भारतीय जनसंघ ही क्यों?

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डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी

भारतीय जनसंघ के प्रथम वार्षिक अधिवेशन (कानपुर, 29 दिसंबर, 1952) में
तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी द्वारा दिए गए भाषण का द्वितीय भाग

प्रत्येक कार्य के अधीक्षण की पूर्ण व्यवस्था चाहिए और समय-समय पर उसकी प्रगति का पूरा विवरण जनता को प्राप्त होना चाहिए। इस प्रकार के सभी सार्वजनिक कार्यों का वातावरण नीचे से उपर तक सुव्यवस्था तथा सहकारिता से परिपूर्ण हो जिसका परिणाम ऊपर से नीचे तक सभी पर हो ताकि वे जनहितैषी राज्य की उच्चतम धारणाओं का योग्य रूप से प्रतिनिधित्व कर सकें। इस समय उत्पादन तथा वितरण की अनेक इकाइयां निजी व्यवस्था के द्वारा भी चलाई जा रही हैं। अनेक असुविधा के कारण वे अपनी पूर्ण सामर्थ्य के अनुसार कार्य नहीं कर पा रही हैं। यदि उन्हें राज्य की ओर से उचित सहायता तथा प्रोत्साहन प्राप्त हो तो वह भी हमारी राष्ट्रीय संपत्ति की वृद्धि में तथा बेरोजगारी के बढ़ते हुए संकट को रोकने में सहायक हो सकती हैं।

विभाजन के पश्चात की समस्याओं में से तीन विषयों पर जनता का ध्यान हाल ही में बहुत अधिक केन्द्रित हुआ है। वे हैं काश्मीर, पूर्वी बंगाल और पुनर्वास की समस्या।

काश्मीर

काश्मीर के विषय में हमारे दल ने यह अत्यन्त स्पष्ट कर दिया है कि जम्मू तथा काश्मीर का पूरा राज्य भारत का अविभाज्य अंग है। आरंभ में सुरक्षा परिषद् में इस समस्या को ले जाने के कारण कुछ भी रहे हों, गत तीन वर्षों की घटनाएं यह बताती हैं कि इस प्रश्न को वहां से वापिस ले लेना चाहिए। यह स्पष्ट है कि इस विषय में भारत सुरक्षा परिषद् से किसी भी प्रकार के न्याय की आशा नहीं कर सकता। यद्यपि पाकिस्तान काश्मीर की भूमि का आक्रांता है तो भी भारत के न्यायमुक्त अधिकार का समर्थन करने में एक विचित्र प्रकार की उदासीनता दिखाई देती है। इस प्रकार का आचरण कुछ महाशक्तियों द्वारा जान-बूझकर किया जा रहा है, जिनमें यू.एस.ए. और ब्रिटेन भी सम्मिलित हैं। कुछ समय पूर्व काश्मीर में बनी संविधान सभा को यह चुनौती दी जा चुकी है कि जहां तक जम्मू का सम्बन्ध है वह एक प्रतिनिधि संस्था नहीं है। यह होते हुए भी इस सभा को भारत में मिलने के प्रश्न को अन्तिम रूप से तय करना चाहिए। यह निर्णय हो जाने के पश्चात् दो प्रश्न ही प्रमुख रूप से रह जायेंगे एक तो पाकिस्तान अधिकृत जम्मू तथा कश्मीर के प्रदेश के भविष्य के विषय में और दूसरे भारतीय संविधान के इस राज्य पर लागू होने के बारे में। प्रथम के सम्बन्ध में जम्मू-काश्मीर सहित सारे भारत का सम्मान यह मांग करता है कि शत्रु के हाथों से इस प्रदेश को छुड़ाने के लिए प्रत्येक सम्भव उपाय अवश्य करना चाहिए। इसके लिए भारत को किसी भी परिणाम के लिए तैयार रहना होगा। यदि एक बार भी हमने प्रदेश पर इस प्रकार बलात् अधिकार स्वीकार कर लिया तो भविष्य में हमारी स्वतंत्रता को भारी संकट खड़ा हो जायेगा।

दूसरे विषय के सम्बन्ध में हम अपने विचार पिछले अवसरों पर खुलकर प्रकट कर चुके हैं। हमारे इस मत के कारण भारत के कितने ही तथाकथित मित्रों और हितैषियों ने हमें गलत समझा है। हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि जम्मू तथा काश्मीर का भारत के साथ विलय सच्ची राष्ट्रीय भावना के अनुरूप तथा काश्मीर सहित भारत की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। काश्मीर के शेख अब्दुल्ला तथा अन्य लोग हमारे संविधान की रचना में भागी थे, जो प्रत्येक प्रकार से मुसलमानों की बहुसंख्या उसी संविधान को उसी प्रकार स्वीकार करने में हिचकिचाती है जिस प्रकार कि वह सारे स्वतन्त्र भारत पर लागू किया गया है।

इस विषय पर कोई भी सन्तोषजनक उत्तर नहीं दिया गया है। एक तर्क यह दिया जाता है कि हमारे संविधान में ही ऐसी व्यवस्था है कि सुरक्षा, वैदेशिक सम्बन्ध तथा यातायात एवं परिवहन के अतिरिक्त संविधान में की धाराओं का लागू होना जम्मू तथा काश्मीर सरकार की स्वीकृति पर निर्भर करेगा। लोग भूल जाते है कि इस विशेष धारा को प्रस्तावित करते हुए भी गोपाल स्वामी आयंगर ने स्वयं ही उस विशेष परिस्थिति का उल्लेख किया था जिसमें से यह राज्य उस समय गुजर रहा था और यह भी असंदिग्ध रूप से कह दिया था कि कानूनी धारा कुछ भी क्यों न हो इसमें कोई सन्देह नहीं किया कि यह राज्य अन्य राज्यों के समान विलय हो जायेगा और सावधानी से तैयार किये गये और प्रजातांत्रिक आधार पर खड़े भारतीय संविधान को स्वीकार करेगा। अतः जम्मू और काश्मीर के पक्ष में संविधान में दी गई किसी अल्पकालीन विशेष धारा के आधार पर भारतीय संविधान को स्वीकार न किए जाने के औचित्य को सिद्ध करना बच्चों की सी बात है। यह विचार बल पकड़ रहा है कि हमारे ही रक्त तथा धन से हम शेख अब्दुल्ला और उसके अनुयायियों के लिए एक लगभग स्वतन्त्र राज्य निर्माण कर रहे हैं। जम्मू तथा लद्दाख की जनता ने पूर्ण विलय के पक्ष में अपनी घोषणा कर दी है। यदि काश्मीर घाटी के लोग भिन्न मत रखते हैं तो इस क्षेत्र के लिए अन्य कुछ विशेष उपबन्ध इस समय के लिए रह सकते हैं। हमें यह भी प्रायः बताया जाता है कि यदि भारतीय संविधान को जम्मू तथा काश्मीर पर लागू करने के लिए कोई अनुचित दबाव दिया गया तो काश्मीर घाटी के मुसलमानों की भारत से पृथक हो जाने की संभावना है। यह तर्क बिलकुल भी समझ में नहीं आता। यदि हमारा संविधान ऐसा बना होता जिससे मुसलमानों को अपने भविष्य के विषय में घबराहट होती अथवा उन्हें समानता का बर्ताव न मिलने की संभावना होती, तो शायद इस तर्क में कुछ जान दिखाई देती। किन्तु अब ऐसा नहीं है, फिर इस झिझक का कारण क्या हो सकता है? श्री जिन्ना की पाकिस्तान की विचारधारा का भी यही आधार था कि मुस्लिम बहुसंख्यक प्रदेश कभी भी ऐसे संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे जो हिन्दू बहुसंख्या वाली संसद से समर्थित केन्द्रीय सरकार को व्यापक शक्ति देता हो। काश्मीर के संबंध में इस प्रकार के विचारों को प्रोत्साहन देना घोर सांप्रदायिक तथा प्रतिगामी कृत्य होगा। यह सब कुछ होते हुए भी, जैसाकि मैंने कहा, हम शेख अब्दुल्ला की राजधानी काश्मीर घाटी को किसी भी विशेष ढंग से जितने समय के लिए वे चाहें रखने को तैयार हैं, किंतु जम्मू और लद्दाख तो वहां की जनता की इच्छा के अनुसार पूर्णतः भारत में मिल जाने चाहिए। मैं इस बात काे पुनः दुहराता हूं और स्पष्ट शब्दों में रखता हूं कि मैं जम्मू तथा काश्मीर का विभाजन नहीं चाहता। किंतु यदि शेख अब्दुल्ला अड़े हुए हैं तो जम्मू तथा लद्दाख का बलिदान नहीं दिया जाना चाहिए। काश्मीर घाटी को भारतीय संघ के अन्तर्गत एक पृथक राज्य बनाया जा सकता है जिसे सब आवश्यक सहायता प्राप्त हो और वैधानिक रीति से उसके साथ वैसा ही व्यवहार हो जैसा शेख अब्दुल्ला और उनके सलाहकार चाहते हैं।

प्रजा परिषद् का आन्दोलन

प्रजा परिषद् के द्वारा आरम्भ किये गये आन्दोलन को अत्यधिक और जानबूझ कर गलत ढंग से रखा गया है। यह केवल दुर्भाग्य का विषय है कि जब जम्मू की जनता अपने आपको भारत के साथ जिसे वह अपनी पवित्र भूमि मानती है, एक रूप करना चाहती हो-जब भारत सरकार न केवल उसके स्वप्न की पूर्ति में बाधक ही हो वरन् उन्हें प्रतिगामी, देशद्रोही, यहां तक कि पाकिस्तान का मित्र कहकर पुकारे।

क्या केवल धर्मनिरपेक्षता के विकृत विचार और शेख अब्दुल्ला और उसके मित्रों द्वारा प्रस्तुत मांगों के आगे समर्पण के कारण किसी की दृष्टि इससे भी और अधिक धुंधली हो सकती है? श्री नेहरू और शेख अब्दुल्ला दोनों ने सम्मिलित रूप से जम्मू में भयंकर दमन की नीति अखत्यार की है। किन्तु मैं इस बात की असंदिग्ध रूप से घोषणा करता हूं कि दमन से यह समस्या हल नहीं होगी। जितना अधिक दमन होगा उतने ही घातक परिणाम होंगे। क्या श्री नेहरू और शेख अब्दुल्ला इस बात को नहीं जानते कि दमन से स्वयं उनके आन्दोलन नष्ट नहीं हुए थे? यही नहीं, इससे उन्हें भारी लाभ हुआ था। विलम्ब होने पर भी मैं श्री नेहरू और शेख अब्दुल्ला से निवेदन करूंगा कि वे दमन की इस नीति को छोड़ें और झूठी प्रतिष्ठा के चक्कर में न पड़ें। उन्हें जम्मू के वर्तमान नेताओं से बातचीत करनी चाहिए और एक ऐसे समझौते का मार्ग निकालना चाहिए जो सभी के लिए उचित तथा न्यायसंगत हो। इस दिशा में पहले कदम के रूप में जम्मू तथा काश्मीर की संविधान सभा यह स्वीकार करें कि राज्य अन्तिम तथा औपचारिक रूप से भारत के साथ मिल गया है। दूसरे, जम्मू काश्मीर विधान सभा यह स्वीकार करें कि नागरिकता, मूलभूत अधिकार, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र, वित्तीय एकीकरण एवं राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकार सम्बन्धी भारतीय संविधान की धारायें उस राज्य पर भी लागू होती हैं।

शेष के विषय में मेरा विश्वास है कि यदि पारस्परिक सद्भावना और समझदारी के बाद बातचीत चली तो एक सन्तोषजनक निर्णय पर पहुंचा जा सकता है। जम्मू में आज की हालत चलने देना पूर्णतः अवांछित है और यह भी नेहरू तथा शेख अब्दुल्ला के हाथ में है कि वे जम्मू के जन-प्रतिनिधियों के सच्चे भय से दूर करें, जिससे सब मिलकर जम्मू-काश्मीर के एक तिहाई प्रदेश को मुक्त करने का उद्योग करें, जो भी हमारे राष्ट्रीय अपमान के रूप में पाकिस्तान के अधिकार में है। इस बीच में हमारी क्रियात्मक सहानुभूति जम्मू के उन सब लोगों के साथ है जो अधिकारियों के कोप की अग्नि को साहस से सह रहे हैं और एक श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए कष्ट उठा रहे हैं।

पूर्वी बंगाल

पूर्वी बंगाल की स्थिति से चारों ओर एक बेचैनी और क्षोभ उत्पन्न हुआ है और सारे देश ने एक स्वर से यह मांग की है कि भारत सरकार पूर्वी बंगाल में बचे हुए लगभग एक करोड़ हिन्दुओं को बचाने के लिए पाकिस्तान के प्रति अनुरोध करें और प्रभावशाली कदम उठायें। विभाजन का आधार ही यह था कि भारत तथा पाकिस्तान दोनों ही में अल्पसंख्यक सुरक्षा तथा सम्मान के साथ रहते रहेंगे। भारत की सीमाओं में आज भी चार करोड़ से अधिक मुसलमान हैं। जहां तक अन्य अल्पसंख्यकों का प्रश्न है उन्हें कभी भी भय नहीं था और वे सदा की भांति शांतिपूर्वक यहां रह रहे हैं। पश्चिमी पाकिस्तान में हिन्दू तथा सिख अल्पसंख्यक नाम शेष हो चुके हैं। पूर्वी बंगाल से भी लगभग 40-50 लाख हिन्दू अभी तक निकाले जा चुके हैं। हिंदुओं को बाहर निकालने की यह क्रिया समय-समय पर होती है जिसके परिणामस्वरूप भारी अपमान तथा कष्ट लोगों को उठाना पड़ रहा है। पारपत्र प्रणाली का आरम्भ ही एक निश्चित योजना तथा हिंदू विरोधी द्वेषभाव लेकर हुआ है। यह स्पष्ट ही है कि यदि पूर्वी बंगाल में शेष बचे 90 लाख हिन्दुओं को निकलकर भारत आना पड़ा तो हमारे देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जायगी। इसके अतिरिक्त पुनः संस्थापन के लिए सरकार को जो भारी मात्रा में व्यय करना पड़ेगा वह अलग से। यदि अल्पसंख्यक वहां इसी तरह रहते रहे जैसे आज रह रहे हैं तो या तो उन्हें धर्म परिवर्तन करना पड़ेगा अथवा उनकी स्थिति एक दास की होगी।

क्रमश: