च जीवन-शैली बनाए रखने का आह्वान किया। वह एक ऐसे मूर्तिकार और कार्यकुशल कारीगर थे, जिन्होंने मानव, समाज और संगठन की प्रतिमा बनाई। वह कभी भी ‘कलश’ नहीं बनना चाहते थे। वे अत्यंत स्पष्टवादी थे। अपनी प्रकृति के कारण वे कार्यकर्ताओं में ‘हेडमास्टर’ के नाम से सुप्रसिद्ध हो गए
उन्होंने 1977 तक जनसंघ महामंत्री के पद पर कार्य किया। वह 1966–1972 के समय राजस्थान से राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। 1998 में उन्हें बिहार का राज्यपाल और 1999 में गुजरात का राज्यपाल नियुक्त किया गया। भण्डारी जी ने कार्यकर्ताओं के सामने सरलता, सहनशीलता और मितव्ययता का उदाहरण पेश किया।
उन्होंने अनुशासित पार्टी की छवि कायम रखी। उन्होंने कार्यकर्ताओं से उच्च जीवन-शैली बनाए रखने का आह्वान किया। वह एक ऐसे मूर्तिकार और कार्यकुशल कारीगर थे, जिन्होंने मानव, समाज और संगठन की प्रतिमा बनाई। वह कभी भी ‘कलश’ नहीं बनना चाहते थे। वे अत्यंत स्पष्टवादी थे। अपनी प्रकृति के कारण वे कार्यकर्ताओं में ‘हेडमास्टर’ के नाम से सुप्रसिद्ध हो गए। उन्होंने अपना सारा जीवन मातृभूमि को समर्पित किया तथा जीवनभर के रा.स्व. संघ के प्रचारक बने रहे। 22 जून, 2005 को उनका स्वर्गवास हो गया।