गुप्त वंश की सबसे बड़ी सफलता एक ‘अखंड भारत’ की रचना : अमित शाह

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केन्द्रीय गृह मंत्री एवं भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह ने 17 अक्टूबर को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के स्वतंत्रता भवन में भारत अध्ययन केंद्र के तत्वाधान में “गुप्तवंशक-वीर: स्कंदगुप्त विक्रमादित्य” विषय पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारंभ किया और इस संगोष्ठी को संबोधित करते हुए स्कंदगुप्त विक्रमादित्य को एक महान शासक बताया।

इस कार्यक्रम को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ ने भी संबोधित किया। इस अवसर पर जापान, अमेरिका, वियतनाम, मंगोलिया, श्रीलंका, नेपाल, थाईलैंड सहित कई देशों से आमंत्रित विद्वान, प्रसिद्ध इतिहासकार, साहित्यकार, भाषाशास्त्री एवं शिक्षाविद् उपस्थित थे।

श्री शाह ने महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी का स्मरण करते हुए कहा कि उनके द्वारा स्थापित बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण रखने हेतु ज्योतिर्मय बनकर ध्वजवाहक के रूप में खड़ा है और पूरी दुनिया में हिन्दू संस्कृति को आगे बढ़ाने का काम कर रहा है। इस विद्यापीठ ने भारत की शिक्षा पद्धति और संस्कृति के संस्कारों को पुनर्जीवन दिया है और यह कार्य ऐसे समय में किया जा रहा है जब देश को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

उन्होंने कहा कि सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद अपराध भाव से युक्त समाज के गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए जिस चेतनाबोध की जरूरत होती है, इसके लिए एक व्यक्ति नहीं, विद्यापीठ ही कर सकती है, विश्वविद्यालय ही कर सकती है। इसी दूरदर्शिता के साथ महामना ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव रखी थी। आज के भारत और देश के आने वाले भविष्य को लेकर जो शांति और संभावना की बात हमारे हृदय में आती है, इसकी नींव में कहीं न कहीं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का बहुत बड़ा योगदान है।

केन्द्रीय गृह मंत्री ने भारत अध्ययन केंद्र का अभिनंदन करते हुए कहा कि महामानव सम्राट स्कंदगुप्त के जीवन के बिखरे हुए ऐतिहासिक पन्नों को संकलित करने का जो कार्य भारत अध्ययन केंद्र ने लिया है, वह निस्संदेह अभिनंदनीय है। यह संगोष्ठी एक ऐसे व्यक्तित्व को फिर से इतिहास के पन्नों पर पुनर्जीवित करने का काम करेगी जिसने न केवल भारतीय सभ्यता, संस्कृति और साहित्य को संरक्षित किया, बल्कि भारतवर्ष को हूणों के आक्रमण से बचाते हुए जूनागढ़ से लेकर कंधार तक और केरल से लेकर बंग तक एक अखंड भारत की रचना भी की।

श्री शाह ने कहा कि महाभारत काल के लगभग 2000 साल बाद ईसा पूर्व के 800 वर्षों के काल खंड में दो शासन व्यवस्थाओं मौर्य वंश और गुप्त वंश ने न केवल देश की एकता व अखंडता सुनिश्चित की बल्कि साहित्य, संस्कृति, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र का संवर्धन करते हुए पूरी दुनिया में भारतवर्ष को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित भी किया।

उन्होंने आचार्य चाणक्य के सांस्कृतिक एवं वैचारिक अधिष्ठान के आधार पर मौर्य वंश के योगदान पर विशेष चर्चा करते हुए तब के राजनीतिक संदर्भों का उल्लेख किया और कहा कि मौर्य वंश के अवसान के बाद और गुप्त वंश के पहले का समय काफी अंधकारमय था और हमारी सभ्यता, संस्कृति, भाषा, शिक्षा अपने अवसान की ओर जाने लगी थी। गुप्त वंश की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि उन्होंने मगध और वैशाली के बीच के टकराव को हमेशा के लिए ख़त्म करते हुए एक अखंड भारत की रचना की।

उन्होंने सम्राट समुद्रगुप्त का विशेष उल्लेख करते हुए कहा कि उनका कालखंड भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है, वे गुप्त वर्ष को ऊंचाइयों तक ले गए और तब केरल पर भी अखंड भारत का झंडा लहराया था। उन्होंने रामगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय जिनको इतिहास विक्रमादित्य के नाम से भी जानता है और कुमारगुप्त के कालखंड का संक्षिप्त वर्णन करते हुए कहा कि कुमारगुप्त के वृद्ध होते ही भारवर्ष बर्बर हूणों के आक्रमण से आक्लांत होने लगा, धर्म का नाश होने लगा, भाषा, संस्कृति का क्षय होने लगा तब स्कंदगुप्त का उदय हुआ।

उन्होंने न केवल हूणों को भारत से खदेड़ कर अखंड भारत की कल्पना को साकार किया बल्कि देश की एकता व अखंडता बनाए रखने के लिए सत्ता का भी परित्याग किया। निस्संदेह इतिहास ने सम्राट स्कंदगुप्त के साथ बहुत अन्याय किया है। सम्राट स्कंदगुप्त की वीरता, पराक्रम एवं उनके योगदान की जितनी भी प्रशंसा होनी चाहिए थी, इतिहास ने नहीं की।

केन्द्रीय गृह मंत्री ने कहा कि हूणों के आक्रमण की कल्पना आज का समाज कर भी नहीं सकता कि वह कितना विनाशक, भयावह और बर्बर था। चीन ने हजारों किलोमीटर लंबी ऐतिहासिक दीवार चीन को केवल और केवल हूणों से बचाने के लिए ही किया था। रोम, एथेंस, फ़्रांस सहित पूरे यूरोप ने आततायी हूणों के बर्बर आक्रमण का दंश झेला। हूणों ने हमारे ऐतिहासिक तक्षशिला विश्वविद्यालय को तहस-नहस कर के रख दिया और ऐसे समय में स्कंदगुप्त ने आगे बढ़कर पूरे भारतवर्ष से हूणों को खदेड़ने का संकल्प लिया।

उन्होंने चतुरंगी सेना तैयार कर हिंदुस्तान को हूणों से खदेड़ बाहर किया और हूणों के आतंक से भारतवर्ष को मुक्ति दिलाई। स्कंदगुप्त के पराक्रम से ही देश सुरक्षित हुआ। देश को सुरक्षित करने के साथ ही साथ उन्होंने खुशहाल और समृद्ध भारत की स्थापना की भी कल्पना की, जिसके कारण समकालीन दुनिया के कई विद्वानों ने उन्हें महान सम्राट की संज्ञा दी।

जब चीन के सम्राट को स्कंदगुप्त की वीरता और हूणों को ख़त्म करने की बात पता चली तो उन्होंने भारत के राजदूत को बुलाकर स्कंदगुप्त के लिए प्रशस्ति पत्र दिया और प्रशस्ति पत्र के वाचन के लिए अपने विद्वानों को पाटलिपुत्र भेजा। यह भारतीय इतिहास की एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण घटना है। शायद ही वैश्विक स्तर पर किसी समकालीन सम्राट को इतनी बड़ी मान्यता मिली हो। इतना ही नहीं, जब हूणों को खदेड़कर स्कंदगुप्त पाटलिपुत्र पहुंचे तो उनकी मां ने कुरुगुप्त को राजा बनाने का विवाद खड़ा किया और महामानव स्कंदगुप्त ने देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा के लिए संकल्पित रहते हुए राज पद का परित्याग किया।

उन्होंने शादी न करते हुए आजीवन देश की सुरक्षा एवं समृद्धि के लिए अपने आप को खपा डाला। सम्राट स्कंदगुप्त ने शासन व्यवस्था को सही करने के लिए कई प्रशस्ति पत्र, शिलालेख बनाए। दुर्ग और नगर की रचना की और राजस्व संग्रह की व्यवस्था बनाई। हालांकि दुर्भाग्य की बात है कि इन घटनाओं के बारे में इतिहास में अधिक चर्चा नहीं हुई।

श्री शाह ने जोर देते हुए कहा कि भारतीय इतिहास का भारत के दृष्टिकोण से पुनर्लेखन होना चाहिए। जिन्होंने पहले कुछ भी लिखा है, उनसे बिना विवाद में पड़े हुए सत्य के तत्व को संजोते हुए लोगों तक हमारे वास्तविक इतिहास को पहुंचाना चाहिए। आज देश के बहुत कम छात्रों को ही सम्राट स्कंदगुप्त के बारे में पता होगा। उनके बारे में अध्ययन के लिए कोई पुस्तक भी उपलब्ध नहीं है, यह कितने दुर्भाग्य की बात है। इसके लिए किसी को भी दोष देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि दोष हमारा है, हमने अपने दृष्टिकोण से इतिहास की रचना नहीं की, हमारे महान व्यक्तित्वों के बारे में अपने ही लोगों को नहीं बताया।

आज हमारे पास विजय नगर साम्राज्य का संदर्भ ग्रंथ नहीं है, मौर्य साम्राज्य और गुप्त साम्राज्य का भी संदर्भ ग्रंथ नहीं है, छत्रपति शिवाजी महाराज के संघर्षों का भी कोई शोध ग्रंथ नहीं है। सिख गुरुओं और महाराणा प्रताप के बलिदानों का भी यशस्वी और प्रमाणिक ग्रंथ नहीं है। आज यदि वीर सावरकर न होते तो शायद सन् 1857 की क्रांति का भी इतिहास न होता, हम उसे भी अंग्रेजों की ही दृष्टि से देख और पढ़ रहे होते। वीर सावरकर ने ही सन् 1857 की क्रांति को पहले स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया था।

उन्होंने कहा कि वामपंथियों, अंग्रेज और मुगलकालीन इतिहासकारों को दोष देने से कुछ नहीं होगा, हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा और अपने मेहनत की दिशा को केंद्रित करना होगा। हमारे देश में कम से कम 200 ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं जिनके कारण देश एकता, अखंडता अक्षुण्ण रही है और हमारी संस्कृति ने दुनिया का मार्गदर्शन किया है। कम से कम 25 ऐसे साम्राज्य हुए हैं जिन्होंने मानव जीवन को नया आयाम दिया है। हमें इस पर पुनर्लेखन करना चाहिए और उस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।