अरुण जेटली
2019 के आम चुनाव के लिए पहले दो दौर का मतदान खत्म हो चुका है। शुरुआती रुझान क्या हैं? शुरुआती सबक क्या हैं?
तीन चुनावी अभियानों की तुलना
भाजपा / एनडीए का अभियान लक्ष्य निर्धारित है। यह एजेंडा सेट करता है। श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर भी स्पष्टता है। उसके पक्ष में एक मजबूत समर्थन की सूनामी प्रतीत होती है। यह अभियान पिछले पांच वर्षों की प्रमुख उपलब्धियों पर केंद्रित है, विशेष रूप से गरीबों और मध्यम वर्ग को मजबूत करने, स्वच्छ सरकार और राष्ट्रीय सुरक्षा पर विशेष जोर देने से संबंधित है। हमारा गठबंधन सुसंगत है और जिन मुद्दों पर विचार किया जा रहा है, वे केंद्रित हैं।
फर्जी मुद्दों के आधार पर पिछले एक साल में कांग्रेस ने जो वातावरण बनाया था, वह अब धराशायी हो गया है। वे अब अपने घोषणा पत्र में घोषित एक नई योजना पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जिसकों जनता का समर्थन नहीं मिल रहा है। कांग्रेस का पूरा अभियान एक ही परिवार के सदस्यों पर निर्भर करता है, जो जोर नहीं पकड़ रहा हैं। जहां भी मुकाबला मुख्य रूप से भाजपा और कांग्रेस के बीच होता है, भाजपा को बढ़त मिलती नजर आ रही है।
पश्चिम बंगाल और ओडिशा में क्षेत्रीय दल एक बड़े उलटफेर के लिए तैयार है। वाम दलों ने 2014 में बुरा प्रदर्शन किया था और अब भी उनकी संसदीय ताकत आगे कमजोर ही होगी। क्षेत्रीय दल केवल उन्हीं क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन करेंगे, जहां भाजपा अभी भी कमजोर नजर आती है।
हालांकि, मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के लिए एक प्रमुख कारक प्रधानमंत्री मोदी का नेतृत्व है, उनको यह विकल्प स्पष्ट नजर आता है। यह विशेष रूप से 35 वर्ष से कम उम्र के मतदाताओं के मामले में सच है। ‘मेरा वोट मोदी के लिए है’ आज की जमीनी हकीकत है।
एनडीए एक सकारात्मक अभियान चला रहा है। यह एक ऐसे भारत की कल्पना प्रस्तुत करता है जहां गरीबी न हो और एक ऐसा शासन जो अपने लोगों को बेहतर जीवन स्तर देने के लिए प्रतिबद्ध हो। कांग्रेस और क्षेत्रीय दल केवल एक आदमी ‘नरेंद्र मोदी’ को हटाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। जहां मौजूदा शासन की स्वीकार्यता 70% है, वे एक गैर-विद्यमान एंटी-इनकंबेंसी को हवा दे रहे हैं।
जाति और वंशवाद आधारित दलों की स्थिति
कांग्रेस पार्टी के कुछ चमकते चेहरे उसका साथ छोड़ रहे है। क्या इसके पीछे कोई विशेष कारण हैं या उनका मोह वर्तमान नेतृत्व से भंग हो गया हैं? जब मानसिकता सामंती होती है, तो वंशवाद जीवित रहता है। राजवंश भी जीवित तभी तक रहते हैं जब वे करिश्माई होते हैं और काम करने की क्षमता रखता हैं। बहुत से समर्थकों ने राजवंश को स्वीकार कर लिया है, क्योंकि वंशवाद उन्हें प्रत्यक्ष लाभ दे रहा है। जब सामंती मानसिकता बदल जाती है और राष्ट्र अधिक महत्वाकांक्षी हो जाते हैं तो राजवंशों का क्या होता है? भारत का सामाजिक-आर्थिक ढांचा विकास की ओर अग्रसर हो चला है। राजवंशों को स्वीकार करने के लिए हमारी वर्तमान सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा उपयुक्त नजर नहीं आती है। यदि कांग्रेस का राजवंश केवल 44 या 60 सांसद देने की क्षमता रखता है, तो पारंपरिक कांग्रेसियों के लिए खुद को राजवंश के अधीन होने का अपमान सहने का क्या लाभ है? अंततः वंशवादी दलों में राजनीतिक दासता को स्वीकार करना ही पड़ता है। ये कांग्रेसी आज भाजपा जैसी पार्टी को देखते हैं, जहां प्रतिभाशाली पुरुषों और महिलाओं को पार्टी, विधानसभाओं और सरकारों में आगे बढ़ने के समान अवसर प्राप्त है। भाजपा ने भारत को जो दो प्रधानमंत्री दिए- ‘श्री अटल बिहारी वाजपेयी और श्री नरेंद्र मोदी’, अपनी पीढ़ी के सबसे बड़े राजनेताओं के तौर पर स्थापित हुए। यह योग्यता आधारित पार्टियों में हो सकता है, वंशवादी पार्टियों में नहीं। भारत के इस बदलते सामाजिक-आर्थिक प्रारूप के साथ एक प्रासंगिक सवाल है – “क्या वंश किसी पार्टी के लिए एक संपत्ति हैं या वे एक बोझ हैं?” निस्संदेह, वंशवाद की वर्तमान पीढ़ी कांग्रेस पार्टी के लिए एक परिसंपत्ति के बजाय एक बोझ बन गई है।
ऐसी ही स्थिति जाति आधारित पार्टियों के संबंध में उत्पन्न होती है। इनेलो में दरार आ गई है। 2014 में लोकसभा चुनाव में बसपा को शून्य और विधानसभा चुनाव में 19 सीटें मिलीं। 2014 के चुनावों में सपा अपने परिवार के सदस्यों के लिए ही सीटें बरकरार रखने में कामयाबी रही। राजद दो सीटों पर सिमट गई थी। इस प्रकार भारत की बदलती सामाजिक-आर्थिक प्रोफ़ाइल में अब जाति आधारित पार्टियों के अनिश्चित काल की शुरुआत हो गई है। इनका सूरज धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से डूब रहा है। एक और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति जो दिखाई दे रही है वह यह है कि जहां भी राष्ट्रीय दलों की ताकत कम है, वहां मजबूत क्षेत्रीय दलों द्वारा इस कमी को भरा जा रहा है। भाजपा, जो उत्तर भारत की पार्टी थी, उसने मध्य और पश्चिमी भारत तक अपना विस्तार किया और अब पूर्व भारत के राजनीतिक फलक के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया है। यह विस्तार इस हद तक हुआ है कि हमने बंगाल, ओडिशा, असम और उत्तर-पूर्व के क्षेत्रीय दलों के कब्जे वाले कुछ स्थानों पर अपनी पकड़ कायम कर ली है। भाजपा पहले से ही कर्नाटक में विस्तार कर दक्षिण की अग्रणी खिलाड़ी बन गई है। यह चुनाव केरल में भाजपा की सह-बराबरी का गवाह बनेगा। 18 अप्रैल को प्रधानमंत्री की तिरुवनंतपुरम रैली में अभूतपूर्व समर्थन ने हमारे विरोधियों के माथे पर शिकन ला दी है। भाजपा के पास क्षेत्रीय दलों से अधिक राजनीतिक स्थान पर लड़ने और कब्जा करने की क्षमता पहले से ही दिखाई देती है। कांग्रेस में स्वाभाविक रूप से उस वृत्ति का अभाव है।
2019 की दिशा
2019 के आम चुनाव की दिशा स्पष्ट है। इन चुनावों के मध्य में भाजपा ही काबिज है। एजेंडा निर्धारित करने और नेतृत्व दोनों के संदर्भ में कांग्रेस कोई भी प्रभाव डालने में विफल रही है। क्षेत्रीय पार्टियां चुनौती प्रस्तुत कर रही हैं, लेकिन उनका एजेंडा ज्यादातर राज्य आधारित है। उनके नेताओं में राष्ट्रीय सोच की कमी है। देश को सुसंगत, स्थिर और लंबे समय तक चलने वाले गठबंधन के लिए उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रभावी प्रबंधन के लिए संघीय मोर्चे पर भरोसा किया जा सकता है?
इन चुनावों की गति स्पष्ट रूप से भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के साथ है। प्रधानमंत्री चुनाव के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व के संदर्भ में, यह लगभग एकतरफा लड़ाई है। प्रधानमंत्री मोदी की क्षमता और स्वीकार्यता के स्तर का मुकाबला कोई दूसरा व्यक्ति करता दिखाई नहीं देता है।
क्या इतिहास पूरी तरह से कुछ अभूतपूर्व देखने जा रहा है? क्या हम जाति आधारित और वंशवादी पार्टियों की अस्वीकृति के गवाह बनने जा रहे हैं? और क्या महत्वाकांक्षी भारत एक योग्यता आधारित नेतृत्व का चुनाव करने के लिए कोई निर्णायक फैसला लेगा? यह सच्चाई हो सकती है।
(लेखक केंद्रीय मंत्री हैं)