जीवन का सामाजिक ध्येय

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दीनदयाल उपाध्याय

व्यक्ति को अपनी धारणा के लिए शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक-सभी प्रकार के सुख प्रकट हो सकें, तभी वह पूर्ण रूप से समाधान प्राप्त करता हुआ अपना विकास कर सकेगा। साथ ही हमने देखा कि व्यक्ति अपने इस विविध प्रकार से विकास के लिए स्वयं पूर्ण न होकर समाज के ऊपर अवलंबित रहता है। बिना समाज के, बिना दूसरों की सहायता के, बिना दूसरों को साथ लिये वह इनमें से किसी भी प्रकार की अपनी आवश्यकता को पूर्ण नहीं कर सकता।

व्यक्ति जो समाज के ऊपर निर्भर रहता है, इस नाते से और साथ ही व्यक्ति जो अपना स्वयं का विकास करना चाहता है, इस नाते से सामान्यतया दो विचार लोगों के सामने आते हैं। व्यक्ति के विकास को ही प्रमुख स्थान देते हुए कुछ लोग केवल व्यक्ति का विचार करके उसके पोषक के रूप में ही समाज में आगे आएं। दूसरे लोग इस बात का विचार करते हैं कि व्यक्ति अंत में समाज का एक अंग है, समाज के ऊपर ही निर्भर करता है और इसलिए यदि समाज के विकास की चिंता हो तो व्यक्ति का विकास स्वतः हो जाएगा। यहां तक कि व्यक्ति को और दुर्लक्ष्य करके भी हमने समाज का ही विचार किया तो सबकुछ ठीक हो जाएगा। इसलिए वह केवल समाज मात्र का विचार करते हैं। दोनों ही विचार किसी तरह सत्य नहीं हैं।

दोनों ही विचार केवल एक ही पक्ष को लेकर चलते हैं, इसलिए दोनों से पूर्ण उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती। एक से समाज की ओर दुर्लक्ष्य हो जाता है और दूसरे से व्यक्ति की ओर दुर्लक्ष्य होने के कारण जिस व्यक्ति को सुख और विकास के उद्देश्य से प्रयत्न प्रारंभ होते हैं। उसी व्यक्ति का एक प्रकार से विनाश, उस व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण, उस व्यक्ति की शक्तियों का सब प्रकार से कुंठित होना, यह उसको दिखाई देता है तो इस दृष्टि से ऐसा कोई मार्ग सोचना पड़ता है, जिसमें दोनों का समन्वय हो सके। जिसमें व्यक्ति विकास करते हुए समाज की आवश्यकता को भी पूर्ण कर सके, जिसके परिणामस्वरूप समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के कारण वह स्वतः और बाक़ी के भी जितने व्यक्ति हैं, वे भी योग्य वातावरण प्राप्त कर सकें।

इस नाते से अनेक संस्थाओं का जन्म होता है। हमारे यहां सभी प्रकार की कुछ संस्थाएं आई। राज्य की संस्था आई। रज्जू भैया ने अपना भाषण देते समय उस रोज बताया था कि आख़िर राज्य कब पैदा हुआ, पहले राज्य नहीं था, क्योंकि सब लोग अपने-अपने धर्म के आधार पर काम कर लेते थे। धर्म के आधार पर चलते थे, किंतु जब अधर्म आ गया और ऐसी स्थिति आ गई कि एक व्यक्ति दूसरे को सताने लगा, जिसके पास अधिक शक्ति थी, वह दुर्बल को कष्ट देने लगा, पीड़ा पहुंचाने लगा। बाक़ी के राग-द्वेष आदि उत्पन्न हो गए तो इसके कारण चारों ओर एक अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। इस अव्यवस्था को ठीक करने की दृष्टि से राज्य का निर्माण हुआ, जिससे लोग ठीक प्रकार से चल सकें, दंड नीति आई, उससे राजा ने दुष्टों को दंड देना प्रारंभ किया और सज्जनों का संरक्षण कर अपनी जिम्मेदारी निभाई। इस प्रकार से वास्तव में सब लोग ठीक प्रकार से अपना-अपना काम कर सकें। दूसरे के मार्ग में किसी प्रकार से बाधा न हो और इसी नाते राजा आया और राज्य आया।

ऐसे ही दूसरी और संस्थाएं हैं, जो वास्तव में इसी के आधार पर निर्मित हुई। जैसे कि एक वर्ण-व्यवस्था का जन्म हुआ था, जिससे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति ठीक-ठीक प्रकार से प्रयत्न कर सके, इस नाते वर्ण-व्यवस्था आई। समाज की अनेक प्रकार की आवश्यकताएं होती हैं, समाज की कुछ बौद्धिक आवश्यकताएं होती हैं, ज्ञान की आवश्यकता होती है। वह ज्ञान यदि समाज को प्राप्त न हो, उसकी बुद्धि-विवेक ठीक ठिकाने पर न रहे, समाज में शिक्षा आदि का संस्कार न प्राप्त हो सके तो समाज ठीक प्रकार से काम न कर सकेगा। उसके नाते से कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता होती है, जो इस प्रकार का काम कर सकें। इसी प्रकार से समाज की रक्षा करने की दृष्टि से कुछ लोगों की आवश्यकता समझी गई, क्योंकि समाज के अंदर भी कुछ दुष्ट लोग होते हैं, चोर हैं, डाकू हैं, बाक़ी के लोग हैं- इन लोगों से भी रक्षा करनी पड़ती है। समाज की जीविका की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। खाने-पीने की सारी चीजें पैदा करनी पड़ती हैं।

समाज में कुछ लोगों को खाते-पीते सबकुछ करते हुए, उन्हें यथेष्ट रूप से अवकाश प्राप्त हो सके, जिससे वे चिंतन कर सकें, विचार कर सकें, इसके लिए भी कुछ आवश्यकता होती है। इस नाते से लोगों के अंदर ज्ञान की वृद्धि की दृष्टि से, लोगों में संरक्षण की दृष्टि से, लोगों के भरण-पोषण की दृष्टि से लोगों को यथेष्ट अवकाश प्राप्त हो सके, इन सब दृष्टियों से लोगों में भिन्न-भिन्न प्रकार के वर्गों की रचना करनी पड़ती है। लोगों का इस प्रकार से निर्माण करके उन लोगों को ज़िम्मेदारी सौंपनी पड़ती है।

सबको एक ही प्रकार की ज़िम्मेदारी सौंपने से काम नहीं चलता। जैसे यहां पर भी अपना एक वर्ग चल रहा है। इस वर्ग में भिन्न-भिन्न विभाग हैं। हर एक विभाग के लोगों के ऊपर कुछ ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है, यदि ये सारी जिम्मेदारियां बंटी हुई न हों और सब के सब लोग सभी कुछ करने को तैयार हो जाएं, तो शायद अपना काम नहीं चल सकेगा। वह ज़िम्मेदारी सब प्रकार से अपने ऊपर आ जाती है। जैसेकि भोजन बनाने का काम है, भोजन बनाने वाले बनाते हैं और भोजन बनाकर हमें ठीक प्रकार से भोजन देते हैं। इसलिए हम निश्चिंत होकर अपने विविध कार्य करते रहते हैं। यदि ये भोजन हमें ठीक प्रकार से न दें तो शायद हम अपना बाक़ी का कार्यक्रम ठीक तरह न कर सकेंगे। हमारे यहां गण प्रमुख हैं, वे हमें ठीक-ठीक शिक्षा देते हैं। कल्पना कीजिए कि यदि सब गण प्रमुखों की व्यवस्था न हो तो हम अपने स्थान से यहां शिक्षा लेने आएंगे? कितनी भी हमने अपने मन के अंदर उत्कृष्ट इच्छा रखी कि हमें कुछ शिक्षा प्राप्त होनी चाहिए, किंतु यदि शिक्षा देनेवाले लोग यहां न रहें तो फिर अपना किसी भी प्रकार से काम न चल सकेगा। इतना ही नहीं थोड़ा-बहुत रक्षकों की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। हम लोग तो यहां आराम के साथ बैठे हुए हैं। अपना वस्ति गृह खाली पड़ा हुआ है। वहां हमारे कमरे में सामान रखा है, गणवेश रखा है। यदि हम उसकी कोई सुरक्षा व्यवस्था न करें, वहां पर कोई भी चिंता करनेवाला न हो और हम सबकुछ छोड़कर यहां आ बैठे तो कभी बड़ी कठिनाई आ जाएगी। जब लौट कर जाएंगे तो पता चलेगा कि कोई निकर उठाकर ले गया, कोई पेटी उठाकर ले गया। जब हम संघ स्थान पर जाने के लिए तैयार हो रहे होंगे, तब यदि निकर न मिला, पेटी न मिली तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी। हमारा सामान हमारे ही स्थान पर रहे, इसके लिए व्यवस्था करनी पड़ती है। इसी प्रकार से और भी चीजें आती हैं।

कोई बीमार हो जाता है तो जो भी व्यवस्था है, उसके लिए कुछ-न-कुछ विधान करने ही पड़ते हैं। ये जो सारे विभाग होते हैं, वास्तव में इन सब विभागों के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति होती है। साथ ही संपूर्ण समाज की भी आवश्यकता की पूर्ति स्वतः होती चली जाती है। इस नाते से वास्तव में अपने यहां प्राचीन काल से जो वर्ण व्यवस्था चली आ रही थी, वह व्यवस्था इसी आधार पर निर्मित हुई थी कि जिसके द्वारा अपने गुणकर्मों के अनुसार लोग समाज की सेवा कर सकें। अपने-अपने गुणों व कर्मों के अनुसार जो कुछ भी भगवान् ने उन्हें दिया है, उसका अधिकाधिक विकास करते हुए स्वयं का विकास कर सकें और समाज को दो क़दम आगे बढ़ाने के लिए खड़े हो सकें। यह एक विचार है, जिसको व्यावहारिक रूप देने के लिए अपने यहां पर वर्ण-व्यवस्था हुई थी।
उस वर्ण व्यवस्था के द्वारा जिस एक उद्देश्य को हम प्राप्त करना चाहते हैं उस उद्देश्य को बहुत ही सहज रूप में हम प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि इससे दोनों का एक समन्वय करके समाज और व्यक्ति दोनों अपने-अपने गुणों के अनुसार अधिकाधिक काम कर सकते हैं। अपने गुण के अनुसार अधिकाधिक विकास कर सकते हैं। व्यक्ति को इसमें जीवन का एक सामाजिक ध्येय प्राप्त हो जाता है, समाज की भी आवश्यकताएं स्वतः पूरी हो जाती हैं, क्योंकि एक-दूसरे की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए हम यहां पर स्वतः प्रयत्न करते रहते हैं।

समाज की रक्षा की आवश्यकता है। एक पुरुष है, जिसके अंदर पराक्रम की भावना है, जिसके पास बल है, ऐसा जो व्यक्ति है, वह अंतर-बाह्य संकटों से समाज की रक्षा करता है, जिसके पास तपश्चर्या है, जिसके पास ज्ञान है, बुद्धि है, इस प्रकार के लोग समाज को ज्ञान देने के लिए सामने आ जाते हैं। जो लोग कला-कौशल जानते हैं, जिनके पास वाणिज्य व्यापार की बुद्धि है, जो कृषि और गोरक्षा में निष्णात हैं, इस प्रकार जो लोग समाज के भरण-पोषण की चिंता करते हैं और जो एक प्रकार का ऐसा वर्ग है, जो कुछ भी नहीं कर सकता। वे समाज की सेवा का ही कार्य करके समाज की आवश्यकता पूर्ति के लिए आते हैं, तो जिस-जिस में भगवान् के दिए हुए जो-जो भी गुण हैं या जिन-जिन शक्तियों को लेकर हम पैदा हुए हैं, उन-उन गुणों के साथ हम समाज के लिए अधिकाधिक उपयोगी हो सकें, एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। इसी नाते यह व्यवस्था हमारे देश में प्राचीन काल से चली आती थी।

इसका एक अत्यंत ही वैज्ञानिक स्वरूप है, इसके अधिक विवरण में मैं नहीं जाता, किंतु यह वास्तव में इस प्रकार की व्यवस्था है, जिसके आधार पर हम लोग चलते रहे हैं। इस व्यवस्था के अंदर बहुत सी अच्छाई-बुराई लोग ढूंढ़ते होंगे। इसका आज का स्वरूप देखकर बहुत से लोग सोचते होंगे कि इस व्यवस्था को समाप्त कर देना चाहिए, क्योंकि इसके आधार पर अनेक भेद लोगों को दिखाई देते हैं, पर यदि हम ठीक से देखें तो देखेंगे कि व्यवस्था तो वास्तव में व्यवस्था ही रहती है। भेद ऐसी चीज़ है, जो दृष्टि के ऊपर निर्भर होती है और किसी भी आधार पर भेद पैदा किया जा सकता है। भेद को दबाया भी जा सकता है, आख़िर को भेद व्यवस्था समाप्त करने से भी भेद समाप्त नहीं होते। जब लोग ऐसा सोचते हैं कि किसी भी आधार पर भेद हो जाता है तो उस आधार को स्वतंत्र कर दे। अब उदाहरण के लिए अमरीका में देखें या आज अफ्रीका में देखें। वहां काले और गोरे के आधार पर एक बड़ा संघर्ष खड़ा हुआ है। अब इस काले-गोरे को कैसे ख़त्म किया जाए? बाक़ी की व्यवस्थाओं को तो कोई कहेगा, तो ख़त्म कर देंगे। परंतु इस काले-गोरे को तो ख़त्म नहीं किया जा सकता, क्योंकि जब तक अपने अंदर से परिवर्तन नहीं होगा, मन का भाव नहीं बदलेगा। तब तक इस काले-गोरे को शायद बदल नहीं सकेंगे। ऐसा नहीं किया जा सकता कि जितने गोरे हैं, उनके मुंह पर कोलतार पोत दिया जाए, ताकि सबके सब काले हो जाएं। यह झगड़ा ख़त्म हो जाए । या फिर कोई कहेगा कि जितने भी काले हैं, वे पाऊडर लगा-लगाकर गोरे हो जाएं। आजकल बहुत से लोग प्रयत्न तो करते हैं, परंतु वे कितना प्रयत्न करेंगे? यह कठिन है। कहा तो यही है कि ‘धोए हु ते काजर होए न सफ़ेद’ कि कितना भी प्रयत्न किया तो वह सफ़ेद नहीं हो सकता। शायद ऊपर से थोड़ा-बहुत दिखाने के लिए हो सकता है कि वह सफ़ेदी लगाकर गोरा दिखने लगे, लेकिन यह गोरे-काले का भेद नहीं मिट सकता।

क्रमश:
-पाञ्चजन्य, मई 29, 1961, संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक

वर्ग : लखनऊ