शिव प्रकाश
धर्म के आधार पर हुए देश के बंटवारे को स्वीकार कर कांग्रेस ने जो ऐतिहासिक भूल की थी उसका परिणाम भुगतने वाले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में रह गए लाखों करोड़ों हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसियों और ईसाइयों के हितों की सुरक्षा का उपाय केंद्र की भाजपा सरकार ने कर दिया है। नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हो जाने के बाद अब उन सभी अल्पसंख्यकों के लिए भारत अब कानूनी तौर पर उनका स्थायी निवास बन पाएगा। सरकार का यह कदम किसी खास धर्म के विरोध में उठाया गया कदम नहीं है, बल्कि इसे भारतीय समाज को उसकी जड़ों की तरफ वापस लौटाने वाले कदम के तौर पर देखा जाना चाहिए। जो काम देश की आजादी के तुरंत बाद शुरू हो जाना चाहिए था वह अब शुरू हो रहा है।
इस पूरे विषय को ऐतिहासिक परिदृश्य में देखना आवश्यक है। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व जब पाकिस्तान और बांग्लादेश का अस्तित्व नहीं था, तत्कालीन भारत में देश की स्वाधीनता के लिए चल रहे आंदोलन में अपने अपने क्षेत्रों में देशभक्त हिस्सा ले रहे थे। 1947 में देश का विभाजन हुआ और पाकिस्तान के नाम से एक नया देश बना, बंगाल का एक हिस्सा भी धर्म के आधार पर हुए इस बंटवारे में पाकिस्तान का अंग बना जो अंततः बाद में बांग्लादेश के रूप में सामने आया। यहां महत्वपूर्ण यह है कि बंटवारे के बाद हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के कई लोग थे जो अपने-अपने क्षेत्रों रहकर स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ रहे थे और विभाजन में वहीं रह गये। बांग्लादेश में ऐसे ही एक महान देशभक्त थे त्रिलोक नाथ चटर्जी। उच्च कोटि के देशभक्त चटर्जी का अपनी जन्मभूमि पर ही रह जाना क्या उनके दोष के तौर पर देखा जाना चाहिए। जिन लोगों ने भारतमाता को अपनी मां मानकर अपने प्राण उसके सम्मान की ख़ातिर बलिदान कर दिये, ऐसे असंख्य लोगों के हितों की रक्षा करना आज के सभी राष्ट्रभक्तों का दायित्व है। नागरिकता संशोधन कानून के जरिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह गए ऐसे सभी हिंदुओं, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई राष्ट्रभक्तों को समायोजित करने का काम किया है।
नागरिकता संशोधन कानून का विरोध वही राजनीतिक दल कर रहे हैं जो अरसे से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वर्ग विशेष के मतों की राजनीति करते आए हैं। उनके विरोध का मूल आधार भी मात्र उनकी राजनैतिक लाभ ही है। सभी ने एक स्वर में संसद और उसके बाहर मुसलमानों को नागरिकता देने के अधिकार से वंचित रखने का आरोप सरकार पर लगाया। जबकि इस विधेयक के मूल प्रस्ताव से ही स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य तीन देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में धर्म के आधार पर प्रताड़ित हिंदुओं, सिखों, बौद्ध, जैन, पारसियों एवं ईसाइयों को भारत में बसने में मदद प्रदान करना है। यह पूरी तरह स्पष्ट है कि नागरिकता संशोधन विधेयक देश में मुसलमानों की वर्तमान स्थिति में किसी तरह का परिवर्तन नहीं करता। उनकी नागरिकता को यह कानून किसी तरह की चोट नहीं पहुंचाएगा। गृह मंत्री अमित शाह ने भी संसद में अपने भाषण में स्पष्ट किया कि यह नागरिकता लेने वाला नहीं, बल्कि नागरिकता देने वाला कानून है। वैसे भी किसी भी देश से आया कोई भी व्यक्ति कानून के मुताबिक नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है। इसका प्रावधान देश के कानून में पहले से ही मौजूद है, लेकिन नागरिकता कानून के नाम पर देश के मुसलमानों में भय और संशय पैदा करना कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों की आदत बन गयी है। यह स्पष्ट है कि स्वतंत्रता के समय धर्म के आधार पर देश का विभाजन कांग्रेस स्वीकार नहीं करती तो आज यह नौबत ही नहीं आती।
ऐसा भी नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने देश के अल्पसंख्यकों के लिए ऐसा काम पहली बार किया है। इससे पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मांग पर 13 हजार सिखों और हिंदुओं को नागरिकता दी गई थी। इसके अतिरिक्त पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी 2003 में बांग्लादेश के उत्पीड़न के शिकार होकर भारत आए हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने का समर्थन संसद में किया था। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि 1947 के बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिंदू, सिख, बौद्धों, जैनों, पारसी और ईसाइयों को भयानक प्रताड़ना झेलनी पड़ी है। कौन नहीं जानता कि इन देशों में हिंदुओं, सिखों, बौद्ध, जैन, पारसियों और ईसाइयों को किस किस प्रकार के उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। खासतौर पर महिलाओं के साथ हुए अपमानजनक व्यवहार, बलात्कार जैसी जघन्य घटनाएं हुई हैं। इसलिए भारत का यह कर्तव्य बनता है कि इतने वर्षों से उत्पीड़ित हिंदू धर्म के विभिन्न समुदायों के इन लोगों को भारत में नागरिकता मिले, ताकि ये लोग सम्मान और अधिकार के साथ अपना जीवन यापन कर सकें।
अपने धर्म और समुदाय के लोगों के हितों को आगे बढ़ाने का काम भाजपा कोई पहली बार नहीं कर रही है। दुनिया के दूसरे देशों में भी ऐसा हुआ है। स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में अपने प्रसिद्ध शिकागो भाषण में यहूदी और पारसियों को शरण देने का जिक्र किया था। भारत ने भी उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए पड़ोसी देशों में प्रताड़ना का शिकार हुए अल्पसंख्यकों को शरण देने का काम किया है। सभी जानते हैं कि पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों की क्या स्थिति हुई है। अकेले पाकिस्तान के आंकड़े ही बताते हैं कि कैसे वहां हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों और ईसाइयों की स्थिति निरंतर खराब होती चली गई। स्वतंत्रता के समय वहां अल्पसंख्यकों की संख्या 23 प्रतिशत से अधिक थी। आज वहां इनकी संख्या ढाई प्रतिशत से भी कम रह गयी है। यह स्थिति तब है जब स्वतंत्रता के बाद भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के लियाकत अली खान के बीच अल्पसंख्यकों के हित सुरक्षित रखने संबंधी एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। भारत ने समझौते का सम्मान किया, लेकिन पाकिस्तान ने क्या किया यह वहां के अल्पसंख्यकों के आंकड़ों से ही स्पष्ट हो जाता है।
विपक्षी दल संविधान के अनुच्छेद 14 का हवाला देकर बार-बार सरकार पर जनता के समानता के अधिकारों का हनन करने का आरोप लगा रहे हैं। इन दलों का यह भी कहना है कि भारतीय जनता पार्टी चुनावी राजनीतिक को ध्यान में रखकर सभी फैसले ले रही है। इसी तरह के आरोप कश्मीर में धारा 370 और तीन तलाक समाप्त करने के समय भी लगाये गये थे, लेकिन इन दलों को यह नहीं भूलना चाहिए कि हम हमेशा से इनका विरोध करते आ रहे हैं और हमारा स्पष्ट मानना रहा है कि ये कांग्रेस की ऐतिहासिक भूलें हैं जिनका सुधार करना आवश्यक है। हमारी पार्टी के चुनाव घोषणा पत्रों में भी सदैव ये मुद्दे शामिल रहे हैं। जनता ने हमारी पार्टी को भारी बहुमत से विजयी बनाकर केंद्र में सरकार बनाने का मौका दिया है, तो इसका अर्थ स्पष्ट है कि वह भी इन मुद्दों का अब स्थायी हल चाहती है। कांग्रेस छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हमेशा इन मुद्दों को अपने चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल करती रही है।
लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सह महासचिव (संगठन) हैं