हमारी नीति का लक्ष्य ‘प्रत्येक को काम’ मिलना चाहिए

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दीनदयाल उपाध्याय

जनसंख्या, उसकी आवश्यकताएं, उन आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन एवं व्यवस्था, इन तीनों का पारस्परिक संतुलन जब बिगड़ जाता है, तब अर्थ-संबंधी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। आज देश की जनसंख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है, किंतु उसके अनुपात में उत्पादन के साधन और उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। फलत: हमारी आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो पातीं। अत: हमारे रहन-सहन का स्तर बहुत ही नीचा है। निष्कर्ष यह निकलता है कि हम उत्पादन के साधनों की वृद्धि करके आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करें। इसके लिए हमारी निगाह स्वाभाविक ही पश्चिम के बड़े-बड़े कारखानों द्वारा उत्पादन की ओर जाती है और हम पिछले छह वर्षों से उसके लिए प्रयत्नशील हैं। किंतु प्रश्न उठता है कि क्या उन साधनों पर हम देश के सभी लोगों को काम दे सकेंगे। यदि नहीं, तो उन साधनों के स्वामी एवं उन पर काम करने वाला एक छोटा सा वर्ग रह जाएगा। फलत: उत्पादित वस्तुओं का समान रूप से वितरण नहीं होगा। बचे हुए लोगों को या तो जन-सेवा के कार्यों में लगाना होगा अथवा हमारी आवश्यकताएं इतनी विभिन्न प्रकार की हो जाएं कि हम उनकी पूर्ति के लिए सबको खपा सकें तथा उसके साधन जुटा सकें। यह भी संभव है कि हम कानून बनाकर जहां चार लोगों से काम चल जाए वहां दस लोग रखने की सलाह दें। यह प्रजातांत्रिक देश में व्यापक रूप से संभव नहीं है। बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना के साधन जुटाना भी आज हमारे लिए कठिन हो रहा है तथा उस प्रक्रिया में हम छोटे उद्योगों के साधनों को भी नष्ट कर रहे हैं। आज की बेकारी प्रमुखतया ‘यांत्रिक’ है। यंत्र मनुष्य की जगह लेता जा रहा है तथा मनुष्य बेकार होता जा रहा है। यंत्र का अर्थ प्रगति समझा जाता है और इसलिए हमारी प्रगतिवादी मनोवृत्ति ‘यंत्रीकरण’ से विमुख नहीं होने देती है। हमें इस संबंध में समन्वयात्मक दृष्टि से काम करना होगा। हमारी नीति का आधार होना चाहिए ‘प्रत्येक को काम’।

प्रत्येक नागरिक का अधिकार है कि उसे काम मिले। काम न मिलने से उसकी व्यक्तिगत आजीविका का सहारा तो जाता ही रहता है, वह राष्ट्र की संपत्ति अर्जन में सहयोग देने से भी वंचित हो जाता है। प्रत्येक को काम का सिद्धांत यदि स्वीकार कर लिया तो ‘समवितरण’ की दिशा निश्चित हो जाती है। अर्थ के केंद्रीकरण के स्थान पर हम विकेंद्रीकरण की ओर बढ़ते हैं।

‘प्रत्येक को काम’ का सिद्धांत स्वीकार करने पर बातों का भी निर्धारण हो सकेगा। गणित के छोटे से सूत्र के रूप में हम अर्थशास्त्र का सिद्धांत रख सकते हैं-
जxकxय=इ

यहां ‘इ’ समाज की प्रभावी इच्छा का द्योतक है, जिसकी पूर्ति की उसमें शक्ति है।

‘ज’ समाज के काम करने योग्य व्यक्तियों का द्योतक है।

‘क’ काम करने की अवस्था एवं व्यवस्था का द्योतक है।

‘य’ यंत्र का द्योतक है।

इस सूत्र के अनुसार यदि हम चाहते हैं कि ‘ज’ निश्चित रहे तो ‘इ’ के अनुपात में ‘क’ और ‘य’ को बदलना होगा। ज्यों-ज्यों हमारी मांग बढ़ती जाएगी, हमें ऐसे यंत्रों का उपयोग करना होगा, जिसके सहारे हम अधिक उत्पादन कर सकें। आज शासन जिस नीति पर चल रही है, उसमें ‘य’ सबका नियंत्रण कर रहा है।

वास्तव में तो ‘इ’ प्रभावी मांग के बढ़ने से ही हमारी समस्या हल होगी, किंतु ‘इ’ सहज ही नहीं बढ़ सकती, क्योंकि यह हमारी क्रयशक्ति पर निर्भर करता है। अत: शासन को देश की क्रयशक्ति बढ़ाने का प्रयत्न भी करना होगा।

क्रयशक्ति मूलत: अधिक उत्पादन होने पर ही बढ़ सकती है, किंतु उसके लिए धन के अधिकाधिक समवितरण की एवं आय की विषमताओं को दूर करने की आवश्यकता है। आय जब एक सीमा से अधिक हो जाती है तो उसमें क्रयशक्ति नहीं रह जाती है। वहां तो व्यक्ति का लोभ धन के लिए होता है, आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन नहीं। साथ ही, समाज के विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों में जब विषमता कम होती है तो एक- दूसरे की चढ़ा-ऊपरी में क्रियाशक्ति और क्रयशक्ति बढ़ती है। यदि यह विषमता बहुत अधिक हुई तो प्रतिस्पर्धा नष्ट होकर भाग्यवाद और संतोष का सहारा लेकर कर्महीनता उत्पन्न करती है। अत: हमारी कर-नीति एवं अर्थ-नीति इन विषमताओं को दूर करें। यह तो अच्छा है कि जमींदारी और जागीरदारी प्रथाएं मिट रही हैं, किंतु आज भी भूतपूर्व राजे-महाराजाओं के पास अपार धन एवं आय के प्रचुर साधन हैं। उनका प्रिवीपर्स जो कि प्रतिवर्ष 5 करोड़ से अधिक होता है, ग़रीब भारत के ऊपर भार है। उनको अभी तक आय कर भी नहीं देना पड़ता। राष्ट्रपति, राज्यपालों, मंत्रियों तथा अन्य शासनाधिकारियों को भी भारी तनख्वाहें दी जा रही हैं। इन्हें कम करना होगा। कर-नीति भी निम्न और मध्यम वर्ग के ऊपर भार बढ़ा रही है। बिक्री-कर इस दृष्टि से अत्यंत अप्रगतिगामी है। इस नीति में भी परिवर्तन करना होगा।

‘इ’ अर्थात् प्रभाव मांग देश में तथा देश के बाहर भी हो सकती है। यदि हमारा माल बाहर जाता है तो ‘इ’ बढ़ जाती है। बाहर से माल आने पर देश की वस्तुओं की दृष्टि से ‘इ’ कम हो जाती है, क्योंकि हमारी ‘क्रयशक्ति’ का बहुत बड़ा भाग बाहर से आई वस्तुओं की खरीद पर खर्च हो जाता है। आज यही हो रहा है। सरकार की आयात नीति के कारण हमारे बाज़ार विदेशी माल से पट गए हैं। उनके सस्ते और अच्छे होने तथा ‘स्वदेशी’ प्रेम के अभाव के कारण उनकी भारी खपत है। फलत: स्वदेशी वस्तुओं के लिए ‘इ’ दिन-प्रतिदिन गिरती जा रही है। चूकि ‘य’ और ‘क’ में एकाएक परिवर्तन करना संभव नहीं, इसलिए ‘ज’ कम होता जा रहा है। बेकारी बढ़ रही है। इसे रोकने के लिए जहां एक ओर विदेशी आयात की उन वस्तुओं पर जो स्वेदशी तैयार माल पर अनुचित रूप से दबाव डाल रही हों, प्रतिबंध लगाना होगा तो दूसरी ओर समाज में ‘स्वदेशी’ की भावना को भी जाग्रत करना होगा। विदेशी आयात पर नियंत्रण, आयात-निर्यात नीति एवं तटकर-नीति के द्वारा किया जा सकता है। बड़े-बड़े उद्योगों को संरक्षण देने की नीति को शासन ने अंग्रेज़ी काल से ही अपनाया है, किंतु घरेलू एवं ग्रामोद्योगों की ओर दृष्टि पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। उन्हें संरक्षण की नितांत आवश्यकता है और वह हमें देना ही होगा।

(दीनदयाल उपाध्याय समग्र खण्ड-2 से साभार)