समाज और विचारधारा : दीनदयाल उपाध्याय

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ह तो स्पष्ट है कि समाजवाद के नाम से जो विषय चल रहा है तथा बहुत ही व्यापक और एक प्रकार से प्रभावी रूप से जिन कम्युनिस्ट देशों में इसका प्रसार होता दीख रहा है, उसमें व्यक्ति का और समाज का भी जैसा भला होना चाहिए, वैसा न होकर दूसरी ओर बुरा हाल है। यह बात अलग है कि देशों ने भौतिक दृष्टि से प्रगति कर ली होगी, लेकिन भौतिक प्रगति को समाजवादी पद्धति से जोड़ नहीं सकते। दुनिया के और भी देश हैं, जैसे अमरीका, उसने भी प्रगति की है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें अमरीका ने रूस से अधिक प्रगति की है। कुछ क्षेत्रों में रूस भी आगे निकल गया है। परंतु इन चीजों से विचारधारा के बारे में कोई निष्कर्ष निकालें तो वह गलत होगा। ये निष्कर्ष प्रचार की दृष्टि से निकाले जाते हैं।

पिछले दिनों एकाएक समाचार आया कि चीनी लोग एवरेस्ट पर चढ़ गए। कैसे चढ़ गए, इसका पता नहीं। वह पहले चढ़ रहे थे, इसकी भी खबर नहीं। फिर समाचार आया कि रात के एक बजे चढ़े। यह भी बताया गया कि उनकी यह विजय कम्युनिस्ट विचारधारा की विजय है। पर जानकार लोगों ने बताया कि इन समाचारों से ही पता लगता है कि ये ग़लत हैं। संभव भी हो तो विचारधारा के साथ तो इसको नहीं जोड़ा जा सकता। लेकिन लोग जोड़ते हैं। अभी अंतरिक्ष में यात्री को भेजा गया, फिर एक महिला को भेजा गया। उसके बारे में भी इसी प्रकार का विचार करते हैं। हमें वास्तविकता का गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसके पीछे तर्क या वैज्ञानिक ढंग के साधन नहीं। ये आधुनिक ढंग की रूढ़ियां हैं। जैसे छींक आ गई और लाभ नहीं हुआ तो धारणा हो जाती है कि छींक आ जाने से ही काम बिगड़ा है।

व्यक्ति जितना गुलाम पूंजीवादी यूरोप में था, संभवतः उससे अधिक गुलाम समाजवादी व्यवस्था में आज है। जितनी विषमताएं पूंजीवादी यूरोप में थीं, उससे अधिक विषमताएं समाजवादी यूरोप में हैं। विषमताओं का मापदंड बदल लिया गया है, लेकिन उससे अधिक विषमताएं लाई गई हैं

यद्यपि इसमें कोई कारण-कार्य संबंध जोड़ा नहीं जा सकता। अनेक बार ऐसे भी हुआ होगा, जब छींक आने पर भी काम हुआ होगा, परंतु उसको कौन ध्यान में रखता है। एक जगह समुद्र में एक मंदिर था। उसके पुजारी ने मंदिर में उन सज्जनों की सूची बनाकर टांगी हुई थी, जिनका समुद्र यात्रा से मंदिर दर्शनार्थ आने पर कुछ न बिगड़ा हो अर्थात् जो डूबे नहीं तथा सकुशल लौट आए थे। इसका मन पर प्रभाव पड़ता है। एक बार एक दार्शनिक ने पुजारी से पूछा, “जो समुद्र यात्रा पर गए और डूब गए, उनका नाम नहीं लिखा। क्यों?” वे नाम तो उसके पास नहीं थे। इस प्रकार कुछ को छिपा लिया जाता है और कुछ को प्रकट किया जाता है और फिर गलत तरीके से उनमें कारण-कर्म भाव ढूंढ़ लिया जाता है। वैसे ही आज भी बहुत सी चीजें होती हैं।

हिटलर पिछली बार रूस के ख़िलाफ़ लड़ा और रूस जीत गया। इससे पहले वह जापान से हार गया था। तो एकमेव कारण कि रूस में साम्यवाद के कारण यह विजय हुई, ऐसा बताया जाने लगा। परंतु यदि यही तर्क लगाया जाए तो इंग्लैंड और अमरीका में तो साम्यवाद नहीं था। वे कैसे जीत गए और अमरीका वाले कह सकते हैं कि पिछली लड़ाई में अमरीका के आने के बाद जो हिटलर लड़ा तो वह हारा। तो यह सब हुआ अमरीका के पूंजीवाद के कारण। वह यह कह सकता है, पर इसमें भी कोई बल नहीं।
इन चीजों को हटाकर देखें तो पता लगेगा कि जो तथाकथित समाजवादी विचारधाराएं हैं, उनमें सबसे बड़ी ख़राबी है कि व्यक्ति के स्वरूप का और समाज के स्वरूप का जो सही ज्ञान होना चाहिए, वह उनके पास नहीं। इनमें भी लोग सब ताक़त अपने हाथ में लेकर बाक़ी के समाज को सुख-सुविधाओं से वंचित रखते हैं।

यह विचारधारा वहीं आकर खड़ी हो गई, जहां से इसने प्रारंभ किया था। व्यक्ति जितना गुलाम पूंजीवादी यूरोप में था, संभवतः उससे अधिक गुलाम समाजवादी व्यवस्था में आज है। जितनी विषमताएं पूंजीवादी यूरोप में थीं, उससे अधिक विषमताएं समाजवादी यूरोप में हैं। विषमताओं का मापदंड बदल लिया गया है, लेकिन उससे अधिक विषमताएं लाई गई हैं। विषमताओं का रूप बदल गया है। जैसे किसी को रुपया मासिक मिले और किसी को दस हजार रुपए तो यह कितनी बड़ी विषमता है। यह विषमता कम होनी चाहिए। लेकिन यदि कोई दस हजार रुपए को यह रूप दे कि वेतन मिलेगा दो हजार शेष की बाक़ी चीजें मुफ्त, जैसे मकान, यातायात व्यय आदि। ये सब सरकार उसे मुफ्त देगी।

नतीजा यही होगा कि विषमता शायद और बढ़ जाएगी। जब अंग्रेज यहां थे तो उनके वायसराय के एक्जीक्यूटिव के जो मेंबर थे, उनको साढ़े तीन या चार हजार तनख्वाह मिलती थी। इनकम टैक्स देने के बाद बाईस सौ–तेईस सौ रुपया बचता था। नई सरकार ने तनख्वाह को कम कर दिया। तनख्वाह दो हजार सात सौ पचास रुपए कर दी, लेकिन इनकम टैक्स माफ कर दिया। यदि आप देखेंगे कि ख्रुश्चेव पर कितना खर्च होता है तो अनुमान लगेगा कि उसकी तनख्वाह तो बढ़ी नहीं है। रूस में आज भी आय का अनुपात कुछ के कहने के अनुसार एक और दौ सौ है। एक और अस्सी तो स्वीकार किया ही जाएगा।

वे शोषण समाप्त करने की बात कहते हैं। लेकिन आर्थिक क्षेत्र में शोषण समाप्त हुआ मान लिया जाए तो भी राजनीतिक दृष्टि से शोषण प्रारंभ कर दिया है कि मार्क्स ने जो अपने सारे निष्कर्ष निकाले थे तो उसमें ‘सरप्लस वैल्यू’ का सिद्धांत रखा था। उस अर्थव्यवस्था का आधार था जहां मंडी में मूल्य मांग और पूर्ति के संतुलन में तय होता है। फिर वास्तविक मूल्य क्या है, विनियम मूल्य क्या है। वह कितनी मात्रा में सही है। इन सबके पचड़े में मैं नहीं पड़ता। लेकिन कम्युनिस्ट देशों में ‘मार्केट इकोनॉमी’ नाम की चीज़ है ही नहीं। यह ‘सरप्लस वैल्यू’ मजदूर के पास जाती है, यह सच नहीं। यह आज राज्य के पास पहुंच जाती है और फिर कुछ व्यक्तियों के पास जाती है। आरंभ में शक्ति सुविधाएं कुछ हाथों में केंद्रित थीं। झगड़ा यहीं से प्रारंभ हुआ था कि शक्ति सुविधा कुछ हाथों में नहीं रहनी चाहिए, परंतु शक्ति कुछ ही हाथों में केंद्रित रही और बाक़ी के लोगों में अंतर नहीं आया; बल्कि जिन देशों में कम्युनिस्ट पद्धति नहीं, वहां अवश्य कुछ अंतर आया है।

जैसे व्यक्ति में भाव होते हैं, कर्म होते हैं, वैसे ही समाज की भावनाएं होती हैं, कर्म होते हैं। यह समाज के सभी व्यक्तियों के भावों या कर्मों का कुल जोड़ नहीं होता। इसके लिए गणित के अनुसार कैलकुलेशन का विचार नहीं किया जा सकता। यदि सबकी ताकत को जोड़ दिया जाए, जैसे राष्ट्रीय आय के लिए करते हैं कि प्रत्येक की आय का योग औसत निकाल लिया, वैसे समाज की शक्ति के लिए नहीं होगा

गलती यह है कि व्यक्ति और समाज का वास्तविक संबंध क्या है, स्वरूप क्या है, इसको लोग समझ नहीं पाए। समाज लोगों को मिलाकर बना है, यह ग़लत है। व्यक्तियों का समूह समाज नहीं, समाज की अपनी एक सत्ता है, जीवमान सत्ता है उतनी ही, जितनी एक प्राणी की होती है। प्राणी उसका अंग ज़रूर है लेकिन यह एक निर्जीव अंग जैसा नहीं, जैसे कि मोटर के पुर्जे होते हैं। यह वैसा ही है जैसा एक पूरा पेड़ होता है और उस पेड़ का एक पत्ता। पत्तों को मिलाकर पेड़ नहीं बनता। कोई यह कहेगा क्या कि हाथ, पैर, नाक, कान मिलाकर व्यक्ति बन जाता है? पुर्जों को मिलाकर मोटर बनेगी, पर मनुष्य शरीर के लिए ऐसा नहीं। 19वीं सदी में यही लोग बोलते थे कि जैसी मशीन है, शरीर भी वैसा ही है, जरा जटिल है। परंतु मशीन तो पुर्जे मिलाने से तैयार हो जाती है, शरीर नहीं हो पाता। क्योंकि उसमें प्राण फूंकना जरा टेढ़ा काम है। अभी तक किसी विज्ञानवेत्ता ने इसमें सफलता नहीं पाई।

पंचतंत्र में एक कहानी है कि कुछ पढ़नेवालों में एक को प्राण फूंकने की विद्या आती थी। उसने रास्ते में हड्डियों को देखा तो जोड़-जोड़कर उसका ढांचा खड़ा कर दिया। वह व्याघ्र था। जब प्राण फूंकने लगा तो उसका दूसरा साथी जो व्यावहारिक था, उसे मना करने लगा कि यह जीवित हो जाएगा तो तुझे खा जाएगा। उसके न मानने पर साथी तो पेड़ पर चढ़ गया और इधर जैसे ही व्याघ्र में जान आई। उसने सबसे पहले इसी का शिकार किया। यह कहानी केवल इसलिए है कि विद्या के साथ व्यावहारिकता भी चाहिए। व्यावहारिकता ने उसकी जान बचा दी। लेकिन यह तो एक कहानी है। वस्तुत: कोई प्राण फूंक नहीं सकता।

यह तो सत्य है कि शरीर में एक प्राण है। वास्तव में तभी इसके अंग-प्रत्यंग शरीर के सुख-दुःख को अनुभव करते हैं और इसी नाते सब काम करते हैं। समाज भी एक प्राणवान चीज है। समाज में भी वह गुण है, जो व्यक्ति के अंदर है। मनोवैज्ञानिक तो इसको स्वीकार भी करने लगे हैं कि समाज का मस्तिष्क होता है, जिसे group mind नाम दिया गया है। क्योंकि व्यक्तिगत रूप से जो खून देखकर भी घबराएगा, वह भी राष्ट्र के लिए लड़ता है और फ़ौरन उत्साह से लड़ने के लिए तैयार हो जाता है। जैसे व्यक्ति में भाव होते हैं, कर्म होते हैं, वैसे ही समाज की भावनाएं होती हैं, कर्म होते हैं। यह समाज के सभी व्यक्तियों के भावों या कर्मों का कुल जोड़ नहीं होता। इसके लिए गणित के अनुसार कैलकुलेशन का विचार नहीं किया जा सकता। यदि सबकी ताकत को जोड़ दिया जाए, जैसे राष्ट्रीय आय के लिए करते हैं कि प्रत्येक की आय का योग औसत निकाल लिया, वैसे समाज की शक्ति के लिए नहीं होगा।

समाज की एक सत्ता मानने के बाद समाज की शक्ति का अंकन इस प्रकार नहीं होगा। वह भिन्न वस्तु है। हम उसके एक अंग हैं, परंतु वैसे ही हैं जैसे शरीर का हाथ से संबंध होता है। हम उसके एक अवयव हैं, परंतु हमारी एक स्वतंत्र सत्ता भी है। एक प्रकार के लोग तो यह मानते हैं कि समाज एक सत्ता है और मनुष्य एक पुर्जा मात्र है। दूसरे मानते हैं कि व्यक्ति सत्ता है, समाज समूह मात्र है। दोनों ग़लत हैं। व्यक्ति की अपनी सत्ता है, समाज की भी उतनी ही प्राणवान सत्ता है। दोनों एक-दूसरे से संबंधित हैं। हाथ शरीर से संबंधित है, परंतु हाथ की अपनी विशेषता है। प्रत्येक जीवाणु की अपनी सत्ता है। वह शरीर की सत्ता से मिलकर काम करते हैं।

(शेष अगले अंक में…)
(संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग, नई दिल्ली; जून 20, 1963)