परानुकरण से राष्ट्र की सृजनात्मक शक्ति समाप्त हो रही है

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दीनदयाल उपाध्याय

काम करो और एक मत से विचार करके काम करो, यह अपनी बहुमत से विचार करके तय करो। विरोधी दल ज़रूर चाहिए, एक मत हो गया तो ठीक है, परस्पर विचार विमर्श हो सकता है, विवाद भी हो सकता है और हमेशा हुआ है, परंतु हमारे यहां विरोध के लिए विरोध कभी मान्य नहीं रहा। फिर भी पश्चिम की ‘डेमोक्रेसी’ तो इसी विरोध की नींव पर खड़ी है। वहां विरोध होना ही चाहिए। जैसा कि उनके विचारकों का कहना है-फुटबॉल का खेल होता है, उसमें दो पार्टियां होनी चाहिए। यदि एक ही पार्टी रही तो फुटबॉल का खेल नहीं हो सकता है। इसीलिए इंग्लैंड में विरोधी दल को ‘हिज़ मैजेस्टीज़ व अपोजीशन’ कहा है। वहां दो पार्टियां हैं, ‘एक कंजर्वेटिव’ और दूसरी ‘लिबरल।’ एक अंग्रेज़ ने कहा कि इंग्लैंड में जो कोई भी पैदा होता है, वह खटाक से या तो लिबरल पैदा होता है या कंजर्वेटिव। यह वहां के लिए ठीक भी है, क्योंकि वहां की राजनीति ही ऐसी है। वे कहते हैं कि प्रत्येक लड़का और लड़की जन्मजात टॉरी है अथवा कंजर्वेटिव।’

हमारी पद्धति कहती है, हाथ जोड़कर प्रणाम करो, पर अंग्रेज़ी पद्धति में पला आदमी खटाक से अपना हाथ बढ़ा देता है, लगता है हाथ जोड़कर प्रणाम करने में उसे कुछ अटपटा लगता है। (बहुत सी आम सभाओं में यदि प्रमुख’ पुरुष हैं, तब तो काम चल जाता है, पर यदि महिला हुई तो अंतर्द्वद्व चलता है। बहुत सी महिलाओं ने तो अपने पतियों के साथ ऐसी सभाओं में जाना छोड़ दिया है, जिससे पति-पत्नी के बीच द्वंद्व पैदा हो गया है। इस प्रकार के झगड़े घर-घर में, राष्ट्र में सब जगह दिखाई दे रहे हैं।) ऐसी स्थिति में हमें यह निश्चय करना ही होगा कि हम परकीय का अनुकरण नहीं करेंगे। यह आवश्यक है।

पहले जो कुछ हमने सोचा, वह बुद्धिमत्ता नहीं थी, पिछड़ापन था और आज हमें जो बुद्धिमत्ता प्राप्त है, वह पिछले सौ सवा सौ वर्षों के अंग्रेज़ी शिक्षा के संस्कारों का परिणाम है, इस बात को दिमाग़ से निकालना होगा। आजकल अच्छा और बुरा इतना सीधा-सादा हो गया है कि उसके विवेचन में कोई देरी नहीं लगती। जो बाहर का है, वह अच्छा है, अंग्रेज़ी पद्धति का होगा वह अच्छा, बाक़ी सब बुरा। एक स्थान पर एक सज्जन मिले। कहने लगे, ‘अमुक व्यक्ति बड़ा गंवार है।’ मैंने कहा, कैसे तो कहने लगे ‘गंवार का अर्थ गांव में रहने वाला। वहीं की पद्धति का पालन करने वाला। घर में भोजन करता हो तो ज़मीन पर बैठकर, थूकने की इच्छा हुई तो उठकर दूर जाकर थूकता है।’ मैंने कहा कि आपको थूकने की इच्छा हुई तो रूमाल में थूक कर उसे जेब में रख लेते हैं। आप उसको गंवार कहते हैं, स्वयं बड़े सभ्य हैं। बड़े हाइजीनिक हैं। स्वच्छता का विचार करनेवाले हैं। यह है आज की विचार करने की पद्धति।

कुछ लोग कहते हैं कि आख़िर युगधर्म का भी तो विचार करना चाहिए। यह बात सच है कि बिना काल का विचार किए काम नहीं चलता। अपने यहां भी जहां धर्म का विचार किया गया, वहां काल का भी विचार किया गया है। जाड़े के दिनों में मलमल का कुरता पहनने से क्या दशा होगी, यह स्पष्ट है। काल का विचार हम भी करते हैं। हम विचार करें, युगधर्म के नाम पर परिचय की चीजें, जिन पर ‘मॉर्डन का लेबल’ लगा रहता है, उनका मतलब क्या है? क्या अमरीका में जो हो वही ‘मॉर्डन’ है? हमारे यहां भी तो कुछ चीजें हो सकती हैं। मंगल अवसर पर केक काटने से प्रसन्न क्यों? उद्घाटन के समय फीता काटना ही आधुनिकता कैसे? यह ‘मॉडर्निज्म’ नहीं ‘वेस्टर्निज्म’ है। हम जब पूजन करें तो दकियानूसी और फीता काटें तो मॉर्डन। हमें इस ग़लत विचार प्रवाह को सही दिशा देनी होगी।

हम माडर्निज्म का विचार करें। अपनी भी तो एक जीवन पद्धति है। यदि हम अपने जीवन की रक्षा, उसका विकास करना चाहते हैं तो बाहर की चीजें भले ही मॉडर्न हों, उन्हें हटाकर अपने आधार पर विचार करना होगा। बाहर की चीज़ों से अपने जीवन की शक्तियां कुंठित होती हैं। उनका विकास रुक जाता है। जब तक जीवन की सारी शक्तियों के विकास का मार्ग नहीं खुलता तब तक व्यावहारिक रूप से बाहर के अनुकरण से हमें लाभ नहीं होगा। अंग्रेज़ किसी किसान या मज़दूर को अपना काम करने से रोकते नहीं और आज वह अंग्रेज़ भी नहीं रहे। हमारी स्वतंत्रता के मार्ग में रही-सही बातें भी समाप्त हो गईं। अब हम यह सोचें कि पिछले बारह-तेरह वर्षों में देश के चालीस करोड़ लोगों ने देश के विकास में क्या योगदान दिया है? ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब अब भी अंग्रेज़ियत प्रकट होती है।

मेरे एक परिचित मित्र संस्कृत के विद्वान् और बड़े सुलझे हुए व्यक्ति हैं। दुर्भाग्य से उन्होंने अंग्रेज़ी नहीं पढ़ी। उन्हें कार्य करने में पग-पग पर कष्ट उठाने पड़ते हैं, क्योंकि यहां के विचारों में अंग्रेजियत भरी है। इस अंग्रेज़ियत ने समाज के सारे वातावरण में भ्रम पैदा कर दिया है, यह राष्ट्र की उन्नति में बाधा पैदा कर रही है। यदि हम अपना सारा जीवन भुलाकर बाह्य जीवन यहां ले आए तो यह राष्ट्र का दुर्दैव होगा। अफ्रीका की कुछ जातियों को अंग्रेजों ने ईसाई बनाया, उन्हें अपने कपड़े पहनना सिखाया, यानी सभ्यता सिखाई और आज वह जाति समाप्त हो रही है। उस जाति की धीरे-धीरे सृजनात्मक शक्ति समाप्त हो रही है। दुनिया में बड़ी-बड़ी जातियां इसी प्रकार समाप्त हो गईं। हम भी यदि अपना संपूर्ण जीवन बाहर से लाएं तो प्रगति नहीं कर सकेंगे, समाप्त हो जाएंगे। अनुकरण से विकास अवरुद्ध हो जाता है। यदि हमें संपूर्ण जीवन का आधार ही बनाना हो तो स्वाभिमान का आधार चाहिए।

(पाञ्चजन्य, अक्तूबर 3, 1960 )