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भाजपा के 44वें स्थापना दिवस पर विशेष

अटल बिहारी वाजपेयी

मुंबई में आयोजित भाजपा राष्ट्रीय परिषद् में 28 दिसंबर, 1980 को
श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दिए गए अध्यक्षीय भाषण का दूसरा भाग―

मानव मूल्यों की स्वीकृति

महात्मा और मार्क्स द्वारा प्रणीत समाजवाद में मौलिक अंतर है। गांधीवादी समाजवाद पुरातन काल से विकसित मानवीय मूल्यों से प्रारंभ करता है और फिर उन्हीं मूल्यों के आधार पर आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्थाओं के पुनर्निर्माण पर बल देता है। इसके विपरीत मार्क्स की विचारधारा में मानवीय मूल्य सामाजिक संबंधों, भौतिक परिस्थितियों और उत्पादन के ढंगों पर निर्भर करते हैं।
गांधीवाद और मार्क्सवाद—दोनों मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त करने का दावा करते हैं, किंतु मार्क्सवाद बिना अपनी चौखट को लांघे यह नहीं बता सकता कि वह ऐसा क्यों करना चाहता है। गांधीवाद इस आधारभूत मान्यता से ही प्रारंभ करता है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण मानवीय मूल्यों की अवहेलना है।

मानव-मूल्यों के ह्रास के कारण शोषण

मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण मानवीय मूल्यों के विकास का परिणाम नहीं है। वास्तव में आर्थिक-सामाजिक व्यवस्थाओं की प्रगति के किसी दौर में तथा उस समय सक्रिय भौतिक शक्तियों के कारण मूल्यों का जो ह्रास हुआ, यह उसका परिणाम है। गांधी जी का समाजवाद इस बात पर बल देता है कि शोषणरहित समाज की रचना किसी मूल्यविहीन तथा वैज्ञानिक कही जानेवाली व्यवस्था का विकास जरूरी है, जिस पर सामाजिक परिवर्तन का ढांचा खड़ा किया जा सके तथा जिसे कसौटी बनाकर उस ढांचे की उपयोगिता को भी परखा जा सके।

मार्क्सवादी यह नहीं बता पाते कि पूंजीवाद की समाप्ति के बाद क्या होगा, सिवाय इसके कि वे एक वर्गविहीन समाज की रचना करेंगे। किंतु व्यवहार में तो उलटा ही दिखाई देता है। उनकी व्यवस्था एक क्रूर तथा अधिनायकवादी व्यवस्था में बदल जाती है, जिसमें सभी मानवीय मूल्य स्वाहा हो जाते हैं।

भौतिक आधार और वैज्ञानिक विधियां

मार्क्सवादी अथवा कथित वैज्ञानिक समाजवाद के हामी लोग बहुधा गांधी जी को विज्ञान विरोधी बताते हैं। वास्तविकता यह है कि वे जीवन भर सत्य की खोज में लगे रहे और विज्ञान भी सत्य की खोज का दावा करता है। किंतु वैज्ञानिक विधियों से मनुष्य अपने भीतर के सत्य को नहीं पा सकता, आत्म-साक्षात्कार नहीं कर सकता। भौतिक यथार्थ का पता लगाने के लिए विज्ञान तथा वैज्ञानिक विधियों उपयुक्त हैं। किंतु उनसे मनुष्य के मन की गहराई और उसकी विशालता को नहीं मापा जा सकता। गांधी जी का समाजवाद भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह की वास्तविकता पर बल देता है और सत्य को देखने की ऐसी समग्र दृष्टि ही मानवीय मूल्यों का ज्ञान कराती है।

हिंसा का विरोध

मार्क्सवादी और गांधीवादी के बीच हिंसा के प्रश्न पर भी मौलिक अंतर है। सभी कम्युनिस्ट क्रांतियां हिंसा के बल पर ही हुई हैं और खेद का विषय है कि वे अपने लोगों के विरुद्ध हिंसा को अपनाकर ही खुद को बचा सकी हैं। मार्क्सवादी क्रांति अपने ही बच्चों को अपना भक्ष्य बनाती है। गांधी जी हर परिस्थिति में हिंसा का उपयोग करने के विरोधी नहीं थे, किंतु उन्होंने चेतावनी दी थी कि यदि भारत में सामाजिक परिवर्तन अथवा वर्ग संघर्ष की समस्या को सुलझाने के लिए हिंसा को हथियार बनाया गया तो अंतोगत्वा असफलता हो मिलेगी।

सत्ता का वितरण

गांधी और मार्क्स के बीच सत्ता के वितरण के प्रश्न, जिससे हिंसा की समस्या जुड़ी हुई है, पर भी गहरा मतभेद है। मार्क्सवादी समाजवाद का राज्य अथवा राजसत्ता के वितरण के बारे में कोई स्वतंत्र या मौलिक विचार नहीं है। यही कारण है कि मार्क्सवादी लोग लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते। गांधी जी ने मार्क्स की भांति राज्य के तिरोहित होने की बात तो कही, किंतु उन्होंने राज्य के हाथों में असीम ‘अधिकार केंद्रित करने के विरुद्ध चेतावनी दी। गांधीवाद और मार्क्सवाद में एक मूल मतभेद इस बात पर भी हैं कि राज्य के तिरोधान का मार्ग और उसकी प्रक्रिया क्या होगी। कम्युनिस्ट देशों में राज्य सर्वसत्ता संपन्न हो गया है और वह अपनी शक्ति का उपयोग श्रमजीवी वर्ग के खिलाफ ही कर रहा है। पोलैंड की हाल की घटनाएं इसका उदाहरण हैं।

विकेंद्रीकरण

गांधीवादी समाजवाद विकेंद्रीकरण को राज्य व्यवस्था का आधार बनाता है। इसमें राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं की दो धाराएं होंगी, जो एक-दूसरे के समानांतर चलेंगी। एक धारा प्रातिनिधिक लोकतंत्र की होगी और दूसरी भागीदारी पर आधारित लोकतंत्र की आज हमारे देश में केंद्र में संसद् और प्रदेशों में विधानसभाओं के नीचे लोकतंत्र नदारद है। सारी शक्ति नौकरीशाही के हाथों में केंद्रित है। इस अवस्था में न तो लोगों को नवनिर्माण के प्रयत्न में जुटाया जा सकता है और न अपनी तकदीर का फैसला आप करने के कार्य में भागीदारी बनाया जा सकता है। पंचायतों और जिला परिषदों को वास्तविक शक्ति तथा वित्तीय संसाधन देने चाहिए। इनकी स्वायत्तता राज्य सरकार की कृपा पर निर्भर न रहकर संविधान द्वारा प्रदत्त हो।

ये तथा अन्य स्थानीय संस्थाएं न केवल अपने सदस्यों की तथा एक-दूसरे की सहायता करेंगी, प्रत्युत् ऊपर की इकाई से भी जुड़ी रहेंगी। अधिनायकवादी प्रवृत्तियों तथा रवैयों पर अंकुश रखने में इन संस्थाओं, जिन्हें गांधीजी ‘स्थानीय गणतंत्र’ कहते थे, की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी।

विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था

गांधीवादी समाजवाद आर्थिक शक्ति के एकाधिकार का भी पूर्ण विरोधी है, जबकि कम्युनिस्ट देशों में समाजवाद आर्थिक शक्ति पर राज्य के एकाधिकार का पर्यायवाची बन गया है। राजनीतिक शक्ति के साथ आर्थिक शक्ति का केंद्रीकरण दमन और आतंक पर आधारित शासन व्यवस्था का निर्माण करता है, जो मूलतः समाजवादी मान्यताओं के सर्वथा विरुद्ध है। आर्थिक सत्ता के राज्य में या कुछ मुट्ठी भर लोगों में केंद्रित होने से रोकने के लिए हमें विकेंद्रित अर्थव्यवस्था का अवलंबन करना होगा। साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों ही एक नई प्रकार की विषमता, अमानवीयता, हिंसा, स्वार्थ, लोभ, अनियंत्रित उपभोगवाद तथा अन्यताभाव (एलीनेशन) आदि बुराइयों को जन्म देते हैं। गांधीजी का न्यासिता अथवा ‘ट्रस्टीशिप’ का सिद्धांत संसार को तीसरा रास्ता दिखा सकता है। ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार पूंजीवाद और साम्यवाद—दोनों के अच्छे तत्त्व ले सकता है और बुरे तत्त्वों को छोड़ सकता है। यदि समाज को उत्पादक, उपभोक्ता, राज्य, पूंजी तथा श्रम-सभी के हितों में सामंजस्य बिठाना है और उनको एक संयुक्त प्रयास में भागीदार बनाना है तो ‘ट्रस्टीशिप’ के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।

गांधीजी के ‘ट्रस्टीशिप के विचार की विवेचना करते समय हमें यह समझना है कि यह केवल सत्ताधारियों की भलमनसाहत पर आधारित नहीं है। इसका सही महत्त्व संस्थागत परिवर्तन तथा संगठित जनशक्ति की भूमिका की पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है।

यह खेद का विषय है कि ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत को अमल में लाने की ओर हमारे देश में पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया, जबकि ब्रिटेन जैसे कुछ अन्य देश इस दिशा में प्रयोग कर रहे हैं।

यदि देश 1947 में ही गांधीजी के रास्ते पर चलने का फैसला करता तो आज हम अपने को जिस संकट में पाते हैं, उसका सामना हमें शायद नहीं करना पड़ता। 33 वर्षों के आर्थिक नियोजन और विकास के बाद भी गरीबी बढ़ रही है, विषमता में वृद्धि हो रही है और बेरोजगारी की समस्या ने एक विस्फोटक रूप धारण कर लिया है। देश की प्रवृत्ति और प्रतिभा के अनुरूप तथा अपने भौतिक और मानवीय साधनों को ध्यान में रखकर यदि हम विकास का स्वदेशी ढांचा अपनाते तो आज पश्चिमी पूंजीवाद और सोवियत नियोजन की बुराइयों से ग्रस्त इस दयनीय दशा में नहीं होते।

तीसरा विकल्प

सच्चाई यह है कि पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों जुड़वा भाई हैं। एक समानता को समाप्त करता है, तो दूसरा स्वतंत्रता को और दोनों ही बंधुत्व को मिटाते हैं। पूंजीवाद और साम्यवाद- दोनों ही अपनी चमत्कारिक उपलब्धियों के बावजूद आज अवनति की ओर बढ़ रहे हैं। साम्यवादी देशों में अधिकाधिक विषमता जन्म ले रही है। पूंजीवादी देशों में स्वतंत्रता को और अधिक सीमित करने के प्रयास चल रहे हैं। विश्व को एक तीसरे विकल्प की खोज है। पूंजीवाद और साम्यवाद — दोनों को ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जिनका उत्तर इन व्यवस्थाओं के पास नहीं है।

राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर भी पूंजीवादी और मार्क्सवादी प्रणालियों में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता। पूंजीवादी देशों की तुलना में साम्यवादी देश कुछ कम विस्तारवादी सिद्ध नहीं हुए हैं। भारतीय जनता पार्टी गांधीवादी समाजवाद को तीसरे विकल्प के रूप में स्वीकृत कराने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान संगठित करेगी।

सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता

प्राचीन काल से चली आ रही अपने देश की परंपरा के अनुरूप हम धर्मनिरपेक्षता के आदर्श से प्रतिबद्ध हैं। धर्मतंत्रीय राज्य हमारी परंपरा के प्रतिकूल है एक ‘सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ में अभिव्यक्त मान्यता हमारी जीवन-दृष्टि का एक मूलभूत तत्त्व रही है। राज्य ने विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के बीच भेदभाव नहीं किया। सर्वधर्म समभाव की उस मनोवृत्ति का ही परिणाम था कि 1947 में जब हम स्वतंत्र हुए, तब (यद्यपि उस समय देश भीषण धार्मिक उन्माद से ग्रस्त था) हमने ऐसी राज्य-व्यवस्था स्थापित करने का निश्चय किया, जिसमें सभी धर्मों के अनुयायियों का स्थान बराबर हो, नागरिकों में न कोई प्रथम श्रेणी का हो, न कोई द्वितीय श्रेणी का।

क्रमश: