यह मेरा नहीं सबका है और इसलिए राष्ट्र का है

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दीनदयाल उपाध्याय

गोली का पहला शिकार लोकतंत्रवादी होगा

ज समाजवादी खेमे में व्याप्त भ्रमपूर्ण स्थिति के लिए बहुत अंशों तक यह सिद्धांत ही ज़िम्मेदार है, अब तक कोई भी विचारक ऐसा सर्वांगपूर्ण दोषरहित चित्र प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो सका है, जिसमें इन दोनों तत्त्वों का सह अस्तित्व संभव हो सके। इसमें भी, यदि हम लोकतंत्र के विभिन्न स्वरूपों और मर्यादाओं के साथ-साथ भिन्न-भिन्न देशों के विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक ढांचे और भिन्न-भिन्न प्रकार के भौतिक एवं आर्थिक विकास के स्तरों पर विचार करें, तब तो यह भ्रम के बादल और भी घनीभूत हो जाते हैं। इस भ्रजमाल की जटिलता के कारण यह गुत्थी इतनी उलझती जाती है कि जिसका सुलझना असंभव सा हो जाता है।

गैर-समाजवादी देशों ने भी समाजवादियों के भ्रम को बढ़ाने का ही कार्य किया है। विगत 30 वर्षों में अपनी उदारवादी नीतियों एवं नवीन आर्थिक चिंतन के कारण उन्होंने समाजवादियों को हतप्रभ सा कर डाला है। आज अमरीका या इंग्लैंड का सर्वसाधारण व्यक्ति, किसान और मज़दूर, जिसे साम्यवादी परिभाषा के अनुसार सर्वहारा कहा जाता है, सौ वर्ष पूर्व की उत्पीड़ित अवस्था में नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था के स्थान पर कल्याणकारी राज्य के आदर्श प्रस्थापित हो रहे हैं। पूंजीवादी ओर समाजवादी दोनों ही प्रकार के देशों के बारे में मार्क्स की भविष्यवाणी असत्य सिद्ध हुई है। कल के पूंजीवादी देशों ने अपनी पद्धति में विकास किया है और आज वे भौतिक विकास में समाजवादियों से टक्कर लेने को उद्यत हैं, पर समाजवाद आज भी उसी स्थान पर ही अड़ा हुआ है, जहां से उसने अपनी यात्रा प्रारंभ की थी। यदि उसने कुछ पग आगे बढ़ाए भी हैं तो वे सही दिशा में नहीं बढ़े हैं। इसके विपरीत पूंजीवादी देशों में लोकतंत्र होने के कारण अपनी भूलों को सुधारने एवं नवीन बातों को स्वीकार करने की सिद्धता रहती है।

पर समाजवादियों के समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण में इस प्रकार के लचीलेपन का अभाव है। यह विचारधारा किसी प्रकार के नवीन चिंतन की प्रेरणा नहीं देती। मसीहावाद और अपरिवर्तनीय अंधविश्वासों पर आधारित मज़हब के अनुयायी की तरह कट्टर समाजवादी नए स्वतंत्र विचारों से दूर ही रहना पसंद करता है। यही कारण है कि कम्युनिस्टों के शब्दकोश में ऐसे विचारकों के लिए अनेक प्रकार की गालियां भरी रहती हैं। परंतु विचारशील मानव विचाररहित नहीं हो सकता। यदि उसकी विचार-तंरगों को योग्य दिशा देने की कोई योजनाबद्ध व्यवस्था न रही तो उसका अनिवार्य परिणाम चतुर्दिक भ्रम के रूप में सामने आए बिना नहीं रह सकता।

यह कैसा विरोध ?

आज भारत में समाजवाद के बारे में जो वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ है, वह प्रमुख रूप से राजकीय उद्योगों के विस्तार की अनिवार्यता या व्यर्थता के ऊपर ही केंद्रित है। स्वतंत्र उद्योगों के पुरस्कर्ता एवं समाजवादी विचारक एक-दूसरे के विरुद्ध ताल ठोककर खड़े हो गए हैं। पर साथ ही एक मजेदार तथ्य यह है कि दोनों एक-दूसरे के लिए पर्याप्त और न्यायसंगत क्षेत्र को ख़ाली छोड़ने के लिए तत्पर भी हैं। अविकसित अर्थव्यवस्था में सरकार को कुछ ऐसे उद्योगों को भी अपने हाथ में लेना पड़ता है, जो कदाचित् साधारण अवस्था में स्वतंत्र लोगों के हाथ में छोड़े जा सकते थे। साथ ही किसी नियोजित अर्थव्यवस्था में स्वतंत्र उद्योगपतियों को वैसी खुली छूट भी नहीं दी जा सकती, जैसी शताब्दियों से पश्चिम के लोग उपयोग करते रहे हैं। सच पूछा जाए तो यह स्पर्धा यदि नियंत्रित रखी गई, तो दोनों में योग्य संतुलन स्थापित करने में सहायक हो सकती है। समस्याओं का सामना करते समय समाजवादी स्वतंत्रों की श्रेणी में आ बैठता है और स्वतंत्र समाजवादी खेमे में।

साध्य के अनुरूप साधन हों

पर प्रमुख समस्या यह नहीं है कि हम समाजवाद को स्वीकार करें या उद्योगों की स्वतंत्रता के सिद्धांतों को। समाजवाद और लोकतंत्र की आपस में तुलना नहीं की जा सकती, पर हमारे लिए ये ही विकल्प के रूप में नहीं हैं। वे साधन मात्र हैं, साध्य नहीं। तब फिर साध्य क्या हो? हमें पहले गंतव्य निर्धारित कर, फिर मार्ग का निर्धारण करना चाहिए। सभी विचारशील मनुष्यों ने मानव कल्याण को साध्य माना है। पर दुर्भाग्य यह है कि अभी तक मनुष्य मनुष्य को ही समझने में असमर्थ रहा है। मानव को सुखी व संपन्न बनाने के प्रयास में समाजवाद एवं लोकतंत्र. दोनों ने ही उसको एक वीभत्स स्वरूप दे डाला है। उन्होंने उसकी समस्त विशेषताओं को उससे छीन लिया है। रेने फुलप ने ‘डी ह्यूमनाइजेशन इन मॉर्डन सोसाइटी’ (De-Humanisation in modern society) नामक अपनी पुस्तिका में लोकतंत्र एवं समाजवाद के इस पहलू का विशद् विवेचन किया है। वह लिखता है :

‘Democracy, although it gave us right to vote, trial by jury, a free press, religious freedom, the freedom to choose their jobs and the freedom to speak their mind, it also gave us the economic man.’

(यद्यपि जनतंत्र ने हमें मत देने का अधिकार, न्याय पाने का अधिकार, विचार स्वातंत्र्य, धार्मिक स्वातंत्र्य, स्वयं का पेशा निर्धारित करने की स्वतंत्रता और भाषण स्वातंत्र्य प्रदान किया है, पर साथ ही उसने हमें एक ‘आर्थिक मानव’ की कल्पना भी दी है।)

इस कल्पना ने पूंजीवाद को जन्म दिया, जहां अधिकाधिक उत्पादन क्षमता बढ़ाने पर तो अत्यधिक बल दिया गया, पर सोद्देश्य जीवन व्यतीत करने की क्षमता बढ़ाने की ओर पूर्ण दुर्लक्ष्य कर दिया गया। दूसरी ओर समाजवाद या साम्यवाद ने सामूहिक सुरक्षा एवं मज़दूर वर्ग के हितों के संरक्षण का नारा लगाया, पर इसी के साथ-साथ उसने ‘युद्ध-पिपासु मानव’ को जन्म दिया। यह युद्ध-लोलुप मानव समाजवादी राज्य की ही देन है। उसे न विचार करने की स्वतंत्रता प्राप्त है, न स्वयं के निर्णय करने की। इस व्यवस्था के अंतर्गत मानव जीवन का मूल्य एक निरीह पशु से अधिक नहीं आंका जाता।

मशीन की गुलामी का अंत आवश्यक

समाजवाद और लोकतंत्र दोनों ने ही मानव के भौतिक स्वरूप और आवश्यकताओं पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया है और दोनों की आधुनिक विज्ञान तथा यांत्रिक उन्नति पर अत्यधिक श्रद्धा है। दोनों ही इन वर्तमान आविष्कारों के शिकार से हो गए हैं। परिणाम यह है कि उत्पादन के साधनों का निर्धारण मानव कल्याण और उसकी आवश्यकताओं के अनुसार नहीं किया जा रहा है, बल्कि उनका निर्धारण यंत्रों के अनुसार करना पड़ रहा है। उत्पादन की केंद्रित व्यवस्था में, फिर उसका नियंत्रण चाहे व्यक्ति द्वारा हो अथवा राज्य द्वारा, मानव के स्वतंत्र व्यक्तित्व का लोप हो जाता है। मशीन के एक पुरज़े से अधिक उसका महत्त्व ही नहीं रहता। यदि हमें मनुष्य के मनुष्यत्व की रक्षा करनी है तो उसे मशीन की गुलामी से मुक्त करना होगा।

आज व्यक्ति मशीन पर शासन नहीं करता, मशीन मनुष्य पर शासन कर रही है। इस मशीन-प्रेम के मूल में मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं को अधिकाधिक मात्रा में तृप्त करने की भावना ही निहित है। पर हम यह न भूलें कि केवल भौतिक समृद्धि मात्र से मनुष्य सुखी नहीं हो सकता। भौतिक साधनों से संपन्न राष्ट्रों की समस्याएं भी आज हमारे सम्मुख हैं। हमें संपूर्ण मानव जीवन का विचार कर उत्पादन, वितरण और उपभोग को एक इकाई मानकर चलना पड़ेगा। हमें एक ऐसी पद्धति का निर्माण करना होगा, जिसमें मनष्य उत्पादन और उपभोग करते समय एक सार्थक जीवन व्यतीत करने का भी ध्यान रखता है। मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं का समुच्चय मात्र ही नहीं है। उसकी कुछ आध्यात्मिक आवश्यकताएं भी हैं। जो जीवन-पद्धति मानव-जीवन के इस आध्यात्मिक पहलू की उपेक्षा करती हो, वह कदापि पूर्ण नहीं हो सकती। यहां हमें इस बात का स्मरण रखना होगा कि भौतिक उन्नति के साथ आध्यात्मिक प्रगति की कल्पना केवल हवाई उड़ान ही नहीं है।

मानव की गरिमा को सुरक्षित रखते हुए समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने का दायित्व भी निभाना ही होगा। समाजवाद और लोकतंत्र दोनों ने ही एकांगी मार्ग स्वीकार किया है और मनुष्य की इन दो भिन्न प्रवृत्तियों का समुचित सामंजस्य बिठाकर उसके व्यक्तित्व का विकास करने के स्थान पर एक भ्रमपूर्ण स्थिति पैदा कर विभिन्न शक्तियों के लिए एक युद्ध-स्थल तैयार कर दिया है।

तरणोपाया

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों पर आधारित हिंदू जीवनादर्श ही हमें इस संकट से उबार सकते हैं। विश्व की समस्याओं का उत्तर समाजवाद नहीं, हिंदुत्ववाद है। यही एक ऐसा जीवन दर्शन है, जो जीवन का विचार करते समय उसे टुकड़ों में नहीं बांटता अपितु संपूर्ण जीवन को एक इकाई मानकर उसका विचार करता है। यहां पर हमें हिंदू-जीवनादर्शों का विचार करते समय कुछ निष्प्राण कर्मकांड के साथ अथवा हिंदू समाज में व्याप्त अनेक अहिंदू व्यवहारों के साथ उसका संबंध नहीं जोड़ना चाहिए। साथ ही यह समझना भी भारी भूल होगी कि हिंदुत्व वर्तमान वैज्ञानिक उन्नति का विरोधी है। विज्ञान और यंत्र इन दोनों का उपयोग इस पद्धति से होना चाहिए, जिससे वे हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पद्धति के अनुरूप हों।

महात्मा गांधी के विचारों का अनुसरण कर विनोबा, जयप्रकाश नारायण और राजगोपालाचारी ने ट्रस्टीशिप का विचार सम्मुख रखा है। यह हिंदू जीवन-पद्धति के अनुसार ही है। यह एक ऐसा विचार है, जो समाजवादी और गैर-समाजवादी दोनों ही समाजों के लिए समान रूप से उपयोगी हो सकता है। पर यदि हम पाश्चात्य-यंत्र प्रणाली का अंधानुकरण करते रहे तो पूंजीवाद या समाजवाद दोनों ही न हमारी संस्कृति का संरक्षण कर सकेंगे और न हमारे सम्मुख उपस्थित समस्याओं का समाधान ही कर सकेंगे। हमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सैद्धांतिक सभी मोरचों पर इस यंत्रवाद का सामना करना पड़ेगा। हमें धर्मराज्य, लोकतंत्र, सामाजिक समानता और आर्थिक विकेंद्रीकरण को अपना लक्ष्य बनाना होगा। इन सबका सम्मिलित निष्कर्ष ही हमें एक ऐसा जीवन-दर्शन उपलब्ध करा सकेगा, जो आज के समस्त झंझावातों में हमें सुरक्षा प्रदान कर सके। आप इसे किसी भी नाम से पुकारिए, हिंदुत्ववाद, मानवतावाद अथवा अन्य कोई भी नया वाद, किंतु यही एकमेव मार्ग भारत की आत्मा के अनुरूप होगा और जनता में नवीन उत्साह संचारित कर सकेगा। संभव है, विभ्रांति के चौराहे पर खड़े विश्व के लिए भी यह मार्गदर्शक का काम कर सके।

-पाञ्चजन्य, दिसंबर 5, 1960