समाज और विचारधारा

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दीनदयाल उपाध्याय

गतांक का शेष…

माज के साथ उस नाते से हमारे आत्मीयता के संबंध हैं। समाज का विचार करनेवालों ने समानता का संबंध रखा। उन्होंने कहा कि सब आदमी बराबर हैं। लेकिन इसका उत्तर देनेवालों ने कहा कि जिंदगी में कहीं बराबरी नहीं, कुछ में ज्यादा शक्ति होती है, कुछ में कम। कुछ मामलों में हम भिन्न हैं। प्रकृति ने सबके अंदर भेद रखा है। सबके गुण और शक्ति अलग-अलग हैं। तो समाज का ही विचार करनेवालों ने पुनः इसका स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया कि यह भेद समाज व्यवस्था के कारण है। समाज व्यवस्था के कारण जिसको पढ़ने को मिलता है, उसका विकास हो जाता है। कुछ अपनढ़ रह जाते हैं तो उनका विकास नहीं होता। परंतु यह तर्क भी बहुत दूर तक नहीं चल सकता। यदि ऐसा ही हो तो संपन्न लोगों के यहां तो कोई मंदबुद्धि या मूर्ख न रहे। कुछ ने कहा कि पूर्व जन्म के कारण भेद होते हैं तो समाज का विचार करनेवालों ने कहा कि यह पूर्वजन्म का विचार तो ग़रीबों को संतोष कराने के लिए है। किसी कारण से हो, तो भी यह सत्य है कि भेद मौजूद हैं। शक्ति में भेद है। गुण-कर्म में भेद है। मानव के आगे भी विचार करना चाहिए। प्रत्येक जीवमान का एक ही स्तर पर विचार करना चाहिए और कुछ लोग उसका विचार कर भी रहे हैं।

यह सत्य है कि समानता सत्य को प्रगट नहीं करती। आत्मीयता ही आधार हो सकता है। आत्मीयता इसलिए क्योंकि सबकी आत्मा एक है। जैसे क्या शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों में समानता है? क्या सब अंग बराबर हैं? नहीं! फिर कौन सी ऐसी चीज़ है, जिसकी रक्षा करना नितांत आवश्यक है। किसी ने कहा कि हाथ या गले में से एक कटवाना पड़ेगा तो हाथ तो बचेगा, ऐसा सोचकर कोई गला कटवाने के लिए तैयार नहीं होगा। हाथ का दुःख भी मालूम होता है। क्योंकि संपूर्ण शरीर में आत्मीयता का भाव है। समानता का विचार ग़लत है।

समानता कैसी, इसका विचार भी मार्क्स ने किया है। क्या सबको चार रोटी देंगे, इससे समानता हो जाएगी? दो रोटी खानेवाले को चार रोटी खिलाई जाएं तो अन्याय ही होगा। जैसे कोई दिल्ली के सज्जन एक पठान के साथ मित्रता के कारण उसके देश में गए, बहुत लोगों ने स्वागत किया। लालाजी भोजन के लिए तैयार बैठे थे कि रोटियां रख दी गईं। लाला जी ने ‘इतनी रोटी नहीं खाई जाएंगी’ कहकर आनाकानी की। परंतु उनका आग्रह मानकर खाना प्रारंभ तो कर दिया परंतु आधी रोटियां मुश्किल से खाईं और शेष के लिए असमर्थता बताने पर वह पठान बंदूक ले आया और बोला, ‘खाता है कि नहीं, वहां जाकर बदनामी करेगा कि मुझे भूखा रख दिया।’ इस प्रकार दो खानेवाले को चार खिलाना अन्याय हुआ और जो ग़रीब छह खानेवाला है, यदि उसे चार दीं तो वह भूखा रह जाएगा। समानता ऐसे नहीं होती। ऐसी समानता तो जेल में होती है और कपड़ा यदि एक समान दिया तो बड़े शरीर वाले को तो पाजामे का कच्छा ही रह जाएगा और छोटे शरीर वाले की कमीज़ भी बन जाएगी। प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार लेना और उसकी आवश्यकतानुसार उसे देना। यदि यह नहीं हुआ और सबको पांच घंटे काम करना चाहिए, ऐसा नियम बनाया तो कमजोर की तो मुसीबत हो जाएगी। तृतीय वर्ष में शारीरिक करने के पश्चात् कुछ को तो लौटकर आना ही बोझ मालूम देता था और कुछ तो उसके पहले और बाद में भी दंड-बैठक लगाते थे। ‘हाथी को मन भर और चींटी को कण भर’ इसीलिए कहा है। यदि दोनों का औसत लगा लिया तो हाथी का बीस सेर से क्या होगा और चींटी तो बीस सेर कभी समाप्त नहीं कर पाएगी। समानता वाले औसत के नियम से ही विषमता बढ़ाते हैं।

प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार, यह सिद्धांत तो बड़ा अच्छा है, पर इसका निर्धारण कैसे हो? योग्यता और आवश्यकता को कौन तय करेगा? उन्होंने कहा, ‘राज्य तय करेगा।’ राज्य माने सरकारी अधिकारी। वे भी तो मानव हैं। वे पहले अपनी आवश्यकता देखेंगे, फिर अपने आत्मीय जनों की मान लो, चीनी का परमिट तहसीलदार को बनाना है और उसके मित्र के यहां शादी है तो दूसरे नामों से भी वह उसके लिए परमिट काट लेगा। शेष लोगों की आवश्यकता उसे उस प्रकार की नहीं दिखाई देती। सरकार को प्रमुख बना दिया जाए तो प्रत्येक काम में यही बनता है। योग्यता में हम तो चार घंटे भी काम करें तो बहुत हो गया। दूसरों के लिए ‘आराम हराम है’ का नारा अपने लिए तो इतना काम करते हैं, क्या चार घड़ी आराम नहीं करेंगे, यह तर्क रहता है।

इस सबका अर्थ यही है कि इस समानता के विचार को बदला जाए। इसको बदलकर आत्मीयता को आधार बनाया जाए। मूलतः ग़लती यहीं पर खड़ी है कि हमने व्यक्ति के सुख-दुःख को प्रमुख रखा और दूसरों के प्रति घृणा फैलाकर कि ‘यह तुम्हारे पसीने की कमाई से पल रहा है। इस तरह संघर्ष को आधार बनाकर यह नारा लगाया कि हम मजदूरों का संगठन करते हैं। मजदूर को बताया जाता है कि तुम तो आठ घंटे काम करते हो और यह मैनेजर तो केवल कुरसी पर बैठकर चला जाता है। उसे घर जाकर भी चिंता के कारण नींद नहीं आती इसकी उसे कल्पना नहीं दी जाती। उसे यही कहा जाता है कि तू आठ घंटे काम करता है, काम कम करो और दूसरी ओर मजदूरी अधिक लो, ऐसी मांग करके संघर्ष करो। इस प्रकार आवश्यकता तो बढ़ती जाएगी और योग्यता कम होती जाएगी, और सारे देश में यही स्थिति रही तो एक दिन किसी को रोटी नहीं मिलेगी।

समाजवादी ढांचे में अभाव की स्थिति उत्पन्न होगी। दो व्यवस्थाएं प्रारंभ होंगी। आवश्यकता की दृष्टि से राशनिंग और काम की दृष्टि से जबरदस्ती दबाव। आज कम्युनिस्ट दूसरों को कहता है– हड़ताल करो, लेकिन उसके राज्य में हड़ताल नहीं।

उसके विपरीत हमारा विचार है कि समाज की स्वतंत्र सत्ता है और व्यक्ति की भी स्वतंत्र, समाज की सेवा ही व्यक्ति के जीवन की सार्थकता है। समाज के लिए व्यक्ति के कर्म उसके लिए भगवान को प्राप्त करने की साधना है। उससे ही वह समाज की सेवा करता है। परिवार में मां की आवश्यकता क्या है, वह घर में सबको खिलाने के बाद कुछ बच गया तो खाएगी और योग्यता देखिए कि सुबह से शाम तक काम करती है, सबसे पहले जागती है और सबसे अंत में सोती है। कभी अस्वस्थ है तो भी बच्चे को भूखा नहीं जाने देगी। ममता ही उससे काम कराती है। देने की योग्यता अधिक-से अधिक और लेने की कम-से-कम यह रहा तो फिर कभी कमी नहीं रहेगी। जितना दें, देते चले जाएं। कभी मन में असंतोष नहीं होगा। यहां काम करने में भाव का केंद्र समाज बन जाता है। समाज का भाव होता है तो आत्मीयता के कारण।
पूंजीवादी व्यवस्था में भी ‘मार्केटिंग इकोनॉमी’ की बात सोची जाती है। उसमें कर्म का केंद्र स्वार्थ ही रहता है। परंतु यहां तो कुम्हार मटका बनाता था और सोचता था कि यह मटका खरीदने के लिए भगवान आएंगे। इसलिए उसे काम करते हुए भी आनंद आता था और वह प्रयत्न करता था कि वह अच्छे से अच्छा मटका बनाए और अधिक से अधिक बनाए। यही भक्ति है। रात में जागकर भी काम करना पड़ेगा तो करेगा। संघ शिक्षा वर्ग में व्यवस्था करनी है तो जिस प्रकार कार्यकर्ता को आनंद होता है, उससे उसका विकास होता है। कार्य करने का खुलकर मौक़ा मिलता है। लेकिन दूसरी व्यवस्था में तो जबरदस्ती का भाव रहता है। सारे सूत्र कुछ लोगों के हाथ में रहते हैं। वस्तुतः ‘यह काम मेरा है’ इसलिए मेरा कर्तव्य हो जाता है कि अधिक से अधिक कार्य करें। जिस प्रकार हाथ जितना काम करे, शरीर के लिए उसे आनंद ही होता है। हाथ को डांटा भी नहीं जाता। यह सब आत्मीयता के भाव के कारण है।
अनेक प्रकार की विचारधाराओं में जो ग़लती है कि वह व्यक्ति और समाज का संतुलन नहीं बना पाते, वहीं भारतीय दृष्टिकोण दोनों की चैतन्यमयी सत्ता को मानकर आत्मीयता का परस्पर संबंध स्थापित करता है और इस कारण समाज के लिए किए गए कार्य कर्तव्य हैं। वह इसे साधना मानकर चलता है, इसी भारतीय दृष्टिकोण को स्पष्ट करने का मैंने प्रयत्न किया है।
(समाप्त)

(संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग, नई दिल्ली; जून 20, 1963)