अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा

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भाजपा के 44वें स्थापना दिवस पर विशेष

अटल बिहारी वाजपेयी

मुंबई में आयोजित भाजपा राष्ट्रीय परिषद् में 28 दिसंबर, 1980 को
श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दिए गए अध्यक्षीय भाषण का पहला भाग―—

स्वागताध्यक्ष जी, प्रतिनिधि बंधुओ, बहनो और मित्रो, आज हम यहां भारतीय जनता पार्टी के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए एकत्र हुए हैं। मुझे निर्विरोध अध्यक्ष निर्वाचित कर आपने मेरे प्रति जो स्नेह और विश्वास प्रकट किया है, उसके लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूं। मैं जानता हूं कि इस नाजुक घड़ी में किसी राजनीतिक दल का नेतृत्व ग्रहण करना कितना टेढ़ा काम है। मैं यह भी जानता हूं कि भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष पद अलंकार की वस्तु नहीं है। वस्तुतः यह पद नहीं, दायित्व है; प्रतिष्ठा नहीं, परीक्षा है; अधिकार नहीं, अवसर है; सत्कार नहीं, चुनौती है। परमात्मा से प्रार्थना है कि यह मुझे शक्ति तथा विवेक दे, जिससे में इस दायित्व को ठीक तरह से निभा सकूं।

नई पार्टी क्यों?

भारतीय जनता पार्टी का निर्माण किन परिस्थितियों में हुआ, इसके ब्यौरे में मैं नहीं जाना चाहता, किंतु इतना अवश्य कहना चाहता हूं कि हम जनता पार्टी से खुशी से अलग नहीं हुए। आरंभ से अंत तक हम निरंतर इसी दिशा में प्रयत्नशील रहे कि पार्टी की एकता बनी रहे। हमें वह शपथ याद थी, जो हमने पार्टी की एकता बनाए रखने के लिए राजघाट पर लोकनायक जयप्रकाश जी के समक्ष ली। परंतु दोहरी सदस्यता को समस्या बनाकर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की गई कि जनता पार्टी से अलग होने के अतिरिक्त कोई और सम्मानपूर्ण विकल्प हमारे सामने नहीं रह गया।

जिन्होंने ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की, उनके इरादे क्या थे, आज इसमें जाने से कोई लाभ नहीं होगा। परंतु यह उल्लेखनीय है कि दोहरी सदस्यता के प्रश्न को एक बहाना माननेवालों में ऐसे बहुत से लोग थे, जिनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कभी भी और किसी भी रूप में संबंध नहीं रहा। उनमें से अधिकतर भारतीय जनता पार्टी के निर्माताओं में से हैं।

पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता

9 महीनों के अल्प समय में ही भारतीय जनता पार्टी को समूचे देश में जो व्यापक तथा प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ है, उससे हमारे अलग दल बनाने के निर्णय की पुष्टि ही हुई है। आज भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों की संख्या 25 लाख से ऊपर है। इनमें से बहुत से ऐसे हैं, जो पुराने जनसंघ में नहीं थे। फिर भी हमारे कुछ विरोधी, जिनमें प्रधानमंत्री अग्रणी हैं, यह कहते नहीं थकते कि भारतीय जनता पार्टी पुराने जनसंघ का ही नया नाम है। देश के सभी भागों तथा समाज के सभी वर्गों में भारतीय जनता पार्टी की बढ़ती हुई लोकप्रियता से परेशान और भविष्य में पार्टी की भारी संभावनाओं से भय खाकर ही ये लोग सच्चाई पर परदा डालने में लगे हैं।

अधूरे स्वप्न को साकार करने का प्रयास

लोकनायक जयप्रकाश के आह्वान पर बनी जनता पार्टी टूट गई। मगर लोकनायक ने इस महान् भारत देश के जिस रूप का स्वप्न देखा था, उसे हम नहीं टूटने देंगे। उनका स्वप्न, उनकी साधना, उनका संघर्ष, कुछ जीवन-मूल्यों में उनकी अडिग आस्था हमारी अनमोल विरासत के अंग हैं। भारतीय जनता पार्टी लोकनायक जयप्रकाश के अधूरे कार्य को पूरा करने के लिए कृतसंकल्प है।

मूल्याधिष्ठित राजनीति

आज हमारा देश बहुआयामी संकट के बीच गुजर रहा है। निरंतर बढ़ती महंगाई, बिगड़ती कानून व्यवस्था की स्थिति; दैनिक खपत की आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धि में कठिनाई, सांप्रदायिक दंगों की उग्रता तथा अवधि में वृद्धि; अधिकाधिक सामाजिक तनाव तथा हिंसा; हरिजनों, गिरिजनों, स्त्रियों तथा अन्य कमजोर वर्गों पर बढ़ता अत्याचार, पूर्वांचल की विस्फोटक परिस्थितिः ये इस संकट के कुछ आयाम हैं।

नैतिक संकट

इन समस्याओं का सामना करने का दायित्व जिन पर है, वे सत्ता की शतरंज पर मोहरे बैठाने में लगे हैं तथा इनका समाधान करने में असमर्थ हो रहे हैं। मैं समझता हूं कि मूलतः हमारा संकट एक नैतिक संकट है। हमारे सार्वजनिक जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि नैतिक मूल्यों का स्थान स्वार्थसिद्धि एवं स्वार्थसिद्धि के साधन के रूप में सत्ता प्राप्ति ने ले लिया है।

सार्वजनिक जीवन में पतनावस्था

1969 में राष्ट्रपति पद के लिए अपनी पार्टी के उम्मीदवार, जिनका नामांकन-पत्र स्वयं प्रधानमंत्री ने दाखिल किया था, को हराने के लिए अपनाए गए अनैतिक तरीकों से जो प्रक्रिया प्रारंभ हुई, वह समय बीतने के साथ अधिकाधिक व्यापक और बलवती होती गई। 1975 में घोषित आपातस्थिति किसी अंतरबाह्य संकट का सामना करने के लिए नहीं, बल्कि सत्ता में बने रहने के लिए ही थी। जनता शासन में न्यायालयों में उपद्रव, विमान का अपहरण आदि गंभीर अपराधों को प्रोत्साहन देना, डराने-धमकाने के अन्य तरीके अपनाना, बड़े पैमाने पर दलबदल कराने की साजिश इसी प्रक्रिया के अंतर्गत आते हैं। 1980 के चुनाव में असामाजिक तत्त्वों का खुला उपयोग तथा थोक वोट प्राप्त करने के लिए सांप्रदायिक, जातीय तथा क्षेत्रीय भावनाओं को उकसाने के प्रयत्नों को भी इसी संदर्भ में समझा जा सकता है।

दोहरा मानदंड

नैतिकता का दोहरा मानदंड इसी प्रक्रिया का एक पक्ष है; जो सत्ता में है या सत्ताधारियों के कृपापात्र हैं, उनके निकट हैं, उनके संबंधी हैं, उनके लिए एक मानदंड तथा औरों के लिए दूसरा मानदंड। जनता शासन के पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने कृपा पात्रों और संबंधियों के विरुद्ध लगाए गए अभियोगों को, संथानम कमेटी की सिफारिशों की परवाह न करते हुए न्यायिक विचार के बिना अस्वीकार कर दिया। इसके विपरीत जनता शासन में प्रधानमंत्री ने स्वयं अपने संबंधियों का मामला न्यायिक विचार के लिए भेजा। वास्तव में जनता शासन के 28 महीनों में ही इस प्रक्रिया की रोकथाम की दिशा में कुछ करने का प्रयत्न किया गया।

इस प्रकार की प्रक्रिया केवल शासक वर्ग तथा राजनीतिक दलों को प्रभावित करके नहीं जाती। वह समूचे समाज, नौकरशाही, उद्योगपतियों, व्यापारियों, यहां तक कि आम लोगों को भी अपने चंगुल में लपेट लेती है। स्वार्थसिद्धि तथा जैसे भी हो, अपना काम बना लेने की हवा चल पड़ती है। परिणामतः राष्ट्र की नैतिक शक्ति का ह्रास हो जाता है और राष्ट्र संकटों का सफलतापूर्वक सामना करने की क्षमता खो बैठता है।

नैतिक मूल्यों की पुनःस्थापना

वर्तमान संकट पर विजय पाने की पहली शर्त यह है कि हमारा सार्वजनिक जीवन नैतिक मूल्यों पर आधारित हो। हमें इन मूल्यों को ढूंढ़ने के लिए देश के बाहर कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। भारत के जन-जीवन की परंपरा में ही इन मूल्यों की जड़ें विद्यमान हैं। संप्रदाय, धर्म, जाति, भाषा तथा क्षेत्र की सीमाओं से ऊपर उठकर आम भारतीयों का जीवन जिन मूल्यों से जुड़ा हुआ रहा है, जैसे—सहिष्णुता, सादगी, संतोष, परिश्रम, भाईचारे की भावना, उन्हीं को आधार बनाकर हमें नए समाज की रचना करनी है। आधुनिक परिस्थितियों के संदर्भ में जनजीवन का पुराना रूप बदलना वांछनीय है। पंडित नेहरू ने विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी के उपयोग पर बल देकर विकास की जो दिशा दिखाई, उससे राष्ट्र की समृद्धि बढ़ी, किंतु वह समृद्धि कुछ लोगों तक ही सीमित रह गई। विषमता में वृद्धि हुई तथा अमीर और गरीब के बीच की खाई और अधिक चौड़ी हो गई। इस विकृति को दूर करने हेतु भारतीय परंपरा के मूल्यों को आधार बनाकर आगे चलना है और व्यक्ति को, विशेषकर दुर्बलतम व्यक्ति को, विकास प्रक्रिया का केंद्रबिंदु बनाना है। गांधी, जयप्रकाश तथा दीनदयाल प्रभृति मनीषियों ने प्रगति के इसी रूप का प्रतिपादन किया था। इसी दृष्टिकोण से जनता शासन में ‘अंत्योदय’, काम के बदले अनाज आदि योजनाएं हाथ में ली गई थीं।

इस प्रकार के समाज का निर्माण, जो शोषण तथा भेदभाव से रहित तथा कुछ जीवन मूल्यों पर आधारित हो, केवल बड़ी-बड़ी बातें करने तथा महात्मा गांधी का नाम रटने से नहीं हो सकता। इसके लिए संघर्ष करना पड़ेगा। गरीब, किसानों, श्रमिकों, हरिजनों, गिरिजनों तथा अन्य शोषित वर्गों को संगठित करना होगा। इनकी संगठित शक्ति द्वारा ही इस प्रकार के समाज का निर्माण हो सकेगा। महात्मा गांधी ने जनशक्ति को जगाकर तथा संगठित करके ही विदेशी सरकार के विरुद्ध सफल संघर्ष किया था।

सिद्धांत आधारित राजनीति

हम जनता को तभी संगठित कर सकेंगे, हमारी बात वह तभी सुनेगी, जब हम उसके मन में अपनी विश्वसनीयता स्थापित कर सकें, उसे हम यह विश्वास दिला सकें कि हमारा उद्देश्य केवल स्वार्थसिद्धि और सत्ता हथियाना नहीं है, हमारी राजनीति कुछ मूल्यों, कुछ सिद्धांतों पर आधारित है।

गांधीवादी समाजवाद

भारतीय जनता पार्टी ने सोच-समझकर गांधीवादी समाजवाद को स्वीकार किया है। स्वयं गांधी जी अपने विचारों को किसी वाद का रूप देने के पक्ष में नहीं थे, किंतु उन्होंने जीवन को न केवल उसकी समग्रता में देखा था, बल्कि आधुनिक समस्याओं के हल के बारे में एक समन्वित दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया था।
उन्होंने मनुष्य का विचार मात्र आर्थिक इकाई के रूप में नहीं किया। सभी प्राचीन मनीषियों की भांति महात्मा जी भी मनुष्य की भौतिक और आध्यात्मिक-दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना लक्ष्य बनाते हैं। गांधी जी से पहले स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक समाजवाद की बात कही थी। गीता में साम्ययोग की चर्चा है। ईशावास्य उपनिषद् में किसी दूसरे के धन को ललचाई आंखों से न देखने का निर्देश एक ऐसी समाज रचना की ओर संकेत करता है, जो ‘अपरिग्रह’ पर आधारित होगी। ‘सबै भूमि गोपाल की’ के पीछे भी यही भावना है। यज्ञ में हर आहुति के बाद ‘इदन्नमम्’ (यह मेरा नहीं है) का उच्चारण व्यक्ति के मन पर यह छाप छोड़ने के लिए ही किया जाता है कि आवश्यकता से अधिक का संचय नहीं करना चाहिए।
                                                                                                                                  क्रमश: