गुरु पूर्णिमा का है ऐतिहासिक,आध्यात्मिक और सामाजिक महत्त्व

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तरुण चुघ

भारत एक सांस्कृतिक और सामाजिक आधार पर चलने वाला देश है। संबंधों को भारतीय सामाजिक व्यवस्था का आधार माना गया है। इसी कड़ी में गुरु-शिष्य संबंध को सबसे पवित्र और सर्वोच्च माना गया है। कहा भी गया है– “गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।” इसलिए सभी आध्यात्मिक और शैक्षणिक गुरुओं को सम्मान देने के लिए समर्पित त्योहार के रूप में गुरु पूर्णिमा मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा का ऐतिहासिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व है। यह एक अंतरराष्ट्रीय त्योहार है, जिसे भारत के अलावा नेपाल, भूटान समेत कई अन्य देशों में भी मनाया जाता है। यह त्योहार हिंदू पंचांग के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसी दिन महाभारत के रचयिता ऋषि वेद व्यास की जयंती भी है।

गुरु शब्द मूलत: संस्कृत का शब्द है, जो ‘गु’ और ‘रु’ से लिया गया है। यहां ‘गु’ का अर्थ अंधकार या अज्ञान है और ‘रु’ का अर्थ दूर करने वाला होता है। इसलिए गुरु को अंधकार या अज्ञान का नाश करने वाला कहा जाता है।

गुरु पूर्णिमा का उत्सव आध्यात्मिक एवं सामाजिक तरीके से मनाया जाता है। इसमें गुरु के सम्मान में अनुष्ठानिक कार्यक्रम होता है। धार्मिक महत्त्व होने के अलावा इस त्योहार का भारतीय शिक्षाविदों और विद्वानों के लिए भी महत्त्व रखता है। भारत में इस दिन अपने शिक्षकों को धन्यवाद देने और उन्हें याद करके सम्मान देते हैं।

बौद्ध परंपरा के अनुसार यह त्योहार बौद्धों द्वारा भगवान बुद्ध के सम्मान में मनाया जाता है। यह दिन ऋषि व्यास के सम्मान में भी मनाया जाता है, जिन्हें प्राचीन हिंदू परंपराओं में सबसे महान गुरुओं में से एक और गुरु-शिष्य परंपरा के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। जैन परंपराओं के अनुसार गुरु पूर्णिमा को त्रीनोक गुहा पूर्णिमा के रूप में जाना जाता है, जिसमें अपने त्रीनोक गुहाओं और शिक्षकों को विशेष सम्मान दिया जाता है। इस प्रकार गुरु पूर्णिमा का त्योहार हिन्दुओं के साथ साथ बौद्ध धर्म और जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। सिख धर्म में भी गुरु को सर्वस्व माना गया है। भारतीय संस्कृति में भगवान से भी बड़ा दर्जा गुरु को दिया गया है। गुरु के बिना जीवन की कल्पना भी अधूरी है। माता-पिता हमें

गुरु पूर्णिमा के त्योहार का नाम सूर्य के प्रकाश से पड़ा, जो चंद्रमा को चमकाता है, अर्थात एक छात्र केवल तभी चमक सकता है, जब उसे गुरु का प्रकाश मिले

संस्कार देते हैं तो दूसरी तरफ गुरु हमें ज्ञान देता है।

गुरु का ज्ञान और शिक्षा ही जीवन का आधार है। गुरु पूर्णिमा का त्योहार आषाढ़ माह में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस वर्ष गुरु पूर्णिमा 21 जुलाई को है।

एक छात्र जो सीख और ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वह अक्सर इस बात पर निर्भर करता है कि उसका गुरु कैसा है? इस प्रकार गुरु पूर्णिमा के त्योहार का नाम सूर्य के प्रकाश से पड़ा, जो चंद्रमा को चमकाता है, अर्थात् एक छात्र केवल तभी चमक सकता है, जब उसे गुरु का प्रकाश मिले।

महाभारत के रचयिता वेद व्यास को सम्मानित करने के लिए इसे व्यास पूर्णिमा के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन जन्म लेने वाले ऋषि वेद व्यास को गुरु-शिष्य परंपरा का अग्रणी भी माना जाता है। अक्सर लोग अपने गुरुओं के सम्मान और स्मरण के लिए अपने घरों में भी गुरु की पूजा करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सबसे पहला गुरु उसके माता, पिता या अभिभावक होते हैं, जो उन्हें सबसे पहले उनका मार्गदर्शन करते हैं, उन्हें जीवन के सच्चे मूल्य सिखाते हैं और तमाम अवगुणों से भी दूर रखते हैं।

गुरु पूर्णिमा का त्योहार पर हिंदू धर्म के लोग भगवान शिव की पूजा भी पूजा करते है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव को आदिगुरु माना जाता है, जिन्होंने अपने सात अनुयायियों को योग का ज्ञान दिया और इस तरह उन्हें सबसे महान गुरु माना जाता है। बौद्ध धर्म मानने वाले लोग इस त्योहार को भगवान बुद्ध को सम्मान देने के लिए मनाते हैं, जिन्होंने धर्म की बौद्ध नींव रखी। बौद्धों का मानना है कि इस पूर्णिमा के दिन ही भगवान बुद्ध ने बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त करने के बाद उत्तर प्रदेश के सारनाथ शहर में अपना पहला उपदेश दिया था। तभी से उनकी पूजा के लिए गुरु पूर्णिमा के पर्व को चुना गया है। भारत में प्राचीन काल से ही गुरुओं की भूमिका काफी अहम रही है। चाहे प्राचीन कालीन सभ्यता हो या आधुनिक दौर हो। समाज के निर्माण में गुरुओं की भूमिका को अहम स्थान दिया गया है। गुरुओं की इस भूमिका को सरल और गूढ़ रूप में संत कबीरदास जी ने अपने दोहों के माध्यम से दर्शाते हुए लिखा है। उन्होंने लिखा है कि–

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांव।
बलिहारी गुरु अपने, गोविंद दियो बताए।।

अर्थात्, गुरु और गोविंद दोने एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए? गुरु को या गोविंद को? फिर अगली पंक्ति में उसका जवाब देते हुए संत कबीर दास जी लिखते हैं कि ऐसी स्थिति हो तो गुरु के चरणों में प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि उनसे प्राप्त ज्ञान के माध्यम से ही मनुष्य को गोविंद के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है।

कबीरदास ने गुरु की महिमा को एक दोहे के माध्यम से समझाते हुए अपने दोहे में लिखा है कि–

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष।।

इस दोहे में कबीरदास ने आम लोगों से कहा है कि गुरु के बिना किसी भी प्रकार के ज्ञान का मिलना असंभव है। जब तक गुरु की कृपा प्राप्त नहीं होती, तब तक कोई भी मनुष्य अज्ञान रूपी अधंकार में भटकता हुआ माया मोह के बंधनों में बंधा रहता है। उसे मोक्ष नहीं मिलता। गुरु के बिना उसे सत्य और असत्य के भेद का पता नहीं चलता, उचित और अनुचित का ज्ञान नहीं हो पाता है।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भी आध्यात्मिक गुरुओं के प्रति सम्मान भाव प्रदर्शित करते हैं। उनके योगदान की चर्चा सार्वजनिक तौर पर करते हुए देश को यह संदेश देते हैं कि गुरु के प्रति सम्मान भाव ही भारत का संस्कार है।

( लेखक भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री हैं)