राष्ट्र की सुरक्षा के प्रश्न को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाए

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दीनदयाल उपाध्याय

बाह्य आक्रमण अथवा अन्य कोई आंतरिक संकट किसी भी राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए संकट का कारण बन सकता है। इसी प्रकार यदि कोई देश आंतरिक दृष्टि से जर्जर हुआ तो वह शीघ्र ही बाह्य आक्रमणों का शिकार बन बैठता है। लेकिन बाह्य आक्रमण के फलस्वरूप कई बार राष्ट्र में राष्ट्रीय एकता की उग्र भावना भी उत्पन्न हुई है और इसलिए उसे संकट के समय का वरदान भी कहा जाता है। अंग्रेजी की एक कहावत के अनुसार ऐसे राष्ट्र के विषय में यह कहा गया है कि वह युद्धकाल में तो जीवित रहता है, पर शांति का समय उसके लिए मृत्यु का द्वार है। फिर भी, इस तर्क के आधार पर कोई युद्ध की कल्पना अथवा योजना नहीं कर सकता। लेकिन प्रत्येक राष्ट्र को आत्मरक्षार्थ सैनिक एवं मानसिक दृष्टि से सदैव सिद्ध रहना आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना कोई भी राष्ट्र संसार में अपनी स्वतंत्रता को अधिक दिन तक टिकाकर नहीं रख सकता। इतना ही नहीं, एक राष्ट्र को बाह्य आक्रमणों से आत्मरक्षा करने की तैयारी के अतिरिक्त देश में विद्यमान विघटन एवं पृथकतावादी तत्वों का सामना करने के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। पर यदि देश में कोई ऐसा राजनीतिक दल है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता की ओर से उदासीन है तो उसके द्वारा न विघटनवादी तत्त्वों का सामना करना ही संभव है और न ही वह शत्रु का प्रतिकार कर सकता है। वास्तव में ऐसा दल, जो राष्ट्रीय सुरक्षा की ओर से इस प्रकार उदासीन हो तो वह राष्ट्र के अस्तित्व को बनाए रखने में भी सफल नहीं हो सकता।

जनसंघ का कथन अनसुना किया गया

जब कम्युनिस्ट चीन द्वारा भारत के विस्तृत भू-भाग पर अनुचित क़ब्ज़ा किए जाने की बात प्रकाश में नहीं आई थी, जनसंघ को छोड़कर देश का प्रत्येक राजनीतिक दल राष्ट्र की सुरक्षा की ओर से उदासीन था और पाकिस्तान द्वारा दी जानेवाली धमकियों को ये दल सांप्रदायिक मस्तिष्क का प्रलाप कहकर शांत हो जाते थे अथवा पाकिस्तान को अपनी सरकार द्वारा विरोध-पत्र भेजने को पर्याप्त समझ उसके प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाए जाने के समर्थक थे। इन राजनीतिक दलों ने चीन की ओर से भी कभी संकट उपस्थित हो सकता है, इसकी कल्पना भी नहीं की थी और पंचशील के भावोन्मेष में वे इस ओर से पूरी तरह से उदासीन थे।

चीन की यह वकालत

यही कारण है कि सन् 1957 के चुनावों के समय प्र.स. और समाजवादी दलों ने जहां अपने घोषणा-पत्रों में तिब्बत पर चीन के क़ब्ज़े और दक्षिण-पूर्वी एशिया में उसके बढ़ते प्रभाव पर चुप्पी साध रखी थी, वहां कांग्रेस ने भारत-चीन की मित्रता का राग अलाप कर देश का बहुत बड़ा अहित किया था। सन् 1957 के कांग्रेस चुनाव घोषणापत्र में कहा गया था कि ‘पिछले कई वर्षों में चीन ने एक जनवादी गणतंत्र प्रस्थापित कर अपने को एक सबल राष्ट्र के रूप में खड़ा कर लिया है, जो निरंतर प्रगति करता जा रहा है। भारत और चीन के राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में पर्याप्त भिन्नता होने के बाद भी चीन भारत का एक महान् पड़ोसी मित्र राष्ट्र है। चीन को राष्ट्र संघ में स्थान दिलाने के लिए भारत सदैव प्रयत्न भी करता रहा है, परंतु हमें दुःख है कि संसार के अनेक राष्ट्रों ने इसका विरोध किया है। लेकिन विश्व के एक चौथाई जनसंख्या वाले इस देश को जब तक राष्ट्र संघ में स्थान नहीं दिया जाता, वह वास्तविक अर्थों में न तो पूर्ण प्रतिनिधित्व वाला एक विश्व-संगठन बन सकता है और न ही सुदूर पूर्व अथवा दक्षिण-पूर्वी एशिया की समस्याएं ही चीन के सहयोग के बिना हल की जा सकती है।’

क्या यह देशद्रोह नहीं?

पर जब यह घोषणा-पत्र तैयार किया गया था, उस समय तक चीन ने लद्दाख के क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाकर भारतीय क्षेत्र के अंदर अपनी एक सड़क भी बना ली थी। भारत सरकार पेकिंग को इस संबंध में विरोध-पत्र भी प्रेषित कर चुकी थी, लेकिन भारतीय जनता को इसकी सूचना नहीं दी गई, यहां के कांग्रेसी नेता यह सब जानते थे। कम-से-कम पंडित नेहरू, जिन्होंने कांग्रेस का उक्त घोषणा-पत्र तैयार किया भलीभांति परिचित ही थे। ऐसी स्थिति में शत्रु को चेतावनी न देकर और भारतीय जनता का आह्वान न करते हुए कांग्रेस का घोषणा-पत्र चीन की महानता और उसकी प्रगति का चिट्ठा देश के सम्मुख रख रहा था, जिसके लिए देशद्रोही की संज्ञा दी की जा सकती है।

हमने चेतावनी दी थी

इन सब दलों से भिन्न भारतीय जनसंघ ही उस समय एकमात्र ऐसा दल था, जो चीन की ओर से सशंकित था और जिसने पाकिस्तान की शत्रुतापूर्ण कार्रवाइयों का उल्लेख करने के पश्चात् सन् 1951 के अपने चुनाव घोषणा-पत्र में लिखा था कि भारत का उत्तरी सीमांत भी सुरक्षित नहीं है। भारत के शांतिपूर्ण दृष्टिकोण की उपेक्षा करते हुए चीन ने तिब्बत की स्वाधीनता नष्ट कर उसे गुलाम बना लिया है, जो सह-अस्तित्व की नीति के विरुद्ध है। नेपाल से संधि करते समय भी चीन ने वहां पर भारत की विशेष स्थिति को ध्यान में नहीं रखा है। इसी भांति चीन नक्शों पर भारतीय क्षेत्र को दिखाना, जिसे ग़लती से दिखाया गया बताया गया था, वहां चीनी सेनाओं के प्रवेश (जिसका कारण ग़लतफ़हमी बताया गया था) और दक्षिण पूर्वी एशिया के छोटे-छोटे देशों में चीनियों की जो गतिविधियां चल रही हैं, उनकी ओर से भारत को सतर्क रहना चाहिए। ‘इससे स्पष्ट है कि जनसंघ ने चीनियों को समझने में उस समय भी कोई ग़लती नहीं की थी।’

काश! सरकार पहले चेतती तो…

सन् 1957 में जनसंघ को छोड़कर अन्यान्य राजनीतिक दल देश की सुरक्षा को आर से उदासीन थे और राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रमों को ही वे महत्त्व दे रहे थे। लेकिन जनसंघ ने उस समय सुरक्षा के प्रश्न को सर्वोपरि महत्त्व का प्रश्न बताया था और उसके लिए अपने सुझाव देते हुए उसने कहा था कि देश की सेनाओं को बढ़ाने, विकसित करने, उनमें राष्ट्रीय भावनाएं उत्पन्न करने के साथ ही उन्हें आधुनिकतम शस्त्रों से सुसज्जित करना चाहिए। युवकों के लिए अनिवार्य सैनिक शिक्षा दिए जाने का भी हमने सुझाव दिया था। यह जानते हुए कि अपने अल्प साधनों के द्वारा राज्य-सरकारें सीमांत क्षेत्र की उचित सुरक्षा व्यवस्था नहीं कर सकतीं, केंद्र के अधीन एक सीमांत पुलिस एस्टैब्लिशमेंट स्थापित करने का सुझाव भी जनसंघ ने दिया था। यदि सीमांत-निरीक्षण एवं सुरक्षा का यह कार्य केंद्र ने पहले से ही अपने हाथ में लिया होता तो अक्साइ चिन में चीनियों के घुसने के समाचार का ज्ञान सरकार को काफी दिनों पूर्व ही हो जाता।

आज जब कि हमारी सीमाएं असुरक्षित हैं और आक्रमण जारी है, तब राष्ट्र की सुरक्षा के प्रश्न पर कोई भी मौन नहीं रह सकता। पर यह दु:ख की बात है कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस प्रश्न को अपने चुनाव घोषणा-पत्रों में अधिक महत्त्व नहीं दिया है।

चीन के आक्रमण के प्रश्न पर कम्युनिस्ट चुप्पी क्यों साधे हुए हैं?

तीन प्रमुख बातें

राष्ट्र की सुरक्षा की दृष्टि से हमें तीन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है- अपनी सीमाओं की सुरक्षा करने के साथ हम यह भी देखें कि यहां पंचमांगी तत्त्व न रहने पाएं और न कोई अनधिकृत व्यक्ति उक्त क्षेत्र में प्रवेश कर सके। दूसरे हमें अपने भूभाग को मुक्त कराना चाहिए और तीसरे देश की रक्षा-व्यवस्था में वृद्धि कर सेना की सभी असुविधाओं का हल शीघ्रातिशीघ्र ढूंढ़ निकालना चाहिए।

जनसंघ के सुझाव

सीमांत सुरक्षा और घुसपैठ को रोकने के लिए भी जनसंघ को छोड़कर किसी भी दल ने अपने सुझाव नहीं दिए हैं। जनसंघ का कहना है-

केंद्र को सीमांत क्षेत्र की रक्षा के लिए एक विशेष पुलिस दल प्रस्थापित करने के साथ ही तस्कर व्यापार रोकने और अनुचित घुसपैठ को रोकने का भी प्रबंध करना चाहिए। भारत के गुप्तचर विभाग का आधुनिकीकरण करते हुए विदेशी गुप्तचरों और पंचमांगियों की कार्रवाइयों को उनकी हरकतें बढ़ने से पहले ही रोकने का उपाय करना चाहिए। इसी भांति जनसंघ का मत है कि असम और कश्मीर में अनधिकृत रूप से आए पाकिस्तानियों को तुरंत देश के बाहर निकाल देना चाहिए।

सीमांत-क्षेत्र के विकास के लिए विशेष प्रयत्न

सीमांत क्षेत्र विकास पर बल देते हुए जनसंघ ने अपने घोषणा-पत्र में कहा है कि ‘सीमांत क्षेत्र के विकास के लिए विशेष प्रयत्न किए जाएंगे। इस दृष्टि से योजना बनाकर उन्हें आवश्यक धन प्रदान किया जाएगा और जहां आवश्यक होगा उनका कार्यान्वयन सुरक्षा विभाग द्वारा किया जाएगा। यातायात के साधनों का विकास करने के साथ इन क्षेत्रों के आर्थिक विकास की भी आवश्यक व्यवस्था की जाएगी। प्रजा समाजवादी दल ने भी इसी भांति सीमांत क्षेत्र में विशेष प्रयत्न करने की बात को दुहराया है।

जहां तक विदेशी चंगुल में पड़े भारतीय भूभाग को मुक्त कराने का प्रश्न के दल उसको आवश्यक बताते हैं। किंतु आक्रमण समाप्त करने के लिए बताए गए उपायों में परस्पर बहुत अधिक भिन्नता है और इसका कारण प्रत्येक दल की विदेश-नीति और संसार के शक्तिगुटों की ओर देखने का उनका दृष्टिकोण है।

चीन व पाक के कारनामे

पाकिस्तान और चीन इस समय भारत के भूभाग को दबाए हुए बैठे हैं। युद्धविराम रेखा समझौते के कारण कश्मीर का एक-तिहाई भूभाग पाकिस्तान के क़ब्ज़े में है। चीन ने भारतीय भूभाग के विशाल क्षेत्र पर अपना दावा उपस्थित कर उसके कुछ अंश को हस्तगत कर लिया है और सभी समझौतों को तोड़ते हुए वह अपनी ज़िद पर अड़ा है। भारत सरकार ने भी उक्त क्षेत्र को मुक्त करने की दृष्टि से कोई भी पग नहीं उठाया है। जहां तक पाकिस्तान का संबंध है, उसने युद्ध विराम रेखा का बड़े पैमाने पर उल्लंघन नहीं किया है। यद्यपि समय-समय पर पाकिस्तानी उक्त रेखा को पारकर भारतीय ग्रामों में लूटमार करते रहते हैं और पाकिस्तान ‘जेहाद’ की धमकियां देता रहता है। पूर्वी सीमा पर भी तुकेरग्राम और पथरिया जंगल के क्षेत्र में फायरिंग आदि की घटनाएं हई हैं और पाकिस्तान ने अपना अनुचित अधिकार वहां पर बना रखा है। किंतु चीन भारत को बराबर धमकियां देने के साथ आगे भी बढ़ता जाता है और भारतीय विरोध-पत्रों को उसने कभी भी मान्य नहीं किया है।
क्रमश:
-पाञ्चजन्य, जनवरी 22, 1962, संघ शिक्षा वर्ग, बौद्धिक वर्ग : लखनऊ