मैं और हम

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दीनदयाल उपाध्याय

प्रत्येक देशभक्त व्यक्ति की ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक ही है कि अपना देश वैभवशाली बने। राष्ट्र सुखी, संपन्न हो। राष्ट्रीय उत्पादन बढ़े। बेकारी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशांति का अंत हो। न्याय सुलभ हो। आपसी झगड़े समाप्त हों। सांप्रदायिक, क्षेत्रीय, भाषाई संकुचितताओं से ऊपर उठकर लोगों के सोचने, विचारने का तरीका हो। दलीय अभिनिवेशों से नेतागण मुक्त हों। भारत अपने राष्ट्रीय स्वरूप में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, शैक्षिक सभी प्रकार के क्षेत्रों में लोक कल्याणकारी सिद्ध हो। जिसमें ऐसी इच्छा निर्माण नहीं होती हो, उसे भारतीय तो क्या मानव कहना भी कठिन है। स्व. मैथिलीशरणजी गुप्त के शब्दों में कहना हो तो ‘‘जिसका न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है।’ अपने देश को गौरवशाली देखने की इच्छा प्रत्येक जीवंत भारतीय के हृदय में उठना स्वाभाविक है।

अस्तु, राष्ट्र वैभव प्राप्त करने का अर्थ क्या है? कुछ लोग इस संदर्भ में अधूरे चिंतन की ओर बढ़ते हैं, जो राष्ट्रीय प्रगति को व्यक्तिगत लाभालाभ की दृष्टि से देखने वाले लोग हैं, उनके सोचने का दायरा केवल यहीं तक सीमित है कि राष्ट्र के वैभवशाली होने का अर्थ व्यक्ति का अपना जीवन सुखी संपन्न होना है। ऐसे लोग पढ़ाई–लिखाई, व्यापार, परिश्रम और रात–दिन की सारी दौड़–धूप इसी उद्देश्य से करते हैं कि ‘मैं’ व्यक्तिगत रीति से बड़ा–से–बड़ा हो जाऊं। उनकी महत्वाकांक्षाएं, बोलने में भले ही वे राष्ट्रीय दिखाई देती हों, किंतु वास्तविकता में वे व्यक्तिगत हैं। व्यक्तिगत आकांक्षा को लेकर किए गए कार्यों में भी कुछ–न–कुछ अध्यवसाय तो होता ही है, इसलिए कई बार ऐसा तर्क भी दिया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अगर प्रगति कर ले तो राष्ट्र की प्रगति हो जाएगी। किंतु वह तर्क महज एक धोखा है। राष्ट्र की सर्वतोमुखी प्रगति अकेले–अकेले व्यक्ति द्वारा नहीं हो सकती। स्वयं व्यक्ति भी अपने आपमें कुछ नहीं कर सकता। यदि हम थोड़ी गहराई से विचार करें तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि ‘मैं’ का व्यावहारिक अर्थ है ‘हम’।

मेरा नाम है दीनदयाल। इस नाम के साथ ‘मैं’ जुड़ा है। इसी से लोग मुझे पहचानते हैं। मेरा प्रत्येक कार्य इसी नाम से समझा जाता है। इसके साथ मेरा मोह होना स्वाभावकि है। यदि गहरी नींद में मुझे कोई इस नाम से पुकारता है तो मैं जाग उठता हूं। भारी भीड़ में हम जा रहे हों, बहुत कोलाहल हो, किंतु इसी समय इस कोलाहल को चीरकर कोई मेरा नाम लेकर बुलाए तो मैं सतर्क हो जाता हूं। उस कोलाहल और भीड़ में भी मेरा ‘मैं’ जाग्रत रहता है। इतना गहरा संबंध मुझसे मेरे इस नाम का है, किंतु यह नाम भी मुझे क्यों मिला? दीनदयाल के बदले मेरा नाम ‘मि. जॉन’ क्यों नहीं रखा गया? या विश्व में करोड़ों अन्य नाम हैं, फिर यही नाम क्यों रखा गया? कोई यह कह सकता है कि मां ने यह नाम रख दिया, किंतु मां ने यही नाम क्यों रखा? रूसी, चीनी, ईसाई, तुर्की, अरबी आदि नामों में कोई क्यों नहीं रखा? साफ है कि जिस समाज का मैं अंग हूं, उसके अनुरूप नामाभिधान हुआ।

अर्थ यह है कि जन्म के लिए मेरा संबंध पूज्य माता–पिता से है, किंतु जिस दिन मेरा नामकरण–संस्कार हुआ, मैं समाज का अंग बन गया। मेरी बोलने की शक्ति विकसित हुई तो भाषा भी मुझे समाज से मिली। मातृभाषा प्राप्त हुई। बड़े हुए तो सभ्य बने। इसका संबंध भी समाज से है। यानी समाज ने शिक्षा देकर बड़ा किया। जितने सुख–दु:ख के अवसर आए, सबमें समाज उपस्थित हुआ। यहां तक कि सुख–दु:ख की अनुभूतियां भी समाज ने दीं। घर मे कोई सुखदायी कार्य हो– विवाह, पुत्र जन्म या गृह निर्माण, तो इच्छा होती है कि चार लोग एकत्र हों। लोग न आएं तो बचत ही होगी, ऐसा सोचकर कोई संतोष नहीं कर लेता। बड़ी तीव्रता से चाहता है कि सब लोग सम्मिलित हों। समाज ने अच्छा कहा तो मन प्रसन्न होता है। बुरा कहा तो दु:खी। इस समाज के साथ इतना बड़ा संबंध स्थापित हो जाता है। यहां तक कि कोई समाज को बुरा कहे तो असहनीय हो जाता है। ‘सबसे कठिन जाति अपमाना’ वाली गोस्वामी तुलसीदासजी की उक्ति चरितार्थ हो जाती है। एक बार मैं रेलगाड़ी में प्रवास कर रहा था। सवारियों में आपसी तू–तू, मैं–मैं हो गई। बहस ने गाली–गलौज का रूप ले लिया, उनमें एक सज्जन पंजाबी थे।

उन्हें संकेत कर सभी पंजाबियों पर एक व्यक्ति ने ताना कस दिया। बस फिर क्या था? वे बोले, ‘‘देखो भाई, अब तक तुम मुझे ही उल्टा–सीधा कह रहे थे, किंतु अब तुमने सब पंजाबियों को बुरा बताया है। यह मुझे सहन नहीं हो सकता।’’ इतना कहकर वे प्रतिकार करने की सिद्धता में लाल हो उठे। अब सोचना चाहिए कि सब पंजाबी लोग तो वहां उपस्थित थे नहीं, फिर भी इस व्यक्ति में ये जरूर थे। इसी प्रकार कोई भगवान् रामचंद्र, कृष्ण, शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, नानक, कबीर, रामदास, मीरा, तुलसी, गांधी पटेल आदि में से किसी को बुरा कहे तो हमारे अंदर बैठा यह ‘मैं’ जाग उठता है। तब केवल मेरे शरीर तक ही सीमित विचार नहीं होता। ‘मैं’ समाज बनकर उपस्थित होता है। ‘मैं’ का संबंध यदि शरीर तक ही होता तो कोई इन महापुरुषों को कितना ही कहता तो कुछ भी नहीं बिगड़ता किंतु इस ‘मैं’ में ये महापुरुष कहीं अवश्य विराजमान हैं। विदेशों में खेलों की प्रतियोगिताएं होती हैं। तब भारत की टीम विजयी होने पर हम प्रसन्नता से नाच उठते हैं, मिठाई बांटते हैं, आनंद होता है। भारतीय टीम हारने पर दु:ख होता है, भारत की विजय पर ‘मैं’ प्रसन्न और हार में ‘मैं’ दु:खी होता हूं। इस ‘मैं’ में सारा देश भी आता है। इस प्रकार हम अनेक प्रसंगों पर यह पाते हैं कि ‘मैं’ वास्तव में ‘हम’ ही है।

राष्ट्र के वैभव से ही व्यक्ति का महत्त्व

‘हम’ ही महत्वपूर्ण हैं। सब कुछ जीवन पर ही निर्भर है। वैभव भी सामूहिक जीवन की एक विशेष स्थिति का नाम है। एक सज्जन विदेशों की यात्रा कर लौटे हैं। उन्होंने लेख लिखकर बहुत दु:ख प्रकट किया। मैंने पूछा, इतने दु:खी क्यों हैं? तो बोले, ‘‘क्या बताऊं, विश्व के सभी देशों में हिंदुस्तान के संबंध में एक ही धारणा है कि यह भिखारियों का देश है।’’ मैंने उनसे पूछा, ‘‘तुमने तो भीख नहीं मांगी?’’ वे बोले, ‘‘नहीं, किंतु यह कैसे कहा जा सकता है कि भारत भीख मांग रहा है?’’ यानी राष्ट्रीय अपमान में हम सबका अपमान है। उसी प्रकार जब भारत–पाक युद्ध के समय भारतीय सैनिक शत्रु को पराजित कर मोर्चे पर आगे बढ़ने लगे तो जीत की खुशी में नारे लगाए गए। राष्ट्रीय सफलता पर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करने लगें। यानी राष्ट्र के वैभव में हमारा वैभव निहित है।
वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति का जीवन नाशवान है, फिर भी भगतसिंह को सब याद करते हैं। हकीकत राय, गुरु तेग बहादुर को याद करते हैं। एक लंबी परंपरा है, जिनका स्मरण होता है। इन सब बलिदानी महापुरुषों ने अपने शरीर की परवाह नहीं की।

यह ‘हम’ ही था, जिसने ‘मैं’ को इतना ऊंचा उठने की प्रेरणा दी। हंसते–हंसते बलिदान हो गए। कहा कि शरीर नश्वर है। समाज अमर है। समाज को जीवित रखने के लिए व्यक्ति ने बलिदान दिए। समाज ने उन्हें अपनी स्मृतियों में संजोकर अमर बना दिया। दोनों अमर हुए। इन बलिदानों को क्या आत्महत्या कहा जाएगा? नहीं। बलिदान और आत्महत्या में अंतर है। आत्महत्या ‘मैं’ तक सीमित भावना है, इसलिए गलत है किंतु सही कार्य ‘हम’ के लिए होता है तो बलिदान कहा जाता है। शरीर जब देश के लिए, समाज के लिए अर्पित हो तो गौरव की बात है। उसमें चिंता किस प्रकार की? यह वरेण्य है। इससे समाज को शक्ति मिलती है। बलिदान से श्रेष्ठ कार्य के पौधे सींचे जाते हैं। ‘मैं’ का वास्तविक अर्थ ‘हम’ गुंजित होता है। जहां ‘हम’ यानी सामूहिक उत्तरदायित्व उभरा कि शक्ति का प्रस्फुटन होता है। इसलिए बलिदान राष्ट्र को नवचैतन्य प्रदान करने वाले सिद्ध होते हैं।

मोक्ष भी समष्टिगत है

‘हम’ ही वह मूलभूत तथ्य है, जो ‘मैं’ को सार्थक बनाता है। आर्थिक, नैतिक, आध्यात्मिक सभी प्रकार के विकास इसी तथ्य में निहित हैं। कोई व्यक्ति यदि हिमालय की किसी कंदरा में जाकर योग–ध्यान करें और ‘मैं’ से चलकर ‘हम’ तक पहुंचे, केवल व्यक्तिगत मोक्ष की आकांक्षा से ही सब कुछ करे, योगाभ्यास करे, तो भी उसे मुक्ति नहीं मिल नहीं सकती। मुक्ति इतनी छोटी चीज नहीं है जो समाज को छोड़कर किसी एक को एकांत में मिल जाए। किसी प्रकार की सिद्धि भले ही प्राप्त हो जाए तथापि वह सिद्धि तब तक बेकार ही है, जब तक वह अपने चारों ओर फैले समाज बंधुओं को उन्नत करने में समायोजित न हो। कुछ लोगों की ऐसी गलत धारणा है कि समाज अध:पतित रहते हुए भी केवल वही अकेले मुक्ति भी समष्टिगत है। जब समाज मुक्त होगा, तो ऊंचा उठेगा। उन्नत होगा, तभी व्यक्ति को शांति मिल सकती है। इसलिए संन्यास आश्रम में प्रवेश करने वाले भी लोक संग्रह का दायित्व ग्रहण करते हैं।

लोकमान्य तिलक के गीता रहस्य में वर्णित कर्मयोग का भी यही निष्कर्ष है। शास्त्रों में वर्णित एक श्लोक उद्धृत कर उन्होंने कहा कि अपना धर्म–कर्म छोड़कर जो कृष्ण–कृष्ण चिल्लाते हैं, वे पापी हैं। कृष्ण स्वयं धर्म की स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहे। ‘धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे–युगे’ की घोषणा हुई। भगवान् इसी के लिए अवतरित होते हैं। ऐसा वर्णन हमें सुनने को नहीं मिलता कि भगवान् का अवतार हुआ तो ये कहीं किसी गुफा में बैठकर एकांत मुक्ति की साधना में लग गए। भगवान् राम का चरित्र हमारे सामने है। उखड़ी हुई मर्यादाओं और च्युत लक्ष्यों को पुन: स्थापित कर धर्म की विजय उनके आश्रय से प्राप्त हुई। इसलिए समाज को उन्नत बनाने का काम भगवान् का काम है। अपने हित के लिए किया गया काम शैतान का काम है। राष्ट्रभक्ति, समाजभक्ति ही भगवान् भक्ति है।

(-राष्ट्रधर्म, सितंबर 5, 1956) क्रमश:…